इज़रायल-अरब के बीच अंतिम मोर्चा है UNRWA?

इज़रायल के लिए आतंकी संगठन हमास ने भी UNRWA पर इज़रायली आरोपों को धमकी करार दिया और UN सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों से अपील की है कि वे इज़रायली धमकी या ब्लैकमेल से प्रभावित न हों. हालांकि UNRWA ने भी इज़रायल के आरोपों पर 13 में से 12 कर्मियों या अधिकारियों पर तुरंत कार्रवाई भी की है, जिसकी जानकारी स्वयं UN महासचिव एंटोनियो गुटरेस द्वारा दी गई थी.

इज़रायल-अरब के बीच अंतिम मोर्चा है UNRWA?

इज़रायल ने आरोप लगाया है कि 7 अक्टूबर को हुए हमास के हमले में UNRWA (UN एजेंसी) के 13 लोग भी हमास के साथ सक्रिय रूप से शामिल थे. यह पहली बार नहीं है, जब इज़रायल ने ऐसे आरोप लगाए हों. लेकिन इस बार इज़रायल के इन आरोपों के बाद अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों ने UNRWA को दी जाने वाली आर्थिक सहायता में कटौती कर देने या रोक देने की बात की है. भारत ने भी इन 'गंभीर आरोपों' पर चिंता जताई है. 2019 में ट्रंप प्रशासन ने और 2021 में EU ने भी कुछ समय के लिए इस एजेंसी की फंडिंग रोकी थी. जिन देशों ने फंडिंग रोकी है, उनमें US, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, इटली, जर्मनी, फिनलैंड, नीदरलैंड, स्विट्ज़रलैंड, UK और स्कॉटलैंड ने फंडिंग पर तुरंत रोक लगा दी, जबकि EU ने समझकर कार्यवाही करने की बात कही है.

इज़रायल के लिए आतंकी संगठन हमास ने भी UNRWA पर इज़रायली आरोपों को धमकी करार दिया और UN सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों से अपील की है कि वे इज़रायली धमकी या ब्लैकमेल से प्रभावित न हों. हालांकि UNRWA ने भी इज़रायल के आरोपों पर 13 में से 12 कर्मियों या अधिकारियों पर तुरंत कार्रवाई भी की है, जिसकी जानकारी स्वयं UN महासचिव एंटोनियो गुटरेस द्वारा दी गई थी.

UNRWA का गठन 1948 में इज़रायल के जन्म से ठीक एक दिन बाद अरब देशों द्वारा इज़रायल के खिलाफ़ शुरू किए गए कथित War of Independence के बाद हुआ था. दरअसल, इस युद्ध में अरब देशों की एक नए और आकार में बेहद छोटे से देश इज़रायल के खिलाफ बहुत बुरी तरह हार हुई थी. इसी युद्ध से उपजी फिलस्तीनी शरणाथियों की समस्या में UNRWA का गठन हुआ था. संयुक्त राष्ट्र की इस एजेंसी का काम सिर्फ फिलस्तीन (गाज़ा पट्टी सहित) में है और ऐसा किसी सिर्फ एक इलाके और मुख्य तौर एक (मज़हबी) समुदाय के लिए काम करने वाली यह अनोखी अंतरराष्ट्रीय स्तर की एजेंसी है. इसीलिए जब भी इसे लिखा जाता है तो इसके साथ अनिवार्य रूप से for Palestine Refugees लगाया जाता है. इस तरह इसका पूरा नाम हुआ United Nations Relief and Works Agency for Palestine Refugees. दुनिया के अन्य हिस्सों में शरणार्थियों के लिए अन्य एजेंसी UNHCR (UN High Commission for Refugees) है, जिसका गठन इसके एक साल बाद हुआ था और उस समय उसमें लगभग दस लाख शरणार्थी थे.

इज़रायल और पश्चिमी देशों द्वारा UNRWA पर इस समय जो संदेह जताया जा रहा है, उसे समझने के लिए सबसे पहले इससे जुड़े आंकड़े जानने जरूरी हो जाते हैं, उसके बाद हम दोनों पक्षों के बीच इस एजेंसी की महत्ता और भूमिका पर आएंगे.

जैसा पहले बताया गया है कि पूरी दुनिया में संयुक्त राष्ट्र की यह अनोखी एजेंसी है, जो सिर्फ फिलस्तीन के मसले के लिए बनी है, जो इसके गठन से ही स्पष्ट है. इसके लिए दिसंबर 1949 में रिजॉल्यूशन-302 लाया गया था. इसकी स्थापना फिलस्तीनी शरणार्थियों को सीधी मदद और उनके लिए कार्यक्रम चलाने के लिए की गई थी. अगले साल यानी 1950 में मई से इसने काम करना शुरू कर दिया.

अब अगर हम UNRWA के अनुसार (फिलस्तीनी) शरणार्थी कौन हैं, देखें तो फ़िलस्तीनी शरणार्थियों को "ऐसे व्यक्तियों के रूप में परिभाषित किया गया है, जिनका सामान्य निवास स्थान 1 जून 1946 से 15 मई 1948 के दौरान फ़िलस्तीन था, और जिन्होंने 1948 के युद्ध (इज़रायल के विरोध में अरब देशों) के परिणामस्वरूप घर और आजीविका के साधन दोनों खो दिए थे..."

आज की स्थिति में UNRWA के शरणार्थियों में से एक तिहाई शरणार्थी वेस्ट बैंक, गाज़ा पट्टी सहित लेबनान और जॉर्डन में बने 58 कैंप्स में रहते हैं. शेष दो तिहाई शरणार्थी वेस्ट बैंक, गाज़ा पट्टी सहित अन्य देशों में रहते हैं. संख्या के आधार पर इनमें जॉर्डन में 24 लाख, गाज़ा में 16 लाख, वेस्ट-बैंक में 9 लाख, सीरिया में 6 लाख और लेबनान में 5 लाख शरणार्थी रह रहे हैं.

सक्रिय रूप से सिर्फ एक तिहाई शरणार्थी ही डायरेक्ट रूप से UNRWA की सेवाओं का लाभ उठाते हैं, लेकिन इसकी सेवाओं का लाभ लेने के लिए सभी लोग एलिजिबल हैं.

शरणार्थियों की संख्या में इज़ाफा : पहला संदेह?
जिस समय इसका गठन किया गया, उस समय इसके यहां शरणार्थियों की संख्या 7 लाख थी, जो 2021 में बढ़कर 56 लाख हुई और आज तक (2023) तक 59 लाख हो चुकी है. यानी इसमें आठ गुना का इज़ाफा हुआ है. इस दौरान अगर हम दुनिया की आबादी देखें तो 1951 में ये 2,543,130,380 थी, जो 2021 में बढ़कर 7,909,295,151 हो गई थी. इस तरह इसमें 3.1 गुना का इज़ाफा हुआ है.

अब अगर सिर्फ (21) अरब देशों की बात करें तो इसी समय में इसकी जनसंख्या लगभग 6 गुना बढ़ी है. वहीं इज़रायल की जनसंख्या में 7 गुना इज़ाफा हुआ है. लेकिन इज़रायल की जनसंख्या जन्मदर नहीं, बल्कि अप्रवासन के कारण बढ़ी थी, जो उसकी खुली नीति भी है. दुनियाभर में फैले यहूदियों को दो हज़ार साल के निर्वासन के बाद अपना देश वापस मिला था, इसीलिए उनमें इज़रायल जाने की होड़ थी.

इस तरह देखने पर UNRWA में शरणार्थियों की संख्या आठ गुना बढ़ने में बहुत अटपटा नहीं लगता?

लेकिन कोई भी निष्कर्ष निकालने से पहले अब अगर थोड़ा पहले जाकर फिलस्तीन वाले इलाक़े में जनसंख्या देखें तो 1800 में यहां लगभग 2,75,000 लोग रहते थे. 1890 में यह संख्या लगभग दोगुनी, यानी 5,32,000 हो गई थे. यानी 90 सालों में संख्या दोगुनी हो पाई थी, उसी इलाके में, जब वह युद्धग्रस्त हो गया तो लोगों की संख्या वृद्धि आठ गुना हो गई?

उसी इलाक़े के अतीत के ये आंकड़े अपने आप में संदेह पैदा करते हैं. आख़िर इतनी तेजी से शरणार्थी कैसे बढ़ सकते हैं? यहां पर एक तर्क दिया जा सकता है कि गरीबी और बदहाली अधिक जनसंख्या वृद्धि के लिए उत्तरदायी होती है.

या इसके पीछे मज़हबी या अन्य दूसरे कारण हो सकते हैं? क्योंकि कई बार अशिक्षा के दौर में ज्यादा जनसंख्या को युद्ध के लिए में हितकर माना जाता है. इज़रायल के समर्थकों का तर्क है कि जो फिलस्तीनी पड़ोसी अरब देशों में रहते हुए वहां की नागरिकता या अमेरिका सहित यूरोपीय देशों की अस्थायी निवासी या निवासी हो चुके हैं, उन्हें किस लिहाज़ से शरणार्थी माना जा सकता है? इसमें सबसे ज्यादा स्थायी रूप से जॉर्डन और लेबनान में बस चुके हैं.

इस तरह देखें तो इतनी जनसंख्या बढ़ोतरी को UNRWA पर संदेह करने का एक कारण माना जा सकता है. UNRWA में जनसंख्या के इन आकंड़ों से आगे बढ़ने से पहले एक तथ्य पर गौर करना भी जरूरी हो जाता है कि 1952 तक यहूदी भी इसके शरणार्थियों तक शामिल थे, लेकिन फिर उन्हें इज़रायल ने अपने यहां बसा दिया और इसी के साथ वे सूची से बाहर हो गए.

इज़रायल के गंभीर आरोपों के बाद अमेरिका सहित कुछ देशों ने इसे दी जाने वाली आर्थिक सहायता में कटौती करने या रोक देने की बात कही है, अगर ऐसा होता है तो UNRWA के लिए यह मुश्किल लाने वाला होगा, क्योंकि यही पश्चिमी देश इसके सबसे बड़े डोनर हैं.

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जिन 33 देशों ने धर्म के आधार पर फिलस्तीन की भूमि को विभाजित करने के UN के प्रस्ताव का समर्थन किया था उनमें से 9 देश आज भी सबसे बड़े डोनर्स में शामिल हैं. (Australia, Belgium, Canada, Denmark, France, Netherlands, Norway, Sweden, United States). अगर इसमें EU के कुछ और देशों को शामिल कर लिया जाए तो 9 की यह संख्या निश्चित तौर पर और बढ़ जाएगी. इनमें से US, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, इटली, जर्मनी, फिनलैंड, नीदरलैंड, स्विट्ज़रलैंड, UK और स्कॉटलैंड फंडिंग पर ब्रेक लगा चुके हैं, जिससे एजेंसी की मुश्किलों का अंदाजा लगाया जा सकता है.

सुडोकु या पज़ल : इज़रायल समर्थक UNRWA में सबसे बड़े डोनर और फंडिंग पर ब्रेक लगाने वाले एक ही हैं?
अब यहां एक सवाल उठता है कि जिन देशों ने इज़रायल की स्थापना से लेकर अब तक कभी उसका साथ नहीं छोड़ा, वह फिलस्तीनियों के लिए इतना पैसा क्यों खर्च करते हैं? इसका एक जवाब हमें 'तेल की राजनीति' में मिलता है. दरअसल, अमेरिका सहित यूरोप के देशों को अरब / पश्चिमी एशिया में निकलने वाले तेल / गैस की जरूरत होती है और शायद इसी मजबूरी के तहत UNRWA को भारीभरकम मदद दी जाती है.

इज़रायल की जानी-मानी एक्ट्रेस और लेखिका नोआ तिष्बी ने अपनी किताब Israel A Simple Guide to The Most Misunderstood Country on the Earth में 50 के दशक में जॉर्डन में अमेरिका के राजनयिक रहे डेविड फ्रिट्ज़लान को कोट करते हुए लिखा है कि जहां तक जॉर्डन में UNRWA की भूमिका की बात है तो बमुश्किल ही इसने यहां कुछ हासिल किया है. इस सबका परिणाम यह हुआ है कि महीने-दर-महीने इसके लिए आने वाले पैसे का इस्तेमाल शरणार्थियों को यथावत बनाए रखने के लिए किया जा रहा है, बजाय उनको खुद के पैरों पर खड़ा होने वाला बनाया जाए और उन्हें निर्भर लोगों की सूची से हटाया जाए. इन्हें लेकर अरब लीग की बेसिक पॉलिसी इन्हें उलझाए रखने की है. इन अरब लोगों का एकमात्र मकसद इज़रायल का खात्मा होने तक फिलस्तीन की समस्या को बनाए रखना है.

नोआ तर्क देती हैं कि 1960 तक आते-आते अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम स्वीकार कर चुके थे कि UNRWA अपने मकसद से बहुत दूर जा चुकी है. लेकिन फिर भी इसे जारी रखने की क्या मजबूरी थी? इसका जवाब देते हुए वह अमेरिका में एक सऊदी राजनयिक को उद्धृत करती हैं. अमेरिका में सऊदी अरब के राजदूत रहे अब्दुल्ला-अल-खय्याल ने उस समय अरब देशों के राजनयिकों का सामूहिक प्रतिनिधित्व करते हुए अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट में लगभग चेतावनी सी दे डाली थी कि अगर अमेरिका और सहयोगी देशों ने उनकी अतीत की गलतियों (इज़रायल का समर्थन करने वाली नीति) को दोहराया और अरब देशों की मांगों पर विचार नहीं किया तो उसे (सहयोगी पश्चिमी देशों सहित) इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. और ये गंभीर परिणाम क्या होंगे? इसका जवाब उसी समय US स्टेट डिपार्टमेंट में ही अंडरसेकेटरी रहे क्रिश्चियन हेर्टर के अनुसार ये 'गंभीर परिणाम' अरब देशों द्वारा पश्चिमी देशों को होने वाली तेल की सप्लाई अथवा अमेरिका के प्रति वफादारी अथवा सैन्य या सामरिक मदद के रूप में थे. हेर्टर के अनुसार इसके बाद UNRWA के मसले पर इज़रायल की शिकायतों को अनसुना किया जाने लगा.

अतीत में 1963 में Six Day War में अरब देशों ने अमेरिका को तेल निर्यात कम कर भी दिया था. UNRWA के समर्थक तर्क देते हैं कि अगर इस एजेंसी को मिलने वाली सहायता राशि में कटौती की गई या बंद की गई तो ऐसी स्थिति में जो शरणार्थी इससे लाभ पा रहे हैं, वे आतंकियों और चरमपंथियों के हाथ पड़ जाएंगे और फिर यह स्थिति पूरे इलाके के लिए ठीक नहीं होगी. इज़रायली इसे तर्क नहीं बल्कि एक धमकी के रूप में देखते हैं.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) की 42वीं बैठक में सितंबर 2019 में UNRWA को आगे बढ़ने या खत्म हो जाने की सलाह दी गई और इसे लेकर ही संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) की इस बात को लेकर आलोचना की गई थी कि आमसभा ने नैतिकता के ऊपर राजनीति को तरजीह दी है. इज़रायली तर्क देते हैं कि शरणार्थियों को एक ढाल की तरह इस्तेमाल किया जाता है और शांति के लिए होने वाली किसी भी पहले में सबसे पहले इन्हें ही आगे कर दिया जाता है.

ऐसा पहली बार नहीं है कि जब हमास या चरमपंथी विचारों या कामों के समर्थन का आरोप इस पर लगा हो. इससे पहले भी शांतिकाल में भी एक NGO की स्टडी में UNRWA द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों की किताबों में यहूदी विरोधी विचारों और हिंसात्मक गतिविधियों को सही ठहराने की बातें पाई गई थीं.

दरअसल UNRWA की स्थापना से ही इसका विरोध शुरू हो गया था. इस संबंध में लेखिका नोआ तर्क देती हैं कि सबसे पहले तो फिलस्तीन जैसा कोई मुल्क कभी नहीं था. इस भूमि को किसी एक मज़हब या धर्म के लोगों से जुड़ा हुआ नहीं माना जाता था. इसी को ध्यान में रखते हुए दो-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर UN में जब इज़रायल और फिलस्तीन दो स्वतंत्र देशों की बात आई तो फिलस्तीन के समर्थक देशों मज़हबी कारणों से इसे सिरे से खारिज़ कर दिया. इज़रायल की घोषणा के ठीक अगले दिन अरब देशों ने युद्ध थोपा जिसका जबाव इज़रायल ने अपनी आत्मरक्षा के सिद्धांत के तहत दिया, इतना ही नहीं, अपनी हार झेलते हुए अरब देशों ने ही फिलस्तीन (खासकर वेस्ट बैंक) के लोगों को अपने घर छ़ोड़ने को उकसाया, जिसे फिलस्तीन में नकवा कहा जाता है और अब वही अरब लोग इस एजेंसी को जबरन जीवित रखना चाहते हैं ऐसे में आखिर क्यों इसे चलवाया जा रहा है? नोआ तिष्बी के अनुसार जब तक ये शरणार्थी रहेंगे तब तक इज़रायल के खिलाफ जिहाद चलता रहेगा और फतह पाने का उनका सपना बना रहेगा.

UNRWA का स्वरूप कैसा है. कितने लोग काम करते हैं?
इस संगठन में लगभग 30,000 लोग काम करते हैं, जिन्हें पांच अलग-अलग फील्ड्स में बांटा गया है. UNRWA में इतनी बड़ी संख्या में काम करने वालों में कुछ मुठ्ठीभर अधिकारियों को छोड़ दिया जाए तो सभी / अधिकतर लोग स्थानीय फिलस्तीनी ही हैं, ऐसे में उनकी 'सिम्पैथी' (यहां निष्ठा) किनके साथ होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है और यही बात इज़रायल के आरोपों को बल प्रदान करती है.

जब तक 'फिलस्तीन-समस्या' है, तब तक UNRWA रहेगी
अब चूंकि इज़रायल ने आरोप लगाए हैं और प्रमुख देशों ने फंडिंग पर लगाम लगा दी है तो क्या लगता है कि इसे बंद करना संभव है? इसका जवाब स्पष्ट रूप से न है. क्योंकि आरोप-प्रत्यारोपों से दूर UNRWA का गठन UN रिज़ॉल्यूशन 302 के तहत हुआ था लेकिन यह UN के ही एक अन्य रिज़ॉल्यूशन 194 के साथ जुड़ा है जो फिलस्तीनी शरणार्थियों के वापसी के अधिकार (Right to Return) से जुड़ा हुआ है. जब तक फिलस्तीनी मसले का कोई पूर्ण हल नहीं हो जाता, तब तक इसके मैंडेट को बढ़ाया जाता रहेगा और यही होता भी है. हां, यह संभव है कि पश्चिमी देश इसकी फंडिंग में लंबे समय तक अपने हाथ खींच लें, तो वैसी स्थिति में अरब मुल्क या अन्य देश आगे आ सकते हैं, जैसा UNRWA के पूर्व प्रवक्ता क्रिस गुनेस ने इशारा भी किया है. हालांकि रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिहाज़ से अमेरिका और पश्चिमी देश ऐसा करेंगे, इसमें भी संदेह है.

शरणार्थी बन चुके हैं ह्यूमन शील्ड?
दरअसल, इज़रायल और फिलस्तीन (अरब देश) दोनों ही पक्ष शरणार्थी और उनके लिए काम करने वाली इस एंजेसी को अपने-अपने नज़रिये से देखते हैं. इज़रायली भी मानते हैं कि जब तक फिलस्तीनी शरणार्थी हैं, अंतरराष्ट्रीय दवाब उन पर पड़ता रहेगा. ठीक इसी तरह फिलस्तीन समर्थक भी मानते हैं कि इस दवाब के बिना इज़रायल से लड़ना संभव नहीं है. दोनों पक्षों में हुए कई युद्धों में मौटे तौर पर इज़रायल की ही पलड़ा ज्यादा भारी रहा है. ऐसे में इज़रायल अपनी विजय की अंतिम बाधा के तौर पर देखता है तो वहीं फिलस्तीन समर्थक इसे अंतिम रक्षा-पंक्ति (शील्ड) मानते हैं.

और देखा जाए तो इज़रायल या इसके भी एकदम से इस संगठन का खात्मा नहीं चाहता बल्कि वे चरणबद्ध तरीके से इसका आकार घटाने के पक्ष में हैं. ऐसा नहीं है कि इज़रायल के आरोप निराधार हैं, बल्कि इससे कहीं ज्यादा लोग हमास और आतंकी गतिविधियों के समर्थक हो सकते हैं या शामिल हो सकते हैं, लेकिन फिर भी इतने बड़े और महत्वपूर्ण संगठन को यूं ही बंद नहीं किया जा सकता.

अब अगर हम इन दोनों के अलावा तीसरा पक्ष देखें तो वह वही भारतीय पक्ष होगा, जो पिछले 70-75 सालों से अपनाया जाता रहा है. भारतीय पक्ष ही सही मायनों में मानवीय पक्ष है. मज़हबी आतंक के पीड़ित होने के नाते हमें किसी भी आतंकी घटना की आलोचना करनी चाहिए लेकिन साथ ही युद्ध की विभीषिका के बीच फिलस्तीनी (खासतौर पर गाज़ा में रहने वाले) जो झेल रहे हैं, वैसी स्थिति में किसी भी सहायता एजेंसी को बंद करने की बात न्यायसंगत ठहरना तो दूर की बात है, ऐसी बात ही नहीं हो सकती है.

अमित स्वतंत्र पत्रकार हैं...

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