कुछ वक्त पहले दिल्ली के ग्रेटर कैलाश इलाके के एक कॉफी शॉप में अचानक मुलाकात हुई उन एक्टर से जिन्होंने महाभारत में द्रोणाचार्य का किरदार निभाया था. लंबी प्रभावशाली कद-काठी. मौसम ठंड का था, उन्होंने ओवरकोट भी पहन रखा था इसलिए उनका व्यक्तित्त्व और रौबीला सा लग रहा था. खैर ऐसे शख्स सामने आएं तो फिर मुंह से कौन सी बातें निकल सकती है, सोच ही सकते हैं आप. तो बुदबुदा दिया कि बचपन में देखे थे, अभी तक याद है आपका किरदार. क्या जोरदार ट्रेनिंग दी आपने पांडवों को. आपकी पर्सनैलिटी काफी जोरदार है और मेरे 'बेलटेक' टीवी का स्पीकर भी गनगना जाता था आपकी आवाज से वगैरह... वगैरह. तो वे मुस्कुराते हुए मेरी इन तारीफों को स्वीकार करते रहे.. जैसा शायद उन्होंने इतने सालों में पता नहीं कितनी बार किया होगा, मुझे यह महसूस कराते हुए कि मेरी की गई तारीफें कितनी मौलिक हैं. आज वे इसलिए याद आए क्योंकि खेल दिवस के मौके पर द्रोणाचार्य पुरस्कार का जिक्र हुआ.
आज से कुछ वक्त पहले तक द्रोणाचार्य के बारे में कुछ ज्यादा न सोचा था, सोचता भी क्या. बचपन में कई ऐसे द्रोण मिले कि जिंदगी का कोण ही बिगाड़ दिया. खासकर गणित और केमिस्ट्री की दो द्रोणनियां. खैर इसके अलावा और कोई राय नहीं बनी थी. जो थी वह बीआर चोपड़ा वाली महाभारत की बदौलत थी, जिसने वह काम किया था जो बहुत से घरों में मुमकिन नहीं था, वह था घर के अंदर महाभारत रखना. हमारे घरों में कहा जाता था कि उससे परिवार में लड़ाई होती है. मानो लड़ाइयों के लिए किताबों की जरूरत पड़ती हो. तो ऐसे निषेध को कई नई किताबों ने आसानी से पार करने दिया. अंग्रेजी में लिखी कुछ किताबों ने उसे और सरल बनाया. हिंदी में भी कुछ किताबें थीं लेकिन वे ज्यादा उपलब्ध नहीं रहीं.
नई किताबों ने महाभारत को भी नए तरीके से इंटरप्रेट किया, किरदारों की नई व्याख्याएं की हैं. इनमें से बहुत काफी दिलचस्प भी हैं और नई रोशनी में चीजों को देखने के लिए प्रेरित भी करती हैं. जिनमें से एक द्रोणाचार्य भी थे. जिनमें से ज्यादातर जानकारी तो थी ही लेकिन कभी सोचा नहीं. और अब लग रहा है कि कैसी विडंबना है कि देश में गुरुओं को सम्मानित करने के लिए जो पुरस्कार का नाम रखा गया वह द्रोणाचार्य के नाम पर ही पड़ा. वही द्रोणाचार्य जिन्होंने राजकुमारों के लिए अपने स्कूल में सूत पुत्र को एडमिशन नहीं दिया था. फिर द्रुपद से नफरत भी थी, जिसमें शिष्य को ही हिसाब चुकता करने की जिम्मेदारी दे दी. गुरु ने अपने शिष्यों को ही इस्तेमाल कर लिया. गुरुदक्षिणा के तौर पर द्रुपद को बंदी बनाने के लिए कहा. फिर द्रोण ही शायद ऐसे गुरु रहे जिनके सामने उनके शिष्यों में से एक अपनी पत्नी को जुए में दांव पर डाल देता है और दूसरा शिष्य उसी भाभी के चीरहरण में लग जाता है, गुरु मौन. और तो और ऐसे गुरु भी जिन्होंने गुरुदक्षिणा में एक शिष्य का अंगूठा ही ले लिया. वह शिष्य जिसको उन्होंने शिक्षा भी नहीं दी थी. वैसे महाभारत के साहित्य को देखिए और आज के वक्त के हिसाब से व्याख्या करें तो लगेगा कि ये कथाएं आज के युग की थीं.
वैसे शक तो मुझे यह भी होता रहा है कि यह सम्मान देकर सरकारें अपनी जिम्मेदारी से तो नहीं बचती रही हैं. चार साल में एक करोड़-दो करोड़ देकर नाम कमा लिया है, हेडलाइन बना ही दिया है. फोटो ऑप भी हो चुका है. ट्विटर-फेसबुक पर खबर भी ट्रेंड हो ही चुकी है तो फिर चार साल के लिए कहानी सेट है. अब कोई पूछेगा नहीं कि बाकी के चार साल यह सरकारें क्या करती रहती हैं. सब कुछ सिंबल तो बन ही गया है. तो एक सिंबॉलिक ट्राई और कर लिया जाए. लेकिन परंपरा का निर्वाह करते हुए मैं सिर्फ सवाल उठाकर ब्लॉग खत्म करूंगा, विकल्प नहीं सुझाऊंगा. जो सम्मान दे रहें हैं उन्हें कोई समस्या नहीं, जिन्हें मिलेगा उन्हें भी नहीं. बाकी मेरा वीकली ऑफ था तो सोचा मैं भी मन की बात निकाल ही लूं.
क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...
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This Article is From Aug 29, 2016
खेल दिवस और गुरु द्रोणाचार्य पर मेरे मन की बात
Kranti Sambhav
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 29, 2016 18:05 pm IST
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Published On अगस्त 29, 2016 18:05 pm IST
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Last Updated On अगस्त 29, 2016 18:05 pm IST
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