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This Article is From Oct 21, 2021

अफगानिस्तान पर भारत का नरम रुख?

Kadambini Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 21, 2021 19:25 pm IST
    • Published On अक्टूबर 21, 2021 19:22 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 21, 2021 19:25 pm IST

क्या भारत अब धीरे-धीरे तालिबान सरकार को एक प्रकार से स्वीकार करने की ओर बढ रहा है? असल में ये सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि 20 अक्टूबर को मॉस्को में अफगानिस्तान पर दस देशों के मॉस्को फॉर्मेट बैठक के बाद एक साझा बयान आया. इस बयान में ये भी कहा गया कि आगे अफगानिस्तान से किसी भी तरह के संबंध के मामले में ये भी ध्यान में रखना होगा कि अंतरराष्ट्रीय तौर पर भले ही देशों ने तालिबान सरकार को मान्यता दी हो या नहीं लेकिन तालिबान यहां सत्ता में है यही नई सच्चाई है.

जो देश इस बैठक में शामिल हुए उनमें रूस, चीन, पाकिस्तान, इरान, कज़ाकिस्तान, किर्गिज़स्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज़बेकिस्तान और भारत शामिल हैं.  तालिबान की अंतरिम सरकार के प्रतिनिधि तो थे ही. तो साझा बयान इन सभी देशों की तरफ से आया जिनमें भारत भी शामिल है.

पीएम मोदी ने सितंबर के शंघाई कोऑपरेशन ऑरेगेनाइज़ेशन और अक्टूबर के ब्रिक्स सम्मेलन दोनों में कहा कि अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन के बाद बने हालात से ड्रग्स, गैरकानूनी हथियार और ह्यूमन ट्रैफिकिंग का खतरा है. नई सरकार में सभी की साझेदारी नहीं है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ध्यान रखना होगा कि अफगानिस्तान आतंकवाद और उग्रवाद का स्रोत ना बने. लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि बिना रुकावट मानवीय सहायता ज़रूरी है और इसमें यूएन को आगे आना होगा.

मॉस्को में 20 अक्टूबर की बैठक के बाद तालिबान ने जो बयान जारी किया उसमें उन्होंने दावा किया कि मुख्य बैठक के अलावा उनके प्रतिनिधिमंडल ने भारत के प्रतिनिधिमंडल, जिसकी अगुवाई पाकिस्तान-अफगानिस्तान-इरान की ज़िम्मेदारी संभाल रहे ज्वायंट सेक्रेटरी जी पी सिंह कर रहे थे, उनसे भी मुलाकात की. बयान में तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद के मुताबिक दोनों पक्षों ने एक दूसरे की चिंताओं को समझने पर सहमति जताई और भारत ने मानवीय सहायता की बात कही. हालांकि भारत की तरफ से इस मुलाकात को लेकर कुछ भी आधिकारिक तौर पर नहीं कहा गया है.

हालांकि अगर अफगानिस्तान के मौजूदा हालात को देखें तो लगता नहीं कि कोई भी और पक्ष एक सरकार बनाने की हालत में है. रेसिसटेंस फोर्स अब कहीं नज़र नहीं आ रहा, ना ही कोई बड़ा समर्थन किसी और देश से उन्हें मिलता दिख रहा है. रूस और अमेरिका ने जिस तरह अफगानिस्तान छोड़ा उसके बाद शायद ही कोई देश एक बार फिर यहां पर उस तरह से आने की कोशिश करे. लेकिन क्षेत्रीय देशों, अमेरिका और यूरोपीय देशों को ये लगता है कि अफगानिस्तान आतंकियों का पनाहगाह बन सकता है और वहां से दुनिया भर में आतंक को शह मिल सकती है. ये भूलना नहीं चाहिए कि अफगानिस्तान की अंतरिम कैबिनेट में यूएन की फेहरिस्त में मौजूद कई आतंकी हैं. ऐसे में तालिबान की हर प्रकार से मदद कर चुके और अब उसकी सरकार का मान्यता देने की वकालत कर रहे पाकिस्तान ने भी उसकी सरकार को आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी है.

लेकिन फिर देशों के पास विकल्प क्या है क्योंकि ये तो सच ही है कि तालिबान की सरकार अफगानिस्तान में है. इसलिए बिना मान्यता दिए सरकारें मानवीय तौर पर गैर सरकारी और विश्वसनीय संगठनों के ज़रिए आम अफगान लोगों तक मदद पहुंचाना चाहती हैं ताकि भूखमरी की कगार पर खड़ी जनता को राहत मिल सके. साथ ही कोशिश ये है कि कि तालिबान अपने वादों पर - औरतों के अध‍िकार, मानवाधिकार और अल्पसंख्यकों और महिलाओं का सरकार में प्रतिनिधित्व - पर अमल करे. स्थिरता के साथ ही गुनिया के लिए भी शायद वहां से हो सकने वाले आतंक के खतरे घटें ये उम्मीद है...भारत को भी.

कादम्बिनी शर्मा NDTV इंडिया में एंकर और सीनियर एडिटर (फॉरेन अफेयर्स) हैं...

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