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This Article is From May 28, 2019

पं. नेहरू जिस बात पर अमल कर चुके हैं पीएम मोदी ने कही वही बात

Amit
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 28, 2019 09:15 am IST
    • Published On मई 28, 2019 09:15 am IST
    • Last Updated On मई 28, 2019 09:15 am IST

इतिहास की उल्टी व्यख्या नहीं हो सकती. (जैसे 'समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाए) व्यक्ति एक-दूसरे के कार्यों से प्रेरणा ले सकते हैं, लेते हैं. कई बार देश की परंपराएं इतनी गहरी धंसी होती हैं कि, कभी ये किसी के कार्यों के द्वारा, तो कभी किसी के शब्दों के द्वारा प्रकट हो जाती हैं. अपनी वैचारिक मान्यताओं और सुविधा के कारण हम उन्हें किसी व्यक्ति या समूह से जोड़ देते हैं.

सर्वमत से चलती हैं सरकारें
दूसरी बार सरकार बनाने जा रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने 'सर्वमत' से सरकार चलाने की बात की हो. अपने पहले कार्यकाल में भी वे कई बार यही बात कहते आए हैं कि "सरकार बनती है बहुमत से लेकिन चलती है सर्वमत से है."

उनके आलोचक कह सकते हैं कि "ये महज़ उनके शब्द भर हैं, असलियत में वे इसके उलट काम करते हैं." ऐसा कहना ठीक नहीं है. पिछले 5 सालों में देखें तो कई मौके आए हैं, जब सदनों में विपक्ष (कांग्रेस) का साथ लेकर महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराया गया. लेकिन यह इस पोस्ट का केंद्र नहीं, तो इसे यहीं छोड़ते हैं. आइए, अब पंडित नेहरू के उस एक्शन को देखें, जिसकी चर्चा यहाँ जरूरी है.

जवाहरलाल नेहरू ने सर्वमत को लागू किया
सर्वमत से सरकार चलाने का आदर्श नेहरू जी ने अपनी पहली सरकार में दिखाया था, जब उन्होंने पांच गैर-कांग्रेसियों को अपने मंत्रिमंडल में जगह दी थी. ये पांच महानुभाव थे; डॉ बीआर अंबेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जॉन मथाई, सीएच भाभा और शन्मुखम शेट्टी. इनमें से डॉ अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो घनघोर विरोधी और आलोचक थे. 5 की यह संख्या तब और महत्वपूर्ण हो जाती है, जब हम देखते हैं कि मंत्रिमंडल में मंत्रियों की कुल संख्या मात्र 14 (चौदह) थी. इतना ही नहीं, भारत के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति कभी कांग्रेसी नहीं रहे थे.

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास योग्य व्यक्ति नहीं थे या उनके पास संख्या कम थी. बल्कि नेहरू जी पूरे देश में बिखरे विचारों को समाहित करना चाहते थे, इसीलिए इतिहासकार बिपिन चंद्र ने इसे सही मायनों में एक राष्ट्रीय सरकार की संज्ञा दी है.

इस तरह देखें तो यह नेहरू जी थे, जिन्होंने सर्वमत से सरकार चलाने का उच्च आदर्श स्थापित किया. अब यह अलग बात है कि अंबेडकर और मुखर्जी, जल्द ही मंत्रिमंडल से अलग हो गए.

नेता प्रतिपक्ष का मामला
सर्वमत का इतना उच्च आदर्श स्थापित करने वाले नेहरू जी ने ही विपक्ष के नेता की अहर्ता का अलिखित नियम बनाया, जो सदन की संख्या का कम से कम दस फीसदी तय किया गया. इस प्रकार उन्होंने विपक्ष के नेता को नियमानुसार अस्तित्व में नहीं आने दिया. बाद में सैलरी एंड अलाउंसेज़ ऑफ लीडर ऑफ़ ऑपोज़िशन इन पार्लियामेंट एक्ट-1977 द्वारा 'नेता-प्रतिपक्ष' को परिभाषित किया गया और उससे जुड़े नियम-क़ायदे बनाए गए.

इस प्रकार हम भी वर्तमान सरकार से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह इस बार कांग्रेस पर दया दिखाते हुए 52 की संख्या में उसे अधिकृत विपक्ष/नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देगी. पिछली बार आधिकारिक नेता प्रतिपक्ष नहीं था. इसके लिए जरूरी आवश्यक संख्या 55 सदस्यों की है.

नेहरू जी जब तक PM रहे, न सिर्फ उस समय तक बल्कि 1969 और बाद में दो बार कांग्रेस ने विपक्ष को अधिकृत दर्जा नहीं दिया. यानी कांग्रेस उसी विरासत का अनुसरण करती रही, जिसकी शुरुआत नेहरू जी ने की थी.

अब कोई यह न कहे कि ये तो पहले लोकसभा अध्यक्ष जीवी मावलंकर जी थे, जिन्होंने नेता प्रतिपक्ष के लिए दस फीसदी वाला नियम बनाया. क्योंकि तकनीकी रूप से इस नियम को बनाने वाले भले मावलंकर रहे हों लेकिन नेहरू की सहमति के बिना इसे बनाना संभव नहीं था.

(अमित एनडीटीवी इंडिया में असिस्टेंट आउटपुट एडिटर हैं)  

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