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This Article is From Jan 07, 2017

भारत मानसिक रोगियों और विकारों का गढ़

Sachin Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 07, 2017 05:28 am IST
    • Published On जनवरी 07, 2017 05:28 am IST
    • Last Updated On जनवरी 07, 2017 05:28 am IST
15 सालों में मानसिक-स्नायु रोगों के कारण 126166 लोगों ने आत्महत्या की; भारत में 16.92 करोड़ लोग मानसिक, स्नायु विकारों और गंभीर नशे की गिरफ्त में हैं, जबकि जनगणना-2011 के मुताबिक मानसिक रोगों से केवल 22 लाख लोग प्रभावित हैं. 99 प्रतिशत मानसिक रोगी उपचार जरूरी नहीं मानते हैं. भारत में एक साल में 3.1 करोड़ स्वस्थ जीवन वर्ष खोता है मानसिक विकारों के कारण. कुछ घटता रहता है. हम उसे सामान्य परिस्थिति मानते हैं. बातें और घटनाएं मन-मस्तिष्क के किसी कोने में छिपकर बैठ जाती हैं. अक्सर उभरती हैं और मन को विचलित कर जाती हैं. फिर कहीं दुबक जाती हैं. मुझे यानी व्यक्ति को लगता है कि कोई मुझे रोकने या मुझे नुकसान पंहुचाने की कोशिश कर रहा है. मुझे यानी व्यक्ति को लगता है कि “वो” मेरे बारे में बात कर रहा है! मैं अपने हिसाब से आकलन कर रहा होता हूं. इसी आधार पर मानस बनाता हूं और व्यवहार करने लगता हूं; कोई बात नहीं होती है और मन में बैठी बात तनाव में बदल जाती है. जीवन में फिर कोई घटना घटती है और मैं उस घटना से अपने मन में बैठी बात को जोड़ देता हूं. तनाव उन्माद या अवसाद में बदला जाता है.

मुझे लगता है कि मेरा साथी या परिजन मेरे मुताबिक व्यवहार नहीं कर रहा है. मैं अपने पैमाने बना लेता हूं और उन पर मित्रों-परिजनों को तौलना शुरू कर देता हूं; बिना समझे कि वे स्वतंत्र व्यक्तित्व हैं. मेरे भीतर कुछ खलबलाने लगता है. या तो मुझे गुस्सा आता है या फिर मैं मन में बातें दबाने लगता हूं.

मुझे यानी व्यक्ति को लगता है कि आने वाले कल में क्या होगा? मेरा व्यापार या उद्यम चलेगा या नहीं? कहीं मंदी तो नहीं आ जाएगी. कहीं आय कम हो गई तो मैं परिवार की जरूरतें कैसे पूरी करूंगा या कर्जे की किस्तें कैसे चुकाऊंगा? शायद ये विचार कभी कभार आ ही जाते हैं, किन्तु यदि ये हमेशा के लिए घर कर जाएं तो!

गर्भावस्था के दौरान महिला के शरीर पर ही नहीं, बल्कि मन पर भी बहुत बोझ होता है. लैंगिक भेदभाव से परिचित होने के कारण उन पर सामाजिक मान्यताओं और रूढ़िवादी व्यवहार को मानने का दबाव होता है; तो वहीं दूसरी तरफ सम्मानजनक व्यवहार, देखरेख और भोजन न मिलने के कारण भ्रूण के विकास पर भी गहरा असर पड़ता है. प्रसव शारीरिक रूप से बहुत पीड़ादायक गतिविधि होती है. बताया जाता है कि प्रसव के समय 20 हड्डियां टूटने के बराबर का दर्द होता है. जब महिलाओं को ऐसे में संवेदनशील व्यवहार नहीं मिलता और उनकी पीड़ा को महसूस करने की कोशिश नहीं की जाती है, तो वे अवसाद में चली जाती हैं. मजदूर को जब काम के बदले में मजदूरी नहीं मिलती है या जब किसान की फसल खराब हो जाती है, तब वह संरक्षण और उपेक्षा के कारण अवसाद में चला जाता है.

रिश्तों से लेकर, पढ़ाई-लिखाई, नौकरी, व्यापार, परीक्षा के परिणाम, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा, काम के दौरान प्रदर्शन कर पाना-न कर पाना; हमारे रोजमर्रा के जीवन की घटनाएं हैं, जिन पर मन में बातें चलती रहती हैं. जब उन बातों को बाहर नहीं निकाला जाता है तो पहले वे हमारे व्यवहार पर असर डालती हैं, और फिर व्यक्तिव का हिस्सा बन जाती हैं. मुझमें यानी व्यक्ति में यह कुछ ज्यादा ही गहरी अपेक्षा हो सकती है कि दूसरे लोग मेरे बारे में ऊंची-अच्छी बात करें. मेरा विशेष खयाल रखें; जब ऐसा नहीं होता है तो व्यक्ति दूसरों की संवेदना हासिल करने के लिए स्वयं को निरीह और बेचारा या फिर बहुत दुखी “साबित” करने में जुटा रहता है. इस तरह का व्यवहार उसके व्यक्तिव को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है.

जीवन में कुछ अनुभव ऐसे हो जाते हैं, जो हमें भीतर से बहुत असुरक्षित और भयभीत बना देते हैं. मसलन कहीं मेरा वाहन दुर्घटनाग्रस्त तो नहीं हो जाएगा! कहीं ट्रेन तो नहीं छूट जाएगी या कहीं मेरे पैसे तो चोरी नहीं हो जाएंगे?  मन में बसी बातें जब बाहर नहीं आती हैं या जब मन की गढ़ी हुई बातों पर संवाद नहीं होता है या सही परामर्श नहीं मिल पाता है, तो वे तनाव बनती हैं. और अगले चरण में वे “अवसाद (यानी डिप्रेशन)” का रूप ले लेती हैं.

राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान संस्थान (एनसीआरबी) द्वारा हाल में जारी नए आंकड़ों से पता चला कि एक साल में भारत में पैरालिसिस और मानसिक रोगों से प्रभावित 8409 लोगों ने आत्महत्या की. सबसे ज्यादा आत्महत्याएं महाराष्ट्र में (1412) हुईं. देश में वर्ष 2001 से 2015 के बीच के 15 सालों में कुल 126166 लोगों ने मानसिक-स्नायु रोगों से पीड़ित होकर आत्महत्या की. पश्चिम बंगाल में 13932, मध्यप्रदेश में 7029, उत्तरप्रदेश में 2210, तमिलनाडु में 8437, महाराष्ट्र में 19601, कर्नाटक में 9554 आत्महत्याएं इस कारण हुईं.

अवसाद मानसिक रोगों का एक रूप है. मानसिक रोग कोई एक अकेला रोग नहीं है. ये ऐसी स्थितियां या रोग हैं, जिनका असर हमारे व्यवहार, व्यक्तिव, सोचने और विचार करने की क्षमता, आत्मविश्वास, संबंधों पर पड़ता है. मानसिक रोगों में मुख्य रूप से शामिल हैं – वृहद अवसादग्रस्तता  (मेजर डिप्रेसिव डिसआर्डर), एकाग्रताविहीन सक्रियता का विकार (अटेंशन डेफिसिट हायपरएक्टिव डिसआर्डर), व्यवहार सम्बन्धी विकार, आटिज्म, नशीले पदार्थों पर निर्भरता, भय, उन्माद, बहुत चिंता होने का विकार (एंग्जायटी), मनोभ्रम-मनोनाश (डिमेंशिया), मिर्गी, स्कीजोफ्रेनिया, मानसिक कष्ट (डिस्थीमिया). विश्व में स्वास्थ्य शोधों की विश्वसनीय पत्रिका द लांसेट ने हाल ही में भारत और चीन में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति और उपचार-प्रबंधन की व्यवस्था पर शोध पत्रों की श्रृंखला प्रकाशित की. इसके मुताबिक इन दोनों देशों में मानसिक बीमारियां अगले दस सालों में बहुत तेजी से बढ़ेंगी. वर्तमान में ही इन दोनों देशों में दुनिया से 32 प्रतिशत मनोरोगी रह रहे हैं.

मानसिक अस्वस्थता के कारण वर्ष 2013 में स्वस्थ जीवन के भारत में 3.1 करोड़ सालों का नुकसान हुआ; यानी यदि मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीरता से पहल की जाती तो, भारत के लोगों को एक वर्ष में इतने साल खुशहाली के मिलते. यदि हम जीवन वर्ष की बात करें, तो हम पाएंगे कि भारत की कुल जनसंख्या 122 करोड़ है और यदि सभी लोग वर्ष 2013 का जीवन बिताते हैं, तो इसका मतलब है कि कुल जीवन वर्ष 122 करोड़ हुए. मानसिक रोगों के कारण इनमें से कई खुशहाल वर्षों को हम खत्म कर देते हैं. अध्ययन बताते हैं कि वर्ष 2025 में मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में हम 3.81 करोड़ साल का नुकसान करेंगे.

दुखद बात यह है कि आध्यात्म में विश्वास रखने वाला समाज अवसाद, व्यवहार में हिंसा, तनाव, स्मरण शक्ति का ह्रास, व्यक्तित्व में चरम बदलाव, नशे की बढ़ती प्रवृत्ति के संकट को पहचान ही नहीं पा रहा है. हम तनाव और अवसाद या व्यवहार में बड़े बदलावों को जीवन का सामान्य अंग क्यों मान लेते हैं; जबकि ये खतरे के बड़े चिन्ह हैं.

भारत में आर्थिक विकास ने हमें मानसिक रोगों का उपहार दिया है. वर्ष 1990 में भारत में 3 प्रतिशत लोगों को किसी तरह के मानसिक, स्नायु रोग होते थे और लोग गंभीर नशे की लत से प्रभावित थे; यह संख्या वर्ष 2013 में बढ़ कर दो गुनी यानी जनसंख्या का 6 प्रतिशत हो गई. राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के मुताबिक भारत में लगभग 7 करोड़ लोग मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं. यहां 3000 मनोचिकित्सकों की उपलब्धता है, जबकि जरूरत लगभग 12 हजार की और है. यहां केवल 500 नैदानिक मनोवैज्ञानिक हैं, जबकि 17259 की जरूरत है. भारत में 23000 मनोचिकित्सा सामाजिक कार्यकर्ताओं की जरूरत है, जबकि उपलब्धता 4000 के आसपास है.

हमें यह समझना होगा कि मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सामान्य लोक स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ कर देखने का जरूरत है. केवल विशेष और गंभीर स्थितियों में ही विशेष मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत होती है. इसी तरह अनुभव यह बताते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य की नीति बनाने में अकसर गंभीर विकारों (जैसे स्कीजोफ्रेनिया) को प्राथमिकता दी जाती है और आम मानसिक बीमारियों (जैसे अवसाद और उन्माद) को नज़रंदाज़ किया जाता है; जबकि ये सामान्य मानसिक रोग ही आम तौर पर समाज को और समाज के सभी तबकों को बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं. अवसाद और उन्माद के गहरे सामाजिक-आर्थिक प्रभाव पड़ते हैं. अतः जरूरी है कि बड़े-बड़े चमकदार निजी अस्पतालों के स्थान पर समुदाय केंद्रित मानसिक स्वास्थ्य व्यवस्था बने.

हमारे यहां मानसिक रोगों के शिकार दस में एक ही के द्वारा उपचार की तलाश की जाती है, शेष 9 समाज में ही छिपे रहते हैं. उन्हें सही मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं न मिलने के कारण उनकी समस्या गहराती जाती है. भारत में इस तरह की समस्याओं के प्रति “अपमानजनक नकारात्मक” भाव रहा है. मानसिक रोगों को छिपाना सबसे बेहतर विकल्प माना जाता है. जैसे ही यह पता चलता है कि मैं यानी व्यक्ति किसी मनोचिकित्सक या स्नायु रोग चिकित्सक के पास गया हूं, तो मुझे भेदभावजनक व्यवहार का सामना करना पड़ेगा. हमारे यहां तत्काल ऐसे व्यक्ति को “पागल” की संज्ञा से विभूषित कर दिया जाता है. जिसे सामान्य जीवन जीने का हक नहीं होता. जिसे या तो पागलखाने भेज दिया जाना चाहिए या फिर रस्सियों से बांधकर रखा जाना चाहिए. यह न भी हो तो सामान्य पारिवारिक और सामाजिक जीवन से उसे पूरी तरह से बहिष्कृत कर दिया जाता है. भारत में परंपरा रही है कि व्यक्तिव विकारों या मानसिक रोगों का उपचार स्थानीय स्वास्थ्य पद्धतियों से किया जाए, किन्तु सामाजिक मान्यता के अभाव में मानसिक रोगों के उपचार की व्यवस्था स्वीकार्य नहीं हो पाई. इनमें भी महिलाओं की स्थिति लगभग नारकीय बना कर रख दी गई है.

भारत में जो भी व्यक्ति मानसिक रोग के लिए परामर्श लेना चाहता है, उसे कम से कम दस किलोमीटर की यात्रा करना होती है. हांलाकि 90 फीसदी को तो इलाज़ ही नसीब नहीं होता. विशेष मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से पता चला कि गंभीर और तीव्र मानसिक विकारों से प्रभावित 99 प्रतिशत भारतीय देखभाल और उपचार को जरूरी ही नहीं मानते हैं.

हालात यह हैं कि भारत में 3.1 लाख की जनसंख्या पर एक मनोचिकित्सक उपलब्ध है. इनमें से भी 80 प्रतिशत महानगरों और बड़े शहरों में केंद्रित हैं. अतः यह माना जाना चाहिए दस लाख ग्रामीण लोगों पर एक मनोचिकित्सक है भारत में. हमारे स्वास्थ्य के कुल बजट में से डेढ़ प्रतिशत से भी कम हिस्सा ही मानसिक स्वास्थ्य के लिए खर्च होता है. जरा अंदाजा लगाइए कि 650 से ज्यादा जिलों वाले देश में अब तक कुल जमा 443 मानसिक रोग अस्पताल हैं. छः उत्तर-पूर्वी राज्यों, जिनकी जनसंख्या लगभग 6 करोड़ है, वहां एक भी मानसिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है. लांसेट के अध्ययन से पता चलता है कि भारत में लगभग 70 प्रतिशत मानसिक रोग चिकित्सकीय परामर्श और 60 प्रतिशत संस्थागत उपचार निजी क्षेत्र में होता है, जो वस्तुतः नियमों से परे है. यह जान लेना उपयोगी है कि डिमेंशिया से प्रभावित व्यक्ति की देखभाल की लागत उसके परिवार को 61967 रूपये (925 डालर) पड़ती है. क्या ऐसे में लोग निजी मानसिक स्वास्थ्य सेवा वहन कर सकते हैं? इतना ही नहीं भारत में इस विषय पर बहुत विश्वसनीय अध्ययन और जानकारियां भी उपलब्ध नहीं हैं, जिनसे इसकी गंभीरता सामने नहीं आ पाती है. वर्ष 1982 में भारत में जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू किया गया था. 23 सालों यानी वर्ष 2015-16 तक यह कार्यक्रम महज़ 241 जिलो (36 प्रतिशत) तक ही पहुंच पाया. बहरहाल इसकी गुणवत्ता और प्रभावों की बात करना बेमानी है. भारत में मनोचिकित्सकों की 77 प्रतिशत, 97 प्रतिशत नैदानिक मनोवैज्ञानिक और मानसिक स्वास्थ्य सामाजिक कार्यकर्ताओं की 90 प्रतिशत कमी है.

एक बड़ी समस्या यह है कि मानसिक स्वास्थ्य की व्यवस्था में दवाइयों से उपचार पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, जबकि वास्तव में परामर्श, समझ विकास, समाज में पुनर्वास, मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा पर सबसे ज्यादा पहल की जाने की जरूरत है. भारत में वर्ष 1997 से सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद से इस विषय पर थोड़ी बहुत चर्चा होना जरूर शुरू हुई, किन्तु समाज आधारित मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम एक हकीकत नहीं बन पाया है. देश में वर्ष 2014 में मानसिक स्वास्थ्य नीति बनी और इसके साथ ही मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधेयक, 2013 संसद में आया. यह विधेयक भी मानसिक रोगियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और हिंसा बहुत स्पष्ट व्यवस्था नहीं बनाता. उनका पुनर्वास भी एक चुनौती है.

भारत में मानसिक रूप से अस्वस्थ
                  मानसिक रूप से विक्षप्त     मानसिक रोगी     कुल

भारत                              1505965    722880    2228845
राजस्थान                           81389      41047      122436
उत्तरप्रदेश                         181342    76603      257945
बिहार                               89251      37521      126772
पश्चिम बंगाल                      136523    71515    208038
मध्यप्रदेश                           77803    39513    117316
कर्नाटक                            93974    20913    114887
आंध्रप्रदेश                          132380    43169    175549
गुजरात                              66393    42037    108430
स्रोत – जनगणना 2011

चूंकि भारत में स्वास्थ्य शिक्षा पर सरकारें बहुत ध्यान नहीं देती हैं, इसलिए मानसिक स्वास्थ्य पर भी समाज में शिक्षा का काम नहीं हुआ. इसी कारण यह माना जाने लगा कि मानसिक रोग से प्रभावित हर व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत होती है, जबकि यह सही नहीं है. अध्ययन बताते हैं कि 2000 रोगियों में से एक को अस्पताल सेवाओं की जरूरत पड़ सकती है.क्या हमें समस्या का आकार पता है?

वास्तव में मानसिक रोगों और अस्वस्थता के प्रति समाज और सरकार का नजरिया क्या है, इसका अंदाज़ा हमें कुछ तथ्यों से लग जाता है. मानसिक रोगों को विकलांगता की श्रेणी में रखा जाता है. नासमझ मान्यता यह है कि विकलांग से प्रभावित लोग “परिवार-समाज पर बोझ” होते हैं. इस पर भी यदि मानसिक बीमारी की बात हो तो संकट और बढ़ जाता है. मानसिक रोगियों के बारे में मान लिया जाता है कि अब ये बोझ हैं; जबकि यह कतई सच नहीं है. मानसिक रोगों का भी इलाज़ वैसे ही होता है, जैसे अन्य बीमारियों का होता है. सच तो यह है कि समस्या को छिपाने के कारण यह संकट बढ़ रहा है.  मसलन भारत की जनगणना-2011 के मुताबिक भारत मानसिक रोगियों की संख्या 2228845 बताई गई; जबकि सभी जानते हैं कि यह आंकड़ा सच नहीं बोल रहा है. जनगणना में परिवार से पूछा जाता है कि क्या उनके यहां कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति या मानसिक रोगी है; स्वाभाविक है कि कोई यह स्वीकार नहीं करना चाहता, इसलिए सच सामने नहीं आ पाता.

सच हमें पता चलता है लांसेट के अध्ययन से कि भारत में वर्ष 1990 में विभिन्न मानसिक रोगों से प्रभावित और गंभीर नशे से प्रभावित लोगों की संख्या 10.88 करोड़ थी. जो वर्ष 2013 में बढ़कर 16.92 करोड़ हो गई. अब जरा इस आंकड़े के भीतर झांकते हैं. इस अवधि में भारत में डिमेंशिया के प्रभावित लोगों की संख्या में 92 प्रतिशत, डिसथीमिया से प्रभावित लोगों की संख्या में 67 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. गंभीर अवसाद से प्रभावित भी 59 प्रतिशत बढ़े हैं. भारत में आज की स्थिति में लगभग 4.9 करोड़ लोग गंभीर किस्म के अवसाद के शिकार हैं. इसी तरह लगभग 3.7 करोड़ लोग उन्माद (एंग्जायटी) की गिरफ्त में हैं. जो यह बताते हैं कि माहौल और व्यवहार का हमारे व्यक्तित्व पर गहरा असर पड़ रहा है और हम परामर्श और संवाद सरीखी बुनियादी व्यवस्थाएं नहीं बना पा रहे हैं.

मानसिक रोग                                     वर्ष 1990 की स्थिति                                वर्ष 2013 की स्थिति
                                                       महिला         पुरुष          कुल             महिला        पुरुष           कुल

                        
स्कीजोफ्रेनिया                                    688000    818000    1506000      1188000    1387000    2575000
बाई-पोलर डिसआर्डर                      2900000    2448000    5348000     4792000    3955000    8747000
बड़े अवसाद की स्थिति                    16477000 13454000 29931000       27011000    21542000    48553000
डिसथीमिया                                   5970000    4045000    10015000    10237000    6768000    17005000
एंग्जायटी                                      15966000    7865000    23831000    24782000    12026000    36808000
आटिज्म                                        1467000    5155000    6622000       2126000    7378000    9504000
एकाग्रताविहीन सक्रियता का विकार    1326000    4164000    5490000      1653000    5308000    6961000
व्यवहार में विकार (कंडक्ट डिसआर्डर) 2078000    5610000    7688000    2598000    7234000    9832000
एल्कोहल पर निर्भरता                      1583000    6638000    8221000       2584000    10882000    13466000
एम्फ़ैटेमिन (एक दवा) निर्भरता              639000    816000    1455000        962000    1234000    2196000
भांग-गांजे पर निर्भरता                         474000    847000    1321000         707000    847000    1554000
कोकीन पर निर्भरता                              183000    315000    498000          300000    516000    816000
अफीम                                            192000    559000    751000             330000    957000    1287000
मिर्गी                                              1981000    2475000    4456000      2896000    3488000    6384000
मनोभ्रम-मनोनाश (डिमेंशिया)               953000    759000    1712000    2096000    1460000    3556000
कुल                                      52877000    55968000    108845000    84262000    84982000    169244000
स्रोत – द लांसेट शोध पत्रिका


(सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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