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This Article is From Jun 01, 2024

साइलेंट वोटिंग बनाम टैक्टिकल वोटिंग का नया फॉर्मुला और नतीजों का इंतजार

Awatansh Kumar Chitransh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 03, 2024 13:24 pm IST
    • Published On जून 01, 2024 16:23 pm IST
    • Last Updated On जून 03, 2024 13:24 pm IST

सातवें चरण का मतदान पूर्ण होने के बाद अब 4 जून को लोकसभा चुनाव के नतीजे आने हैं. इससे पहले देश के राजनीतिक चिंतक, विश्लेषक और पत्रकार इस नतीजे पर नहीं पहुंच पाएं हैं कि दस साल से सत्ता में रहे नरेन्द्र मोदी की सरकार को जनता चुन रही है या नहीं. असल में इस सवाल और संशय में ही नतीजा छुपा हुआ है, लेकिन एक बड़ा माहौल तैयार हुआ है कि इंडिया गठबंधन और एनडीए में कांटे की टक्कर है और इस बार भाजपा की सरकार बनना मुश्किल है. ये माहौल राहुल गांधी द्वारा निकाली गई दो न्याय यात्राओं की सफलता है, जो धीरे-धीरे रिफ्लेक्ट कर रही है. साथ ही भाजपा को हराने के लिए मुस्लिम वर्ग की टैक्टिकल वोटिंग का पैटर्न भी टूट कर कांग्रेस के खेमे में जा चुका है, जो राहुल गांधी की दूसरी बड़ी सफलता है.

अब राहुल गांधी की दो सफलताओं का हल्ला तो होगा ही, सो 2024 के इस आम चुनाव में कांग्रेस मजबूत दिख रही है,लेकिन बीजेपी कमजोर नहीं. यही वजह है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार को जनता चुन रही है या नहीं, इसके जवाब में सभी लोग खामोश हो जा रहे हैं.

राहुल गांधी की न्याय यात्रा ने माहौल तो बना लिया, लेकिन माहौल को वोट में टर्नआउट करने के लिए जो जरूरी समीकरण और संसाधन जुटाने थे, वह उसमें पीछे रह गई. इसकी कई वजह हैं एक तो जिन राज्यों  में वह अकेली है वहां वह बुरी तरह से कुछ बड़े नेताओं की गोलबंदी का शिकार है. छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पीछे पांच साल सरकार में रहने के बावजूद संसाधन जुटाने में या उसका उपयोग करने में कांग्रेस से असहज दिखी, जिसका इलाज राहुल नहीं कर पाए. दूसरा जिन राज्यों में उसके सहयोगी मजबूत हैं वह भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग का तोड़ नहीं खोज सके.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी गैर यादव ओबीसी और दलित वोटों को अपने साथ जोड़ने में असफल रही है, हालांकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने काफी पहले से ही भाजपा के इस समीकरण को तोड़ने की लाइन में काम करना शुरू कर दिया था और टिकट बांटते वक्त परिवार के बाहर किसी भी यादव को टिकट नहीं दिया. सपा ने करीब तीस ओबीसी और पंद्रह एससी उम्मीदवार उतारे हैं, बावजूद इसके वो गैर यादव जातियों के मन से सपा की छवि ठीक नहीं कर पाए. संविधान बचाने और जातीय जनगणना के नाम पर राहुल अखिलेश ने लगातार गोलबंदी की, लेकिन जातीय एस्पीरेशन को साधने की भाजपाई रणनीति और उनकी पार्टी की छवि माहौल को मतदान में उतार नहीं सकी.

इसी से जुड़ी मुसलमानों की टैक्टिकल वोटिंग की परंपरा भी है, जो इस बार टूट गई है. मुस्लिम वर्ग टैक्टिकल वोटिंग नहीं कर रहा है, बल्कि भाजपा को हराने के लिए वो कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन के साथ है. कांग्रेस को इसका सीधा और दूरगामी फायदा है, लेकिन भाजपा को इससे टैक्टिकल फायदा है. विश्लेषक और राजनीति के मर्मज्ञ इसको इसलिए डिकोड नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उनकी आंखों पर न्याय यात्रा की सफलता का माहौल चढ़ा है, लेकिन मुस्लिम टैक्टिकल वोटिंग पैटर्न खत्म होने के साथ ये टर्मिनोलॉजी गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों में ट्रांसफर कर गई है.  यही शांति जिसे मैं  इनकी टैक्टिकल वोटिंग कह रहा हूं, चिंतकों को परेशान कर रही है. खुद भाजपा पहले दो चरणों में इसे डिकोड करने लगी रही, जिसके बाद नरेन्द्र मोदी खुद मोर्चा संभालते हैं और धड़धड़ा न्यूज चैनलों और यूट्यूबर को इंटरव्यू देते हैं और  2014 -2019 में जमकर वोट करने वाले ओबीसी और दलित मतदाताओं को अपने काम गिनाते हैं. इनके सभी इंटरव्यू इसी वर्ग को संबोधित रहे. 

 यहां यह भी समझना चाहिए कि भाजपा को इस वोटबैंक के छिटकने का डर पहले से ही था, जिसको दुरुस्त करने के लिए भाजपा के दो राज्यों में प्रयोग उल्लेखनीय है. एक मध्य प्रदेश में यादव मुख्यमंत्री देना जिसका असर यूपी बिहार हरियाणा के यादवों में सीधा संदेश था कि भाजपा यादव विरोधी नहीं है, लेकिन यूपी डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और अनुप्रिया पटेल लगातार एंटी यादव मौर्या और पटेल एस्पीरेशन का टैम्पो हाई रखा. पश्चिम में जयंत चौधरी और पूरब में ओमप्रकाश राजभर, दारा सिंह चौहान, निषाद और मध्य उत्तर प्रदेश में गैर जाटव पासी वाल्मिकी जातियों को भाजपा ने अपने साथ जोड़े रखने की कवायद करती रही.

दूसरा प्रयोग बिहार में नीतीश कुमार को अपने पाले में लाना, गौरतलब है कि 2014, 2017,2019, 2022 के चुनावों में ओबीसी वोट के सहारे भाजपा ने ज्यादातर राज्यों में  चुनाव जीता और केन्द्र में भी सरकार बनाई,जबकि 2015 और 2020 में बिहार हारे. नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की सोशल इंजीनियरिंग के आगे भाजपा ओबीसी वोट नहीं ले सकी. इस चुनाव में यही ओबीसी वोट भाजपा की नैय्या पार लगा रहा है. अब इस दावे को मानने के लिए आपके पास दो वजहें हैं, एक तो आपको ये मानना पड़ेगा कि अखिलेश और तेजस्वी अन्य यादव ओबीसी दांव से सपा और राजद की छवि में कोई सुधार नहीं हुआ है, अगर ऐसा हुआ तो टैक्टिकल वोटिंग कर ये वर्ग फिर से भाजपा के साथ जाएगा. अगर अखिलेश और तेजस्वी, राहुल गांधी के साथ मिलकर संविधान बचाओ और आरक्षण बचाओ का नारा इन वर्गों को समझा ले जाते हैं तो ये जातियां अपनी जाति के कैंडिडेट को वोट करेंगे, जिससे भाजपा के विनिंग सीट में कमी आएगी. विश्लेषक इसे दबी जबान में समझ रहे हैं और लोगों को समझा रहे हैं कि वोटिंग साइलेंट है.

चुनाव से पांच माह पहले की तस्वीर याद कीजिए जब राजद ने यादव राजनीति से बाहर निकलने की बहुत कोशिश की, न्याय यात्रा का संदेश और जातीय जनगणना ने राजद का माहौल बनाया, लेकिन भाजपा की रणनीति में वो फिर फंस गई, गैर यादव राजनीति के सबसे बडी धुरी नीतीश कुमार को तोड़कर एनडीए में लाना रहा है. भले ही इस फैसले को मीडिया अवसरवाद के तौर दिखाता है, लेकिन जमीन पर अन्य यादव पिछड़ा समीकरण बहुत गहरा हो चुका है. ठीक वैसे ही जैसे मंडल राजनीति के समय में क्षत्रिय और ब्राह्मण हाशिए पर फेंक दिए गए थे.

दूसरी बात यादवों के परिवार के बाहर टिकट ना देने और अन्य ओबीसी जातियों को 17 टिकट देने से कई पॉकेट में यादव अखिलेश से नाराज हैं, खासकर वहां जहां भाजपा के यादव कैंडिडेट हैं, खासतौर से पूर्वांचल में. बिहार में भी राजद ने भी लगभग यही समीकरण बनाया चूंकि गैर यादव नीतीश कुमार की 20 साल की सक्रिय राजनीति है, पंद्रह साल से मुख्यमंत्री हैं, ऐसे में राजद के पास अन्य पिछड़ी जातियों के भरोसे नहीं जा सकते हैं, लिहाजा इंडिया गठबंधन में मिली 23 सीटों में नौ पर यादव उम्मीदवार खड़े किए, जबकि 6 सीटों पर अन्य पिछड़े वर्ग से उम्मीदवार उतारे.  

तीसरी बात, मुस्लिम वर्ग का एकजुट वोटिंग पैटर्न ओबीसी वर्ग को भड़काने के लिए काफी है. ऐसा नहीं है कि कांग्रेस, सपा और राजद के रणनीतिकार इसे समझ नहीं रहे थे. इसे एक लाइन में समझें तो बिहार इंडिया गठबंधन ने 40 में पांच सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार दिए और यूपी में सपा ने केवल चार मुस्लिम उम्मीदवार दिए, ताकि 2014 और 2019 में भाजपा को झोला भर कर वोट करने वाली जातियां भड़क ना जाएं. अब ये रणनीति कितनी काम की है, ये 4 जून को पता चल जाएगा, लेकिन मुस्लिम टैक्टिकल वोटिंग के खिलाफ क्या ओबीसी और दलित इस बार टैक्टिकल वोटिंग कर रहा है. ये बड़ा सवाल है.

 आइए अब वोटिंग प्रतिशत कम होने वाले दलील पर चलते हैं. उस पर सबसे पहले यह समझें कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पूर्व 18 से 19 वर्ष की उम्र के 1.6 करोड़ नए मतदाता जुड़े थे और इस चुनाव में छह करोड़ से ज्यादा ऐसे मतदाता थे. ऐसा माना जाता है कि ये युवा मोदी सरकार से प्रभावित थे. 2024 में 1.85 करोड़ मतदाता 18 से 19 वर्ष के हैं, जिन्हें फर्स्ट टाइम वोटर कहा जाता है. कुछ पत्रकारों और विश्लेषकों का  मानना है कि इस चुनाव में बेरोजगारी, महंगाई और पेपर लिक्स युवाओं के लिए बड़े मुद्दे हैं. इसका सबसे बड़ा असर इस बार लोकसभा चुनाव के लिए वोट कर रहे छह करोड़ से ज्यादा युवाओं पर है, जिस पर भाजपा के रणनीतिकार साइलेंटली काम रहे थे, जो कोरोना काल के बाद से ही शुरू हो गया था. इसका सबसे बड़ा उदाहरण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का तीस लाख छात्रों के साथ परीक्षा पर चर्चा है. साइलेंट वोटिंग को डिकोड करने में जानकार इस पहलू को नजरअंदाज कर रहे हैं कि भाजपा ने अपने वोटबैंक को होल्ड करने के लिए लगातार कार्यक्रम कर रही थी.

रही बात मतदान घटने से नफे नुकसान को टटोलने में एक बार फिर गणितीय त्रुटि दिख रही है. चुनाव आयोग के मुताबिक- 2024 के इस चुनाव में 96.9 करोड़ मतदाता पंजीकृत हैं जबकि 2019 में 91.2 करोड़ थे और 2014 में 83.4 करोड़ थे. 5 फीसदी मतदान कम पड़ने को लेकर विश्लेषकों का मानना कि ये सत्ता के खिलाफ है यानी भाजपा के लिए एंटी इंक्बेंसी है, लेकिन 6 फीसदी नए मतदाता बढ़े हैं उसका गणित इग्नोर कर गए.

आखिरकर, 2010- 2011 में अन्ना आंदोलन का सोशल मीडिया पर रिफलेक्शन, फिर 2014 में मोदी के मंत्र का सोशल मीडिया पर रिफलेक्शन हुआ. 2024 में  राहुल गांधी की न्याय यात्रा की सफलता का सोशल मीडिया पर रिफलेक्शन भारतीय राजनीति की बदलती जमीनी हकीकत को समझने में उलझाकर रख दिया, उस पर मुस्लिम वोट का एक तरफा कांग्रेस गठबंधन की तरफ जाने से विश्लेषकों को ही एक गणित में उलझा दिया. इन सबके बीच  राजनीति पर विचार रखने वाला बड़ा वर्ग चूक गया कि जब माहौल बनता है तो विरोधी वर्ग खामोश हो जाता है. इस खामोशी को उन्होंने साइलेंट बोलकर माहौल वाला एंगल को समझा और बोला कि लड़ाई कांटे की है, लेकिन ओबीसी और दलित साइलेंट हैं तो वो निश्चित तौर पर भाजपा को वोट करेगा और टैक्टिकल वोटिंग कर रहा है तो सीट दर सीट जातीय उम्मीदवारी के हिसाब से भाजपा को नुकसान होगा. मुस्लिम मतदाताओं की गोलबंदी से इंडिया गठबंधन को नुकसान होगा. कुल मिलाकर ये तय है कि चार जून भारतीय लोकतंत्र में चुनावी राजनीति का नया फार्मूला जरूर तय होगा.

अवतंस चित्रांश- एनडीटीवी में असाइनमेंट डेस्क पर कार्यरत हैं और उनकी बनारस में शिक्षा दीक्षा हुई है...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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