वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से अब तक नरेंद्र मोदी ने जो भी भाषण दिए हैं, उनमें से किसी की भी इस तरह चौतरफा सराहना नहीं हुई, जितनी उस भाषण की हुई, जो उन्होंने शनिवार को संसद के सेंट्रल हॉल में BJP-नीत NDA के नवनिर्वाचित सांसदों के समक्ष दिया था. इस भाषण से संकेत मिले कि वह प्रधानमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल की वास्तविकता, वाग्धारा और छवि को बदलना चाहते हैं.
प्रचारक मोदी और कप्तान मोदी के बीच का फर्क प्रशसंकों को भी दिखा, आलोचकों को भी. आखिर वह संसदीय चुनाव के इतिहास में सबसे ज़्यादा ध्रुवीकृत अभियान का नेतृत्व कर यहां तक पहुंचे हैं. लेकिन अब नया बेहतर जनादेश हासिल करने के बाद आगामी गुरुवार को एक बार फिर भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने जा रहे मोदी ने कतई नई और ऐसी शैली अपनाई, जो साफ-साफ ध्रुवीकरण के उलट थी.
उनका भाषण कई पहलुओं से वास्तव में प्रशंसनीय था - और सबसे ज़्यादा भारतीय मुसलमानों की ओर उनकी पहुंच बनाने की कोशिश की वजह से. उन्होंने इस मुद्दे पर क्या कहा - और उससे भी ज़्यादा अहम - उनके कार्य उनकी बातों से मेल खाएंगे या नहीं, इन्हीं से तय होगा कि इतिहास मोदी की विरासत को किस नज़र से देखेगा.
मुस्लिमों को दिए उनके संदेश में दो बातें ध्यान रखने लायक थीं. पहले, उन्होंने मुस्लिमों का विश्वास जीतने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. उन्होंने कहा, "इस देश में वोटबैंक की राजनीति के उद्देश्य से बनाए काल्पनिक डर के ज़रिये अल्पसंख्यकों को धोखा दिया जाता रहा है... हमें इस छल का विच्छेद करना है... हमें विश्वास जीतना है..." दूसरे, उन्होंने अपनी ही वैचारिक बिरादरी के भीतर गहराई तक मौजूद सोच तथा पूर्वाग्रह को भी छेदने की बात की - कहा जाता है, मुस्लिम 'हम' नहीं हैं, 'दूसरे' हैं. उन्होंने कहा, "अब हमारा कोई पराया नहीं हो सकता है... जो हमें वोट देते हैं, वे भी हमारे हैं... जो हमारा घोर विरोध करते हैं, वे भी हमारे हैं..."
मोदी ने मुस्लिमों की तरफ यह नई और चरित्र से मेल नहीं खाने वाली पहुंच क्यों बनाई है...? और इसी वक्त क्यों...? दूसरे सवाल का जवाब आसानी से दिया जा सकता है. अब जब उन्हें पहले से बड़ा और ज़्यादा असरदार जनादेश हासिल हुआ है, जो लगभग पूरी तरह मोदी के लिए था, BJP के लिए नहीं, तो वह इस बात के प्रति ज़्यादा विश्वास से भरे हैं कि पार्टी और सरकार को उस दिशा में ले जा सकेंगे, जहां वह चाहते हैं. वह इस संदर्भ में संघ परिवार के सख्ती से भी बंधा हुआ महसूस नहीं कर रहे हैं. अब संघ परिवार को उनकी दिशा को स्वीकार करना होगा, उन्हें संघ परिवार की नहीं. यहां यह बात याद रखने लायक है कि गुजरात के तीन कार्यकाल तक मुख्यमंत्री रहने के दौरान भी उन्होंने राज्य में मौजूद बेहद शक्तिशाली विश्व हिन्दू परिषद तथा RSS के अन्य संगठनों पर पूरी तरह काबू पा लिया था.
अब पहले सवाल का जवाब जानने के लिए हमें मोदी के सामने विदेश नीति तथा घरेलू नीतियों के मोर्चे पर मौजूद बाध्यताओं तथा अवसरों की ओर देखना होगा. घरेलू बाध्यता तो यह है कि उनसे वोटरों की उम्मीदें आसमान छू रही हैं, सो, उन्हें उम्मीदों पर खरा उतरना होगा - खासतौर से आर्थिक मोर्चे पर. अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है. रोज़गार की मांग बहुत ज़्यादा है, और चौतरफा है. कृषि क्षेत्र की दिक्कतें ज्यों की त्यों बनी हुई हैं. और भले ही महंगाई इस चुनाव में मुद्दा नहीं बनी, लेकिन तेल की कीमतों में उछाल की आशंका (अमेरिका और ईरान के बीच बढ़ रहे तनाव की वजह से) से आम आदमी की दिक्कतें बढ़ेंगी ही. ऐसा हालात में मोदी घरेलू मोर्चे पर अमन की ज़रूरत को समझते हैं, जिसे उनके ही समर्थकों में मौजूद कट्टरपंथी खत्म कर सकते हैं, और मुस्लिमों को असुरक्षित महसूस करने पर मजबूर कर देगी. उनके शब्द - अब हमारा कोई पराया नहीं हो सकता है - साफ-साफ उन्हीं लोगों के लिए कहे गए थे.
प्रधानमंत्री ने कहा, "हमने 'सबका साथ, सबका विकास' के लिए काम किया... अब 'सबका विश्वास' हमारा मंत्र होगा..."
मोदी ने अपने नारे 'सबका साथ, सबका विकास' में 'सबका विश्वास' को जोड़कर अपने लिए एक और बाध्यता पैदा कर ली है. यह बात तो दिन की तरह साफ है कि न ही मोदी अब तक लगभग 20 करोड़ भारतीय मुसलमानों का विश्वास जीत पाए हैं, न उनकी पार्टी ऐसा कर पाई है. 'समावेशी भारत' के लिए 'समावेशी विकास' का उनका नया नारा कतई खोखला रह जाएगा, अगर देश का दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय खुद को सत्तापक्ष की ओर से कटा-कटा महसूस करता रहा. 23 मई को BJP मुख्यालय में दिए गए विजय भाषण में मोदी ने सही ही कहा था कि भले ही चुनाव 'बहुमत' के सिद्धांत पर जीते जाते हों, लेकिन सरकार तभी चलाई जा सकती है, देश तभी आगे बढ़ सकता है, जब 'सर्वमत' के सिद्धांत का पालन किया जाए. लेकिन क्या यह 'सर्वमत' की बात 'जुमला' बनकर नहीं रह जाएगी, अगर मुस्लिमों की आवाज़ नहीं सुनी गई, और अगर सत्ता से जुड़े संस्थानों में मुस्लिमों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया...? इस मुद्दे पर मोदी पहले से तीखे सवालों का सामना कर रहे हैं. क्यों नई लोकसभा में BJP के 303 सांसदों में एक भी मुस्लिम नहीं है...? यही हाल रहा, तो BJP को वास्तविक राष्ट्रीय पार्टी कैसे कहा जा सकता है...? हां, भौगौलिक दृष्टि से समूचे भारत में पार्टी की पहुंच बन गई है, लेकिन क्या इसकी सामाजिक पहुंच राष्ट्रीय है...?
विदेश नीति की दृष्टि से देखें, तो भी मोदी को भारतीय मुस्लिमों को साथ लेकर चलना होगा. उनकी कोशिशों से भी, और दुनिया के बदलते हालात की वजह से भी - कुछ अहम मुस्लिम मुल्कों - खासतौर से सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) - से भारत के रिश्ते हालिया सालों में मज़बूत हुए हैं. पुलवामा में CRPF जवानों पर हुए आतंकवादी हमले के बाद इन दोनों देशों ने भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को कम करने में अहम भूमिका अदा की थी. UAE ने तो भारत में चुनावी प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद मोदी को सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिए जाने की घोषणा की थी. मुस्लिम मुल्कों के साथ भारत के करीबी होते रिश्तों की चमक धुंधली हो जाएगी, अगर भारत के भीतर मौजूद साम्प्रदायिक बंटवारे हिंसक स्वरूप में सामने आते रहे.
यह भी लगभग निश्चित है कि भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्तों को सामान्य करने के लिए मोदी अब इमरान खान से बहुत-से मुद्दों पर बातचीत शुरू करेंगे. मैंने सुना है कि उन्होंने इस्लामाबाद में सैन्य ठिकानों से संचार की लाइनों को भी शुरू कर दिया है. मुझे पूरी उम्मीद है कि नए जनादेश से मिले इस मौके से पीछे नहीं हटेंगे, और इसका इस्तेमाल वह उपलब्धि हासिल करने में करेंगे, जो निस्संदेह भारत की विदेश नीति के लिए सबसे अहम चुनौती रही है. बहरहाल, इस मुश्किल काम को अंजाम देने के लिए मोदी को पहले यह दिखाना होगा कि उन्होंने न सिर्फ हिन्दुओं का 'विश्वास' हासिल कर लिया है, बल्कि भारत के मुस्लिमों का 'विश्वास' भी उन्हें हासिल है.
हां, मोदी की मुस्लिमों तक बनाई जा रही इस पहुंच का स्वागत सभी को करना चाहिए, क्योंकि इससे भारत का लोकतंत्र, विकास और राष्ट्रीय अखंडता मज़बूत हो सकती है. हालांकि वह और उनकी पार्टी गलती करेंगे, अगर वे मान लेंगे कि मुस्लिमों का भरोसा सिर्फ बातों से - या सिर्फ मुस्लिमों में डर पैदा करने के लिए धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को कोसने से जीता जा सकता है. सच है, BJP-विरोधी पार्टियां कुछ हद तक इसके लिए दोषी हैं, और उन्होंने चुनावी फायदों के लिए 'मुस्लिम वोटबैंक' का इस्तेमाल किया है, लेकिन क्या मोदी और BJP ने भी मुस्लिमों में चौतरफा फैले डर, उनके भीतर मौजूद ताकत से दूर रखे जाने की भावना, बाहरी समझे जाने की भावना और यहां तक कि दबाए गए गुस्से को बढ़ाने में योगदान नहीं दिया है...?
इसीलिए, अगर मोदी अपनी नई पारी की शुरुआत सचमुच सबको साथ जोड़कर करने के प्रति गंभीर हैं, तो उन्होंने बहुत-से मुद्दों पर आत्ममंथन करना होगा. उन्हें BJP और संघ परिवार को भी उन्हीं की लाइन पर चलने के लिए बाध्य करना होगा. उन्हें खुद आगे बढ़कर मुस्लिम समुदाय के प्रभावी और सम्मानित प्रतिनिधियों को नियमित वार्ताओं के लिए आमंत्रित करना होगा, जिनमें उनके कड़े आलोचक भी शामिल हों, और भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में ताकत के विभिन्न स्तरों पर उन्हें भी हिस्सेदारी देनी होगी. शिक्षा, रोज़गार और सिविल सेवाओं व सैन्य सेवाओं में समान अवसरों के मामले में मुस्लिमों की भागीदारी कम (सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में सामने आई कड़वी सच्चाई) होने के लिए सिर्फ कांग्रेस और अन्य पार्टियों को दोषी करार देने की जगह मोदी को ठोस नीति और ऐसे कदम उठाकर दिखाने होंगे, जिनसे साबित हो सके कि वह मुस्लिमों की तरक्की के लिए कटिबद्ध हैं. इस संदर्भ में, मैं सुझाव देना चाहता हूं कि वह इसी विषय पर एक शानदार नई किताब - डिनायल एंड डिप्रेवेशन : इंडियन मुस्लिम्स आफ्टर द सच्चर कमेटी एंड रंगनाथ मिश्रा कमीशन रिपोर्ट्स - पढ़ें, जिसे मैंने हाल ही में मुंबई में जारी किया था, और यह किताब महाराष्ट्र में सेवारत IPS अधिकारी अब्दुर रहमान ने लिखी है.
अंत में, मैं कहना चाहूंगा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी, मैं NDA की बैठक में दिए गए उम्मीद जगाने वाले आपके भाषण की पूरे दिल से सराहना करता हूं. अब करोड़ों देशभक्त भारतीयों (गैर-मुस्लिम भी, मुस्लिम भी) के साथ मुझे आग्रह करने दें - जो आपने कहा, उसी पर चलें.
VIDEO: देश के अल्पसंख्यकों के साथ छल हुआ है : PM नरेंद्र मोदी
लेखक भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक रहे हैं...
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