मनीष कुमार की कलम से : नेपाल में भूकंप के बाद क्या हो रहा है

नई दिल्ली:

नेपाल परेशान है, यहां के लोग हताश और निराश है। उनकी परेशानी या बर्बादी की जड़ में है शनिवार को आया भूकम्प। लेकिन निराशा अगर दिनोंदिन बढ़ती जा रही है तो उसका कारण है नेपाल के वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व का पूरी समस्या या आपदा से निपटने में विफलता।
 
नेपाल में भूकम्प आने के बाद अभी तक कैबिनेट की आपातकालीन बैठक नहीं हुई है। न ही संसद या संविधान सभा की आपातकालीन बैठक बुलाने की कोई पहल। भारत के प्रधानमंत्री ने आपदा रहत कोष में एक महीने का वेतन दे दिया। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार समेत कई राजनेताओं ने इस पहल का अनुसरण किया। लेकिन नेपाल में प्रधानमंत्री हों या मंत्री या संसद के सदस्य, किसी ने वेतन देना तो दूर की बात है, प्रभावित इलाकों में जाकर लोगों से बातचित करने की कोशिश अभी तक नहीं की। प्रधानमंत्री सुशील कोइराला बुधवार को काठमांडू के कुछ रिलीफ कैंपों में गए तो उन्हें उल्‍टे पांव जनता के गुस्से के कारण लौटना पड़ा।
 
और राजनैतिक नेतृत्व के पंगु हो जाने के कारण नेपाल में सब कुछ चाहे वो रहत हो या बचाव, सारा काम काठमांडू घाटी में सिमट कर रह गया है। किसी को नेपाल की राजधानी से 20 किलोमीटर दूर जाने की हिम्मत नहीं। जो कुछ हो रहा है भाग्य भरोसे हो रहा है।
 
रहत सामग्री पूरे विश्व से आ रही है लेकिन उन्हें बांटने वाला कोई नहीं। सरकार और सेना में तालमेल का आभाव है। सब यही चाहते हैं कि उनका काम कोई दूसरा कर दे या जो संस्था आई है वो सरकार के काम भी कर दे। रहत सामग्री से त्रिभुवन एयरपोर्ट भरा पड़ा है। भूकम्प प्रभावित लोगों को जो भी चाहिए वो टेंट हों या पानी या दवा सब कुछ पर्याप्त मात्रा में हैं, लेकिन उनका वितरण कैसे हो इस पर माथापच्ची अभी भी जारी है।
 
कई देशों के डॉक्टर ऐसे ही घूम रहे हैं, उन्हें कोई बताने वाला नहीं कि कहां जाना चाहिए। डॉक्टर बैठे हैं और खोजी कुत्ते खुद से सूंघ कर मलबों से लाश निकालने में मदद कर रहे हैं। हर कोई मदद करना चाहता है लेकिन किसी को मालूम नहीं कि सही माध्यम क्या है। पुराने मंदिर गिर गए, पुराने हेरिटेज भवन जमींदोज हो गए, कुछ बैंक या उद्योगपति उनका पुनर्निर्माण करना चाहते हैं लेकिन सरकार ने अभी तक वैट हटाने की घोषणा नहीं की है। अमूमन ऐसे कामों में सररकर वैट माफ़ कर देती है।
 
कैंप में रहने वाले लोगों को अब महामारी का डर है लेकिन सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। सबसे मुश्किल है कि काम करने वाले लोग अब काठमांडू में नहीं बचे और जिसके कारण सैनिक अब झाड़ू लगाने से लेकर ईंट उठाने का काम तक कर रहे हैं।
 
ग्रामीण इलाकों में आप जाएंगे तो आपकी रूह कांप जाएगी। वहां कोई नहीं पहुंचा। लोग मलबा हटाने से लेकर फंसी लाशों तक को निकालने का काम खुद कर रहे हैं। वहां पंचायती राज व्‍यवस्‍था पहले ही चौपट हो चुकी है। ऐसे में नेपाल में आम लोगों के गुस्से का सामना अगर नेताओं को करना पड़े तो आश्‍चर्य की बात नहीं।


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