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This Article is From Jan 24, 2024

कर्पूरी ठाकुर: मसीहा अति पिछड़ों के,आरक्षण दिया सवर्णों को!

Ravikant Ojha
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 01, 2024 16:22 pm IST
    • Published On जनवरी 24, 2024 13:39 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 01, 2024 16:22 pm IST

मशहूर शायर मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल का एक शेर है- जीते-जी क़द्र बशर की नहीं होती साहब, याद आएगी तुम्हें मेरी वफ़ा मेरे बाद ...कुछ ऐसी ही शख्सियत थी बिहार के दो बार मुख्यमंत्री रहे जन नायक कर्पूरी ठाकुर की.  वो ऐसे दूरदर्शी नेता थे जो समय से आगे की सोच लेते थे. तभी तो उनके शरीर छोड़ने के चार दशक बाद देश के PM नरेन्द्र मोदी और बिहार के CM नीतीश कुमार ने वे फैसले लिए जिसकी बुनियाद कर्पूरी बाबू ने ही रखी थी...पिछड़ों की सियासत के इस युग में कोई सवर्णों के आरक्षण के बारे में सोचता है तो उसे कर्पूरी याद आते हैं. राजस्व के बड़े घाटे के बावजूद कोई शराबबंदी जैसा बड़ा जोखिम उठाता है तो उसे कर्पूरी बाबू याद आते हैं...अब बिहार के  इसे बेटे को मोदी सरकार ने भारत रत्न से नवाजने का फैसला किया है.

शुरुआत एक दिलचस्प वाक्ये से करते हैं.अपनी मौत से करीब तीन महीने पहले कर्पूरी ठाकर बिहार के खगड़िया में एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे..उनके निशाने पर थे तब के दिग्गज कांग्रेसी नेता राजीव गांधी. अपने भाषण के दौरान उन्होंने अपने एक साथी हलधर प्रसाद से एक पुर्जे पर 'कमल' लिखकर उसका अंग्रेजी अनुवाद पूछा. प्रसाद ने उसी पुर्जे पर लिखा- 'लोटस' और कर्पूरी की ओर बढ़ा दिया. भाषण के बीच में ही कर्पूरी ने पुर्जे को पढ़ा और कहा- राजीव माने कमल और कमल को अंग्रेजी में लोटस बोलते हैं.इसी नाम से स्विस बैंक में खाता है राजीव गांधी का.जाहिर है अपना ही अनोखा अंदाज़ था कर्पूरी जी का. सहजता ऐसी की  जिसका बखान करते गाहे-बगाहे बिहार के बुजुर्ग आपको मिल जाएंगे. मसलन- साल 1977 में पटना के कदमकुआं स्थित चरखा समिति भवन में जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन मनाया जा रहा था.

इसमें पूर्व पीएम चंद्रशेखर और नानाजी देशमुख जैसे नेता आए थे. थोड़ी देर में बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर भी पहुंचे. चंद्रशेखर ने देखा- उनका कुर्ता फटा हुआ है. उन्हें ठिठोली सूझी. वे उठे और सबसे चंदा मांगने लगे, कहा- कर्पूरी जी के लिए कुर्ता फंड बनाना है. तत्काल पैसे इकट्ठे हुए और चंद्रशेखर ने उसे कपूर्री को देते हुए कहा- इससे कायदे का कुर्ता-धोती खरीद लीजिए. पत्रकार सुरेन्द्र मोहन बताते हैं किकर्पूरी से पैसा तो लिया लेकिन उसे मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा दिया.

अब बात शुरू से शुरू कर लेते हैं.  24 जनवरी 1924 के दिन समस्तीपुर के पितौंझियां गांव में गोकुल ठाकुर और रामदुलारी देवी के यहां एक बालक का जन्म हुआ. नाम रखा गया- कर्पूरी ठाकुर. पिता पेशे से नाई थे लेकिन बेटे को पढ़ने में दिलचस्पी देखकर खूब पढ़ाया. बेटे ने भी पिता को निराश नहीं किया. मैट्रिक की परीक्षा पहले दर्जे से पास की. ये वो दौर था जब बिहार में कम ही लोग मैट्रिक पास करते थे वो भी फर्स्ट डिवीजन से. पिता बेहद खुश थे. बेटे को लेकर गांव के जमींदार के पास गए और बताया- बेटे मैट्रिक में अव्वल दर्जे से पास हुआ है. तब जमींदार ने कहा- अच्छी बात है, इसी बात में चलो मेरा पैर दबाओ. ये वाक्या बताने का उद्देश्य सिर्फ ये समझाना है कि कर्पूरी किस समाजिक माहौल में बड़े हो रहे थे...खैर पढ़ाई बदस्तूर जारी रही. जब वे स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे तब देश में भारत छोड़ो आंदोलन का दौर आ गया. कर्पूरी पढ़ाई छोड़ आंदोलन में कूद गए. तेज तर्रार तो थे ही..अंग्रेजों की नजर में आ गए और 26 महीने तक जेल में रहना पड़ा लेकिन तभी से वे सियासी शख्स भी बन गए. 

भारत को आज़ादी मिलने के बाद, ठाकुर ने अपने गांव के स्कूल में शिक्षक के रूप में काम करने लगे. इसी वक्त 1952 में बिहार में पहला चुनाव हुआ तो वे सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में ताजपुर निर्वाचन क्षेत्र से बिहार विधानसभा के सदस्य चुने गए. तब से लेकर 1984 तक वे कोई चुनाव नहीं हारे. 1970 में बिहार के पहले गैर- कांग्रेसी समाजवादी मुख्यमंत्री बनने से पहले ठाकुर ने बिहार के मंत्री और उपमुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया. वे जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के गुरु मानते थे. एक बार का वाक्या है- वे लोहिया से मिलने दिल्ली स्थित आवास पर गए. आधे घंटे बाहर इंतजार करते रहे लेकिन लोहिया उनसे नहीं मिले. वे बिना मिले पटना लौटे लेकिन गुरु का संदेश समझ गए. तब वे बिहार के उपमुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री थे. उन्होंने फैसला लिया- प्रदेश में आठवीं तक की शिक्षा मुफ्त होगी और मैट्रिक में अंग्रेजी में पास होना अनिवार्य नहीं होगा.

देश में पहली बार किसी सरकार ने ऐसा फैसला लिया था. इसके पीछे की वजह ये थी कि लोहिया चाहते थे कि अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की जाए क्योंकि इसकी वजह से कई छात्र मैट्रिक पास नहीं कर पाते थे. इसके अलावा शिक्षा भी मुफ्त होनी चाहिए. उस दौर में लोग मजाक से मैट्रिक पास करने वालों को कहा करते थे- कर्पूरी डिवीजन से पास हुए हो. 

बहरहाल बिहार की राजनीति ने ऐसी करवट ली कि कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बन गए. इस दौरान वो छह महीने तक ही सत्ता में रहे. लेकिन इसी दौरान क्रांतिकारी फैसले लिए. मसलन- 5 एकड़ से कम जोत पर मालगुजारी खत्म कर दी गई . उर्दू को राज्य की भाषा का दर्जा दिया गया. राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करना अनिवार्य कर दिया गया.उन्होंने ही केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया था. इसके बाद आया आपातकाल का दौर. कर्पूरी नेपाल चले गए लेकिन देश में लौटते ही पकड़े गए और जेल जाना पड़ा. इसके बाद जब चुनाव हुए तो वे 24 जून 1977 को दोबारा बिहार के मुख्यमंत्री बने.

दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर भी उन्होंने ऐसे फैसले लिए जिसने सभी को चौंका दिया. उन्होंने देश में सबसे पहले सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू करने का फैसला लिया. इसमें 12 फीसद अति पिछड़ों एवं आठ फीसद पिछड़े और तीन फीसदी गरीब सवर्णों को आरक्षण दिया गया. गौर करिएगा ये वही आरक्षण है जिसे 40-42 साल बाद पीएम मोदी ने पूरे देश में लागू किया. ये दूरदर्शिता ही तो थी, कर्पूरी जानते थे कि अगर गरीबी-अमीरी को जाति के तराजू पर तौला गया तो शायद इतिहास इसके लिए किसी को माफी नहीं देगा. हालांकि ये फैसला कोर्ट में नहीं टिका लेकिन कर्पूरी ने भविष्य की राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही तय कर दी.

इसी तरह से 1977 में कर्पूरी ने बिहार में शराबबंदी लागू कर दी. हालांकि ये फैसला काफी दिनों तक टिक नहीं पाया लेकिन यहां भी उन्होंने भविष्य के बिहार की तस्वीर बना दी. 2015 में महागठबंधन के साथ सरकार बनाने के बाद नीतीश कुमार ने बिहार में शराबबंदी लागू की और कहा कि वे कर्पूरी के ही सपने को पूरा कर रहे हैं. 1977 में लोकसभा का चुनाव जीतकर जब वे लोकसभा पहुंचे थे, तब उन्होंने अपने संबोधन में कहा था ‘संसद के विशेषाधिकार कायम रहें लेकिन जनता के अधिकार भी जरूरी हैं. यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो एक न एक दिन जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी'. ये वो बयान था जिसकी तपिश दशकों बाद अन्ना हजारे के लोकपाल बिल के आंदोलन में महसूस की गई. जाहिर है कर्पूरी के फैसले भले ही उनके सत्ता में रहने पर खारिज कर दिए गए लेकिन दशकों बाद आज वही फैसले मिसाल भी बन रहे हैं. लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार , और राम विलास पासवान जैसे कितने ही नाम हैं जो खुद को कर्पूरी का शिष्य कहलाने में फक्र महसूस करते हैं. जो बताता है कि कर्पूरी किस आला दर्जे के नेता थे.

रविकांत ओझा NDTV में डिप्टी एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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