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जातिवाद ज्यादा खतरनाक है या सांप्रदायिकता?

प्रियदर्शन
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 27, 2025 18:19 pm IST
    • Published On अक्टूबर 27, 2025 18:13 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 27, 2025 18:19 pm IST
जातिवाद ज्यादा खतरनाक है या सांप्रदायिकता?

जातिवाद ज्यादा खतरनाक है या सांप्रदायिकता? पहली नज़र में ही यह सवाल बेतुका जान पड़ता है, दोनों खतरनाक हैं. जातिवाद भी बुरा है और सांप्रदायिकता भी बुरी है. लेकिन दुर्भाग्य से यही दोनों तत्व हैं जो उत्तर भारत की राजनीति को पिछले तीन दशकों से संचालित करते रहे हैं. दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में सांप्रदायिकता और जातिवाद ही राजनीति का आधार बने हुए हैं. इन्हीं के समीकरणों पर सीटें बांटी जाती हैं, वोटों का ध्रुवीकरण होता है. सांप्रदायिकता हिंदू पहचान के आधार पर अपनी वैधता हासिल करने का यत्न करती है और जातिवाद सामाजिक न्याय की धुरी पर ख़ुद को छुपाने की कोशिश करता है.

मंडल और कमंडल का टकराव

दरअसल यह नब्बे के दशक में मंडल और कमंडल का टकराव है जो अब तक बना हुआ है. नब्बे के दशक में ही संघ और बीजेपी के बड़े वैचारिक नेता माने जाने वाले गोविंदाचार्य ने तब सोशल इंजीनियरिंग- सामाजिक अभियंत्रण- की बात की थी. यानी यह समझाया था कि हिंदुत्व की राजनीति के दायरे में पिछड़ी और दलित मानी जाने वाली जातियों को भी लाया जाना चाहिए. यह प्रक्रिया काफ़ी हद तक कामयाब रही, जब उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, उमा भारती और विनय कटियार जैसे ओबीसी ने मंदिर आंदोलन के सबसे बड़े सेनापति हो गए तब कहा गया कि कमंडल ने मंडल को अपने भीतर समा लिया है. लेकिन यूपी में भी मंडल बीच-बीच में बाहर आता रहा.

वो साल जब यूपी की राजनीति ने ली करवट

1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद सपा-बसपा- यानी मुलायम-कांशीराम के साथ आने को एक ऐतिहासिक परिघटना माना गया. लेकिन मुलायम मायावती के आपसी टकराव ने ये अवसर ठीक वैसे ही गवां दिया, जैसे बिहार में लालू यादव की पारिवारिक अहन्मन्यता ने सामाजिक न्याय की बड़ी संभावना को जातिवादी और वंशवादी परिघटना में विसर्जित हो जाने दिया. फिर भी मंडल और कमंडल के बीच टकराव चलता रहा. यूपी में बाद के वर्षों में मंदिर की हवा ने माहौल बिल्कुल बदल डाला और वहां मंडलवादी राजनीति फिलहाल पराजित होती नज़र आ रही है. मायावती और अखिलेश के दस वर्षों के शासनकाल के बावजूद यह नज़र आ रहा है कि वहां मुद्दा मंदिर बना हुआ है और हिंदूवादी राजनीति बनी हुई है.

जब सांप्रदायिकता की राह में आ खड़े हुए लालू

मगर बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति ने हिंदुत्व की राजनीति को अपने दम पर कभी दाख़िल नहीं होने दिया. सच तो यह है कि 1990 में सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा पर निकले लालकृष्ण आडवाणी को समस्तीपुर में रोक और गिरफ़्तार कर लालू यादव ने जैसे सांप्रदायिकता को बिहार में दाख़िल होने से रोक दिया. 2005 में जब नीतीश आए तब भी सुशासन उनका एजेंडा था, बीजेपी अपने मुद्दे स्थगित रखकर उनको समर्थन दे रही थी. 2025 तक यही हालात बने रहे हैं. लालू यादव भले ही बाहर हो गए,लेकिन नीतीश बीजेपी की मजबूरी अब तक बने हुए हैं. नीतीश ने भी लालू यादव के मंडल की काट में जो राजनीति विकसित की, वह जातिगत अस्मिताओं को मज़बूत करने वाली ही थी. उन्होंने बस यह किया कि मंडल के कुछ और टुकड़े कर डाले. पिछड़ों में अतिपिछड़े और दलितों में महादलित खोज निकाले. मुसलमानों में भी अशरफ़ और पसमांदा मुसलमान का फ़र्क किया गया.

बिहार चुनाव में भी जातिगत समीकरण का खेल

अब आते हैं उस सवाल पर जिससे यह लेख शुरू हुआ है. आज की तारीख़ में बिहार में चुनावों का शोर है. ध्यान से देखें तो सारी पार्टियां जातिगत समीकरण जोड़ने में लगी हैं. पिछड़े दलों और नेताओं की चांदी है. एनडीए हो या महागठबंधन- दोनों छोटे-छोटे दलों को भाव देने को मजबूर हैं. जानकार बताते हैं कि जिस दिन महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया, उस दिन मल्लाह अस्मिता का सवाल उठाते हुए मुकेश सहनी अड़ गए थे कि उनका नाम भी उपमुख्यमंत्री के तौर पर रखा जाए. अंततः महागठबंधन को यह मांग माननी पड़ी.

बिहार की धरती से बीजेपी को बड़ी आस

वैसे बिहार में इस बार भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ा दल बनने की उम्मीद पाले बैठे है. बीजेपी की मूल पहचान हिंदूवादी पार्टी की है. लेकिन बिहार में वह भी पिछड़ों को लुभाने में लगी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब प्रचार अभियान की शुरुआत की तो उसके लिए कर्पूरी ठाकुर के गांव का चुनाव किया. जाहिर है, यहां हिंदुत्ववादी राजनीति पिछड़ा पोशाक पहन कर राजनीति की पंगत में बैठने की कोशिश कर रही है तो ऐसा लग रहा है जैसे बिहार में जाति की राजनीति चल रही है, धर्म के नाम पर बांटने की राजनीति अभी स्थगित है. हालांकि यह पूरा सच नहीं है, क्योंकि समानांतर ध्रुवीकरण की कोशिशें उसके लिए भी ख़ूब चल रही हैं.

पिछड़ी जातियों का उभार ला रहा क्या बदलाव

लेकिन जातिवाद और सांप्रदायिकता में एक बड़ा फर्क इन दिनों दिख रहा है. जातिवाद के ख़िलाफ़ सैद्धांतिक तौर पर आम सहमति बनी हुई है. कोई दल या नेता ख़ुद को जातिवादी मानने को तैयार नहीं. हमारे सार्वजनिक व्यवहार में चुपके से हमारे जातिवादी पूर्वग्रह भले चले आएं, लेकिन हम उन्हें किन्हीं बहानों से छुपाने या उनकी कैफ़ियत खोजने की कोशिश करते हैं. इसके अलावा जातिवाद की जकड़न निस्संदेह कुछ हद तक ही कमज़ोर पड़ी है. इसकी वजह पिछड़ी जातियों का वह सामाजिक-राजनीतिक उभार है जो संवैधानिक व्यवस्थाओं के बूते संभव हुआ है और जिसकी वजह से अगड़ी ताक़तों को उन लोगों के साथ भी चलना पड़ रहा है कभी जिनकी छाया से भी वे परहेज करते थे.

सांप्रदायिकता कुछ और बेशर्म और बेलिबास

मगर दूसरी तरफ़ सांप्रदायिकता कुछ और बेशर्म और बेलिबास हुई है. भारत में दंगों का इतिहास पुराना है, देश धर्म के आधार पर बंट चुका है, लेकिन इन वर्षों में सांप्रदायिकता जितना खुल कर अपने मंसूबों का इज़हार करती है, जितने दुराग्रह के साथ अल्पसंख्यकों को हाशिए पर धकेलने और दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश करती है, वह पहले नहीं दीखता था. इस सांप्रदायिकता ने समाज में कहीं ज़्यादा बड़ी दरारें पैदा की हैं. जातिगत भेदभाव भी बहुत बुरा है, उसकी सड़ांध भी समाज को नष्ट करने वाली है, लेकिन उसमें आपसी नफ़रत का तत्व इतना प्रबल नहीं है जितना सांप्रदायिक राजनीति में भरोसा रखने वाले बहुसंख्यकवादियों के भीतर अल्पसंख्यकों को लेकर है. निस्संदेह इसका कुछ वास्ता जातिगत पूर्वग्रहों से भी है क्योंकि हमारे समाज में जो धर्मांतरण हुआ है. इस्लाम में या बौद्ध या ईसाई धर्म में- वह पिछड़े और निचले माने जाने वाले समुदायों से ही ज़्यादा हुआ है.

जातिवाद और सांप्रदायिकता बेहद खतरनाक

जाहिर है, हम न जातिवाद का समर्थन कर सकते हैं और न ही सांप्रदायिकता का. सामाजिक न्याय के नाम पर चलने वाला जातिवाद भी ख़तरनाक है और हिंदुत्व के नाम पर दिखने वाली सांप्रदायिकता भी. लेकिन यह समझना होगा कि जातिवाद अंततः अपनी राजनैतिक प्रक्रियाओं से कमज़ोर होने को मजबूर है, उसकी पहचान भले बनी रहे, लेकिन उसके भेदभाव कम हो रहे हैं, जबकि सांप्रदायिकता समाज को बिल्कुल तोड़ने पर उतारू है, हमारे आदमी होने का इम्तिहान ले रही है. दुर्भाग्य से बिहार के पास विकल्प ज़्यादा नहीं हैं. कभी समाजवादी और मार्क्सवादी धारा की राजनीति बिहार में बहुत प्रबल थी, लेकिन फिलहाल वह भी हाशिए पर दीख रही है. सीपीआई एमएल के नेताओं और उम्मीदवारों की आभा बेशक, इस माहौल में कुछ अलग दिखती है. लेकिन बिहार के वोटर के सामने असली चुनौती तो यही है- वह किसे कम ख़तरनाक माने, किसका चुनाव करे.

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