ज़ेवर एयरपोर्ट - सरकार के सपनों का शिलान्यास, किसानों की हिल गयी आधारशिला

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 25 नवंबर को नोएडा इंटरनेशनल एयरपोर्ट की आधारशिला रखने वाले हैं. इस प्रोजेक्ट को लेकर एक तरफ बड़े बड़े सपने दिखाए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ इसके लिए जिनके घर उजड़े हैं वो फिलहाल ऐसे हर सपने से खुद को दूर पा रहे हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 25 नवंबर को नोएडा इंटरनेशनल एयरपोर्ट की आधारशिला रखने वाले हैं. इस प्रोजेक्ट को लेकर एक तरफ बड़े बड़े सपने दिखाए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ इसके लिए जिनके घर उजड़े हैं वो फिलहाल ऐसे हर सपने से खुद को दूर पा रहे हैं. इससे पहले कि आप एयरपोर्ट के बनने के बाद इसे कौन उद्योगपति खरीदेगा, इस टाइप के लतीफे में व्यस्त हो जाएं, इसकी परवाह करनी चाहिए कि ऐसी बड़ी योजनाओं की बड़ी कुर्बानी कौन देता है. किसान किस तरह की मानसिक यातना से गुज़रता है. उसे मुआवज़ा मिलता है लेकिन वो मुआवज़ा भी इतनी आसानी से नहीं मिलता है. मुआवज़ा मिलने और नई जगह में बसने से पहले वह अपने गांव और घर से उजड़ता है. क्या उजड़ने से पहले उसे अपने गांव को एक आख़िरी बार जी भर के देख लेने की अनुमति दी जाती है या मुआवज़ा देकर बुलडोज़र चला दिया जाता है. किसान एक खुले घर से दड़बे नुमा मकान में जाता है. उसके लिए सब कुछ नया और अनजाना हो जाता है. ये वही किसान हैं जिनकी पहली कुर्बानी के बाद मिडिल क्लास और अमीर क्लास विकास की उड़ान भरता है. कभी आपने नहीं सुना होगा कि किसी अमीर बस्ती को उजाड़ कर विकास की कोई नई योजना लांच की गई है. अगस्त में रवीश रंजन ने उन किसानों से बात की थी जो किसान अपने घर से उजड़ कर नए घरों में बस रहे थे.

रवीश ने 14 अगस्त को यह रिपोर्ट फाइल की थी. इस रिपोर्ट के साढ़े तीन महीने बाद यानी 23 नवंबर को अरविंद उत्तम और सौरभ शुक्ला इसी इलाके में फिर से गए. जिस एयरपोर्ट को लेकर सरकार उपलब्धियों की सूची लंबी कर रही है उसी एयरपोर्ट के लिए विस्थापित किसानों की शिकायतों की सूची भी कम लंबी नहीं है. सौरभ ने बताया कि ज़ेवर में बनने वाले एयरपोर्ट के कारण 9000 किसान परिवार विस्थापित होंगे. यह कोई सामान्य संख्या नहीं है. हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री किसान आंदोलन से भले बात नहीं करते हैं लेकिन किसानों का सम्मान बहुत करते हैं तो हमारा सवाल है कि इसके भूमि-पूजन में क्या ये 9000 किसान परिवार भी बुलाए जाएंगे जिनकी ज़मीन पर भूमि पूजन हो रहा है? पहले चरण में पारोही, रन्हेरा, रोही, दयानतपुर, किशोरपुर, बनवारी वास की ज़मीन पहले चरण के लिए ली गई है. क्या उनसे पूछा जाएगा कि मकान बनाने, मलबा हटाने का पूरा पैसा सभी को मिला है या नहीं. 

हर कोई गांव लौटना चाहता है, नहीं लौट पाता तब भी यादों में लौटता रहता है. अमरीका जाकर भी लोग अपने गांव को याद करते हैं. एक भरोसा रहता है कि उनका गांव वहां रहेगा, वे कभी भी जा सकते हैं.

लेकिन ये लोग यहां से कुछ दूरी पर बस कर भी अपने गांव नहीं जा सकेंगे. जहां पर उनका गांव था वो समतल हो जाएगा और उस पर बने रनवे पर जहाज़ दौड़ रहे होंगे. न वे अपने गांव को देख सकते हैं न वहां जा सकते हैं. इस विस्थापन को हम या आप नहीं समझ सकते, लेकिन अमरीका गए NRI अंकिल के दर्द से तुरंत जुड़ जाते हैं कि वे न्यूजर्सी में रहकर अपने गांव के लिए तरस रहे हैं. उनके फेसबुक पोस्ट को झट से लाइक कर देंगे. हम नहीं जानते कि विकास के लिए उजाड़े गए इन लोगों को किस तरह मनोवैज्ञानिक सलाह की ज़रूरत होती होगी, सिर्फ यही गिनते हैं कि मुआवज़ा मिल गया.

यह छोटी कुर्बानी नहीं है. जिन किसानों के आंदोलन से मिडिल क्लास चिढ़ा रहता है उन्हीं के सपनों के लिए किसान अपना घर अपना गांव दे देते हैं लेकिन हम परवाह तक नहीं करते कि अपने घर को टूटते देख किसी के मन पर कितना गहरा असर होता होगा. मुआवज़े के बाद उनका जीवन किस तरह बदल जाता है.

पत्रकार जयदीप हार्डीकर ने भारत के कई हिस्सों में घूम घूम कर विकास की योजनाओं में विस्थापित हुए लोगों पर क्या असर पड़ता है, इसका अध्ययन किया है और एक किताब लिखी है. A village awaits doomsday, यह किताब अंग्रेज़ी के अलावा हिन्दी में 'यहां एक गांव था' नाम से छपी है. पेंग्विन से छपी है. दोनों ही किताब आपको एमेज़ान से मिल जाएगी. इस किताब में जयदीप ने दिखाया है कि कैसे विस्थापन के बाद चार चार पीढ़ी तक लोग संभल नहीं पाए और उनका पुनर्वास नहीं हुआ. इस किताब में अमरीकी नृशास्त्री का एक कथन है, किसी को मार देने के बाद उसके साथ सबसे बुरा अगर आप कुछ कर सकते हैं तो वो है उसका विस्थापन करना.

अब आते हैं ज़ेवर एयरपोर्ट को लेकर किए जा रहे दावों पर. कहा जा रहा है कि कार्गो हब बन जाने के बाद इलाके की तकदीर बदल जाएगी. इस टाइप के सपने हिन्दी अखबारों में हर दिन छप रहे हैं. ऐसी खबरें छप रही हैं कि इस एयरपोर्ट के बनने से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर करीब 5 लाख 50 हज़ार लोगों को रोजगार मिलेगा. अमर उजाला में छपा है कि साढ़े पांच लाख रोज़गार मिलेगा. हमें इस तरह के दावों से सावधान रहना चाहिए. क्योंकि इसी तरह के मल्टी कार्गो हब का शिलान्यास करने नितिन गडकरी असम गए.

भारत माला प्रोजेक्ट के तहत बन रहे इस हब के कारण प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर बीस लाख लोगों को रोज़गार मिलेगा. बीस लाख रोज़गार मिलेगा, यह दावा किस आधार पर किया जाता है, इस तरह के दावों की जवाबदेही क्यों नहीं तय की जाती है. इसी तरह 2016 में जब सरकार ने टेक्सटाइल सेक्टर को 6000 करोड़ का पैकेज दिया तो कह दिया कि तीन साल में एक करोड़ रोज़गार मिलेगा. जब संसद में सवाल किया गया तब कपड़ा राज्य मंत्री दर्शना जारदोश कहती हैं कि सरकार टेक्सटाइल सेक्टर में रोज़गार पैदा होने का लक्ष्य नहीं तय करती है. अंग्रेज़ी में लिखा है The Government does not fix target for employment generation in textile sector. यह सवाल बीजेपी के सांसद अशोक महादेवराव नेते ने ही पूछा था कि क्या यह सही है कि पिछले पांच वर्षों में टेक्सटाइल सेक्टर में लक्ष्य से बहुत कम रोज़गार पैदा हुआ है.

जब ज़ेवर एयरपोर्ट को लेकर रोज़गार के दावे किए जाएं तो आप पूछ सकते हैं कि टेक्सटाइल सेक्टर में क्या एक करोड़ रोज़गार आया, ये बात तो 2016 में सरकार ने कही थी, 2021 में तो पूछ ही सकते हैं. एक और उदाहरण दे रहा हूं.

गुजरात में 3000 करोड़ की लागत से सरदार पटेल की मूर्ति बनी; इसके लिए भी ज़मीनें ली गईं. हम केवल मूर्ति देखते हैं और सराहते हैं. लेकिन जिन किसानों ने ज़मीन दी उनका क्या हुआ. क्या इस मूर्ति के कारण उनकी तकदीर बदली या मुआवज़े के साथ उनकी कहानी खत्म हो गई. अब वहां के किसानों का हाल कोई नहीं लेता और न बताता है. इसे लेकर पीयूष गोयल का एक चर्चित बयान है कि आने वाले वर्षों में स्टेच्यू ऑफ यूनिटी के इको सिस्ट्म में एक लाख करोड़ का कारोबार पनपेगा. उनका यह बयान जनवरी 2020 के इकोनमिक टाइम्स में छपा है. गुजरात में कई हज़ार उद्योग हैं इसके बाद भी राज्य का बजट करीब सवा दो लाख करोड़ का है. और अकेले इस जगह से एक लाख करोड़ के इकोसिस्टम के विकसित होने का सपना पीयूष गोयल दिखा रहे थे. एक बार नहीं कई बार. यही बात नवंबर 2019 में भी कही थी.

हम आपको कितना याद दिलाएं कि इन्हीं पीयूष गोयल का एक और बयान है जब वे रेल मंत्री बने थे. उन्होंने कहा था कि एक साल के भीतर रेलवे के इकोसिस्टम में दस लाख नौकरियां दी जा सकती हैं. क्या कोई उनके इस बयान का हिसाब दे सकता है. ज़ेवर की तरह असम में बन रहे कार्गो हब से बीस लाख रोज़गार पैदा होगा. किसी एक प्रोजेक्ट का सरकार हिसाब दे दे कि हमने कहा था कि इतना रोज़गार पैदा होगा और इतना ही हुआ. इसलिए ज़ेवर एयरपोर्ट को लेकर जब इस तरह के दावे किए जाएं कि साढ़े पांच लाख रोज़गार मिलेगा तो इन बातों को याद कीजिएगा. ज़ेवर एयरपोर्ट को तमाम खबरों में देश का पहला मल्टी कार्गो हब लिखा जा रहा है. इसी तरह का कार्गो हब नागपुर में 15 साल से बन रहा है और जो आज तक बन कर तैयार नहीं हुआ है. क्या उसे पहला माना जाएगा?

आज ही PIB की प्रेस रिलीज़ आई है. इसमें लिखा है कि पहली बार भारत में इंटीग्रेटेड मल्टी मॉडल हब की कल्पना की गई है जो लाजिस्टिक की लागत और समय में बचत करेगा. 20 अक्तूबर 2020 की PIB की एक और प्रेस रिलीज़ मिली. इसमें लिखा है कि नितिन गडकरी ने असम में देश के पहले मल्टी मॉडल लाजिस्टिक पार्क की आधारशिला रखी है.

पत्रकार जयदीप हार्डीकर ने India together नाम की वेबसाइट पर नागपुर के मिहान प्रोजेक्ट के बारे में खूब लिखा है. जब आप उस प्रोजेक्ट से जुड़ी पुरानी खबरों को पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि शुरू में कैसे कैसे सपने दिखाए जाते हैं. सपने दिखाने वाले बाज़ी मार जाते हैं और देखने वाले बर्बाद हो जाते हैं.

एक वीडियो नीतिन गड़करी के यू ट्यूब चैनल पर आज भी है. इसमें दावा किया गया है कि मिहान की कल्पना सबसे पहले गडकरी न की. दावे के वीडियो में प्रोजेक्ट को सपने जैसा सच दिखाया गया है लेकिन आज तक यह प्रोजेक्ट सपना ही है. यह वीडियो पिछले साल इसी नवंबर में अपलोड हुआ है. यानी जो प्रोजेक्ट फेल है उसका भी प्रचार अपने फ़ायदे में किया जा रहा है.

India together की साइट पर जयदीप की ये रिपोर्टिंग उन सपनों के खंडहर में बदलने की गवाह है. इन्हें पढ़ते हुए ज़ेवर एयरपोर्ट को लेकर दिखाए जा रहे सपनों की याद आ जाएगी. नागपुर के इस प्रोजेक्ट को 1998 से लेकर 21 के बीच केंद्र और महाराष्ट्र में अलग अलग दलों की सरकारों ने सपने बेचे. कार्गो हब के नाम पर ज़मीनों का अधीग्रहण शुरू हो गया और सपना दिखाया जाने लगा कि यहां क्या क्या से हो जाएगा. स्थानीय लोगों को समझ नहीं आया कि जब तक यहां मैन्युफैक्चरिंग और इंडस्ट्रियल यूनिट नहीं आएंगे, कार्गो हब नहीं बनेगा. लेकिन सपना ऐसा दिखाया गया है कि बाहर से लोग ज़मीन खरीदने आ गए और स्थानीय लोग ज़मीन बेचने लगे. इस पूरी प्रक्रिया में गांव वालों ने तीस हज़ार हेक्टेयर ज़मीन बेच दी. कार्गो हब के भरोसे बेच दी कि नया धंधा कर लेंगे लेकिन कार्गो हब तो बना ही नहीं. पंद्रह साल सपना देखते देखते गुज़र गया. आखिर लोग कैसे भरोसा नहीं करते. 8 अगस्त 2014 को लोकसभा में अरुण जेटली का एक लिखित जवाब मिलता है कि इस प्रोजेक्ट के लिए एयरफोर्स स्टेशन की 278 हेक्टेयर ज़मीन मिहान प्रोजेक्ट को दी जाएगी.

इसके अलावा 2015 में भी रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का लोकसभा में एक लिखित जवाब है. कि कैबिनेट ने एयर फोर्स की 278 एकड़ ज़मीन महाराष्ट्र सरकार को देने के आग्रह पर मुहर लगा दी है. ऐसी खबरों में जब आप केंद्रीय मंत्री के बयान को देखते हैं, देखते हैं कि प्रधानमंत्री की कैबिनेट, रक्षा मंत्रालय, राज्य सरकार शामिल है तब यकीन करने के लिए मजबूर हो जाते हैं. किसी को भी लगेगा कि सरकार प्रोजेक्ट बनवा रही है तो इस जगह की तस्वीर बदल जाएगी. लेकिन फरवरी 2021 में नागपुर से सांसद और परिवहन मंत्री गडकरी का एक बयान आता है .एक फरवरी के इंडियन एक्सप्रेस में उनका बयान छपा है. पत्रकारों ने पूछा कि मिहान यानी नागपुर का कार्गो हब कब बनेगा तो गडकरी जवाब देते हैं कि मुझे नहीं लगता है कि कभी बनेगा. मुझे लगता है कि इसे प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए. खबरों में लिखा है कि गडकरी मानते हैं कि इस प्रोजेक्ट को लेकर अब बात नहीं करनी चाहिए. तब गडकरी एक और बात कहते हैं कि हम वर्धा ज़िले के सिंदी में कार्गो हब बनाने की योजना बना रहे हैं.

एक जगह फेल तो दूसरी जगह का सपना दिखा दो. अगर इसे समझना है तो इस दौर में हर खबर को पढ़ने के साथ उस खबर से मिलती जुलती पुरानी ख़बरों को पढ़ा कीजिए. हमारी यह आदत न होती तो आपको यह नहीं बता पाते कि इस साल फरवरी में नागपुर के जिस कार्गो हब को गडकरी बेकार बता रहे थे उसी कार्गो हब को लेकर 2009 के चुनाव में सपने दिखा रहे थे.

यह खबर भी उसी एक्सप्रेस की खबर का हिस्सा है. लिखा है कि 2009 के चुनाव के पहले गडकरी ने नागपुर के यशवंत स्टेडियम में एक बड़ा कार्यक्रम किया था और कहा था कि उनका सपना है कि मिहान सफल हो. रोज़गार के सपने दिखाए और कहा था कि इससे विदर्भ जैसे पिछड़े इलाके में विकास की शुरूआत हो जाएगी.

पत्रकार जयदीप हार्डीकर कहते हैं कि नागपुर में कार्गो हब के नाम पर जो सपना बेचा गया उससे स्थानीय लोग बर्बाद हो गए. सबसे ज़्यादा बर्बादी आई शिवनगांव में. पहले से भी उसकी ज़मीनें विकास की योजनाओं के लिए ली जाती रहीं लेकिन कार्गो हब के नाम पर एक साथ 1500 हेक्टेयर ज़मीन चली गई. पूरा गांव ख़ाली हो गया. उसके पहले इस गांव के लोग साल में 25-29 करोड़ का दूघ उत्पादन करते थे. पांच हज़ार भैंसे थीं, 2000 गायें थीं. हर दिन चालीस हज़ार लीटर दूध का उत्पादन होता था. लेकिन ज़मीन अधीग्रहण के बाद बर्बाद हो गए. यही नहीं गांव के लोगों के मुआवज़े का पैसा आया तो उस पैसे को ठगने के लिए नौकरी दिलाने के नाम पर कई लोग आ गए. चिट-फंड कंपनियां आ गईं जो उनके पैसे को दो साल में दो गुना तीन गुना करने का सपना दिखाने लगीं. लोग ज़मीन बेच कर ही नहीं बर्बाद हुए बल्कि इन सब चक्करों में भी हो गए.

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इमारत बना देने से, रनवे बना देने से कोई कार्गो हब सफल हो जाए यह ज़रूरी नहीं, हम यह नहीं कहते कि ज़ेवर का सफल नहीं होगा लेकिन इस वक्त जो सपने बेचे जा रहे हैं उनकी जवाबदेही होनी चाहिए. शिलान्यास के पत्थर पर उन वादों को लिखा जाना चाहिए जो 25 तारीख को किए जाएंगे. ताकि महंगाई को सपोर्ट करने वाले युवा इसका भी सपोर्ट कर सकें कि जब हम 110 रुपये पेट्रोल भरा सकते हैं तो नौकरी क्यों चाहिए. सरकार का काम था सपना दिखाना हम युवाओं का काम था सपना देख लेना. ऐसे सुंदर युवाओं के रहते देश वाकई सपनों के समान लगता है.