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क्या गाजा युद्ध से पैसे कमा रहा है इजरायल, उसकी कितनी कंपनियों को हो रहा है मुनाफा

Azizur Rahman Azami
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 31, 2025 00:23 am IST
    • Published On जुलाई 30, 2025 23:50 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 31, 2025 00:23 am IST
क्या गाजा युद्ध से पैसे कमा रहा है इजरायल, उसकी कितनी कंपनियों को हो रहा है मुनाफा

फिलिस्तीन का प्रश्न केवल एक भू-राजनीतिक या सीमाओं का विवाद नहीं है, बल्कि मूल रूप से यह एक नैतिक संकट है, जो न्याय, मानवीय गरिमा और उपनिवेशित और विस्थापित लोगों के अधिकारों से गहराई से जुड़ा है. इजरायल और फिलिस्तीन के बीच सात दशकों से अधिक चला आ रहा संघर्ष इस बात का प्रतीक है कि जब राजनीतिक स्वार्थ और वैश्विक सत्ता समीकरण हावी हो जाते हैं, तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और मानवाधिकार के सिद्धांत कैसे खोखले साबित होते हैं. 

गाजा का विध्वंस और नैतिकता की उड़ती धज्जियां

गाजा का हालिया विध्वंस उस वैश्विक नैतिकता की पोल खोल देता है, जो समानता, बंधुत्व और लोकतंत्र की बातें तो करता है. लेकिन जब किसी कमजोर आबादी के साथ अन्याय होता है तो चुप्पी साध लेता है.यह एक ऐसा मानवीय प्रश्न है जिसे किसी भूराजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जा सकता. आर्थिक और कभी-कभी सामरिक हित फंसे रहने के कारण न्याय और अन्याय का फर्क मिट जाता है.

कुछ हफ्ते पहले संयुक्त राष्ट्र की विशेष रैपोर्टेयर फ्रांसेस्का अल्बानीज ने 27 पन्नों की अपनी रिपोर्ट में 60 से अधिक अंतरराष्ट्रीय कंपनियों का नाम लिया है, जो नरसंहार में मुनाफा कमा रही हैं. साल 2023 में एंथनी लोवेनस्टीन की चर्चित किताब 'द फिलिस्तीन लेबोरेटरी' इस बात को बेनकाब करती है कि कैसे इजरायल फिलिस्तीन का इस्तेमाल निगरानी, हथियारों और दमनकारी तकनीकों के परीक्षण स्थल के रूप में इस्तेमाल करता है. इन्हीं तकनीकों को दुनिया को निर्यात किया जाता है.इन हथियारों की मार्केटिंग 'गाजा में आजमाए गए' सैन्य उपकरण के रूप में की जाती है. इसलिए इजरायल इस समस्या को सुलझाना नहीं चाहता है.

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अरब में लोकतंत्र की मांग क्यों नहीं करता है अमेरिका

अमेरिका दुनिया भर में लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटता रहता है. जब अरब देशों की बात आती है तो वह मौन हो जाता है. क्योंकि अमेरिका में जब आर्थिक संकट आता है खाड़ी के अरब देश अमेरिका में निवेश करने लगते हैं और हथियार भी खरीदने लगते हैं. रॉबर्ट फिस्क ने मध्य-पूर्व मे संवादाता के रूप में 30 से साल से अधिक तक रहे हैं. उन्होंने कई युद्धों की रिपोर्टिंग की है. उन्होंने अपनी किताब 'द ग्रेट वार फॉर सिविलाइजेशन: द कंक्वेस्ट ऑफ द मिडिल ईस्ट' में अरब-इजरायल संघर्ष में पश्चिमी शक्तियों,विशेष रूप से ब्रिटेन और अमेरिका की भूमिका को जमकर आलोचना की है. फिस्क ने पश्चिमी विश्व शक्तियों पर अरब-इजरायल संघर्ष के प्रति दोहरे मानक अपनाने का आरोप लगाया है. दुनिया के अन्य हिस्सों में ये देश लोकतंत्र और मानवाधिकारों की वकालत करते हैं और फिलिस्तीन के इलाकों पर इजरायली कब्जे और फिलिस्तीनियों के खिलाफ मानवाधिकारों के हनन पर आंखें मूंद लेते हैं. फिस्क ने संघर्ष को बनाए रखने में पश्चिमी हथियारों की बिक्री और सैन्य हस्तक्षेप की भूमिका पर भी प्रकाश डाला है. अमेरिका और यूरोपीय देश इजरायल को हथियारों के प्रमुख आपूर्तिकर्ता रहे हैं. इससे इजरायल को अपने अरब पड़ोसियों पर सैन्य बढ़त बनाए रखने में मदद मिलती है. यह इजरायल को बिना किसी डर या भय के फिलिस्तीनी क्षेत्रों और पड़ोसी देशों में सैन्य अभियान चलाने के लिए प्रेरित करता है.संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिका द्वारा इजरायल की आलोचना करने वाले प्रस्तावों पर वीटो लगाना, उसे अंतरराष्ट्रीय निंदा से बचा रहा है. फिस्क का निष्कर्ष है कि पश्चिमी देश शांति और न्याय के प्रति वास्तविक प्रतिबद्धता के बजाय तेल संसाधनों पर नियंत्रण के लिए रणनीतिक गठबंधन बनाने और भू-राजनीतिक हितों से प्रेरित हैं.इन देशों ने हिंसा के चक्र को कायम रखा है और संघर्ष के किसी भी सार्थक समाधान में बाधा खड़ी की है.

अमेरिकी राजनीति विज्ञानी और इतिहासकार जेरोम स्लेटर ने 'मिथोलॉजीज़ विदाउट एंड द यूएस, इजरायल, एंड द अरब-इजरायली कॉन्फ्लिक्ट' (1917-2020) में शीर्षक से किताब लिखी है. यह किताब 2021 में आई थी. इसमें स्लेटर ने बताया है कि कई कारणों से अमेरिका इजरायल का समर्थन करता आ रहा हैं. इसमें भू राजनीतिक हित प्रमुख है. इजरायल के सहारे अमेरिका पूरे मध्य एशिया को कंट्रोल करने के साथ-साथ तेल के संसाधनों पर भी नजर बनाए रहता है. आलोचकों का तो यहां तक मानना है कि मध्य-पूर्व की अस्थिरता में अमेरिका और इजरायल का हाथ अधिक है. बिना किसी वजह के अमेरिका का सद्दाम हुसैन की सरकार के खिलाफ युद्ध एक षड्यंत्र था. असल में इजरायल और अमेरिका दोनों नहीं चाहते हैं कि मध्य-पूर्व में कोई भी देश इजरायल से मजबूत हो. इराक, सीरिया, मिस्र, लेबनान, जॉर्डन, यमन और लीबिया आदि अमेरिकी हित के साथ इजरायल को भी चुनौती देते रहते थे. ईरान पर अमेरिका के खिलाफ प्रतिबंध लगाना और अभी हाल में ही उसके परमाणु ठिकानों पर हुआ हमला इसी कड़ी का एक हिस्सा है.

क्या कर रहा है संयुक्त राष्ट्र

फिलिस्तीन के सवाल ने संयुक्त राष्ट्र को गौण बना दिया है. अमेरिकी और यूरोपीय देशों के आर्थिक हित और पी 5 देशों का संयुक्त राष्ट्र संघ पर एक तरह का कब्जा है. इससे सुरक्षा परिषद में इन देशों का बोलबाला रहता है. इसका परिणाम यह हुआ है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था अप्रासंगिक नजर आने लगी है. यहां तक कि रूस और चीन गाजा में चल रहे नरसंहार को रोकने में नाकामयाब रहे हैं. चीन इजरायल के साथ व्यापार करता है. चीन अपना व्यापार बढ़ाने के लिए बीच-बीच में कुछ बोलता रहता है.

आइए देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के कुछ ऐसे प्रस्तावों के बारे में जो अपने उद्देश्य को कभी पूरा नहीं कर पाए. संयुक्त राष्ट्र महासभा का प्रस्ताव 194 (1948) में इन शरणार्थियों को वापसी का अधिकार दिया गया, लेकिन यह आज तक लागू नहीं हो पाया है. वहीं 1948 में संयुक्त राष्ट्र की विभाजन योजना (UNGA Resolution 181) के अनुसार 45 फीसदी क्षेत्र फिलिस्तीन और 55 फीसदी क्षेत्र इजरायल को दिया गया. लेकिन उसी साल हुए युद्ध में इजरायल ने 78 फीसदी भूभाग पर कब्जा कर लिया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद 242 (1967)-कब्जे से वापसी और युद्ध के जरिए क्षेत्र हड़पने की निंदा, संयुक्त राष्ट्र आमसभा-3236 (1974)- यह फिलिस्तीनियों के आत्म-निर्णय के अधिकार का समर्थन करता है.संयुक्त राष्ट्र के ये प्रस्ताव कभी लागू नहीं हो पाए.अब तक 147 से अधिक देश फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दे चुके हैं. लेकिन अमेरिका इसका सम्मान नहीं करता है. फिलिस्तीन यूनेस्को, आईसीसी, जी 7, आईसीजे जैसे संस्थानों का सदस्य है. लेकिन स्थिति नहीं बदली है. यही वजह है देश युद्ध में फंसा हुआ है और हथियार कंपनियां फल-फूल रही हैं. 

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शक्ति का असंतुलन और प्रतिरोध की नैतिकता

इजरायल एक आधुनिक सैन्य ताकत वाला परमाणु संपन्न राष्ट्र है. इसे अमेरिका से हर साल करीब 3.8 अरब डॉलर की सैन्य मदद मिलती है. वहीं फिलीस्तीनी राज्यहीन, बुनियादी सुविधाओं से वंचित और बार-बार विस्थापित लोग हैं. इस असमानता के संदर्भ में यह सवाल उठता है कि क्या एक दबाई हुई आबादी के प्रतिरोध (चाहे वह शांतिपूर्ण हो या हथियारबंद) को उसी तराजू पर तौला जा सकता है क्या? 

रूस-यूक्रेन युद्ध के समय अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तीखी प्रतिक्रिया दी और पाबंदियों का रास्ता चुना, लेकिन फिलीस्तीन में हो रहे नरसंहार पर वही आवाजें धीमी क्यों हैं? क्या मानवाधिकार केवल चुनिंदा देशों के लिए हैं? यह दोहरा मापदंड वैश्विक नैतिकता को संदेह के घेरे में खड़ा करता है. जब अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं निष्क्रिय हो जाती हैं, तो यह लोकतंत्र और मानवाधिकारों की पूरी व्यवस्था की विफलता को दर्शाता है.

गाजा पर इजरायली हमलों में अबतक 69 हजार 800 से अधिक फिलीस्तीनियों की मौत हो चुकी है. इन हमलों में लाखों घायल हैं. मरने वालों में 70 फीसदी महिलाएं और बच्चे थे. वहां स्कूल, अस्पताल और रिहायशी इलाकों को निशाना बनाया गया. अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने माना है कि ये कार्रवाइयां 'संभावित रूप से जनसंहार' के तहत आती हैं. क्या यह आधुनिक मानवता का चेहरा है?

आज फिलीस्तीन का प्रश्न हमारे समय की सबसे बड़ी नैतिक परीक्षा है. क्या दुनिया अन्याय को देखकर चुप रहेगी? क्या मानवाधिकार केवल शब्दों में हैं? एडवर्ड सईद यह कथन आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है,''फिलीस्तीन का प्रश्न हमारे युग का नैतिक तापमान है." यदि मानवता को जीवित रखना है, तो फिलिस्तीन की आवाज सुनी जानी चाहिए. क्योंकि जब हम अन्याय के खिलाफ खामोश रहते हैं तो हम भी उस अन्याय का हिस्सा बन जाते हैं. इसलिए भी बोलना जरूरी हो जता है. अमेरिका, पश्चिम और यूरोप के देशों की सरकारों ने तो नहीं लेकिन वहां की जनता यहां तक कि इजरायली नागरिकों ने भी नरसंहार और खाद्य नाकाबंदी के खिलाफ सड़कों पर विरोध जताया है. लेकिन अरब की जनता तो वह भी नहीं कर पा रही है. 

अस्वीकरण:अज़ीज़ुर रहमान आज़मी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वेस्ट एशिया एंड नार्थ अफ़्रीकन स्टडीज विभाग में पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना ज़रूरी नहीं है. 
 

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