भारत और अमेरिका के बीच 2 प्लस 2 बैठक खत्म हुई. बैठक का महत्व इतना कि महामारी के वक्त और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से महज़ एक हफ्ता पहले अमेरिका के विदेश और रक्षा मंत्री दोनों भारत आए और आमने सामने अपने समकक्षों के साथ बैठक की - एक तथ्य जो विदेश मंत्री एस जयशंकर से प्रेस के सामने भी नोट किया. लेकिन सवाल ये उठते रहे कि ऐसे वक्त में आखिर ऐसे आमने सामने मुलाकात ही क्यों.. और तो और भले ही ना तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने और ना ही विदेश मंत्री एस जयशंकर ने चीन का नाम लिया लेकिन दोनों अमेरिकी मंत्रियों ने चीन पर सीधा हमला बोला. अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा कि उन्होंने राष्यट्रीय युद्ध स्मारक पर उन 20 सैनिकों को भी श्रद्दांजलि दी जिन्हें जून में गलवान घाटी में पीएलए ने मार डाला, जब भारत अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता के लिए लड़ रहा है तो अमेरिका उसके साथ खड़ा है. उन्होंने ये भी कहा कि चीन लोकतंत्र का दोस्त नहीं. दूसरी तरफ अमेरिकी रक्षा मंत्री मार्क टी एस्पर ने कहा कि साझा मूल्यों और हितों के को देखते हुए एक खुले और स्वतंत्र इंडो-पैसिफिक के लिए वो भारत के साथ कंधा मिलाकर खड़े हैं, खास कर तब जब चीन की आक्रामकता और अस्थिर करने वाली हरकतें बढ़ गई हैं.
साफ है कि दोनों देशों के लिए चीन अलग अलग वजहों से समस्या बना हुआ है. एलएसी पर उसकी घुसपैठ और कई दौर की सैन्य और कूटनीतिक स्तर की बातचीत, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्रियों के बावजूद अभी तर चीन अप्रैल वाली स्थिति में वापस नहीं गया है. दूसरी तरफ पूरी दुनिया कोरोना वायरस से लड़ रही है. अमेरिका में भी करीब नौ लाख संक्रमित हैं और दो लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. पूरे विश्व की आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई है. राष्ट्रपति ट्रंप इसके लिए सीधे तौर पर चीन को दोषी ठहराते है.
और तो और ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया कोरोना से लड़ रही है और चीन इस से उबर चुका है, वो अपना विस्तारवादी रवैया खुले तौर पर दिखा रहा है. ना सिर्फ एलएसी बल्कि ताइवान पर भी वो हमलावर है. साउथ चाइना सी में भी वो अपनी सैन्य ताकत दिखा रहा है और दूसरे देशों के दावों को बाहुबल से दरकिनार करने की कोशिश कर रहा है. व्यापार को लेकर कई देशों से उसकी तना तनी चल रही है. कुल मिला कर हालात ऐसे हैं कि सभी को कहीं ना कहीं ऐसा लग रहा है कि चीन को फौरन नहीं रोका तो बहुत देर हो जाएगी. ये खास तौर पर इसलिए भी खतरे के तौर पर देखा जा रहा है क्योंकि चीन उन लोकतांत्रिक मूल्यों को नहीं मानता जिससे भारत और अमेरिका जैसे देश चलते हैं. तिब्बत, शिनजियांग और हांगकांग के उदाहरण सबके सामने हैं. एशिया में इस तरह की शक्ति का दबदबा न तो क्षेत्र के छोटे विकासशील देशों के लिए अच्छी खबर है और ना भारत जैसे बड़े देश के लिए जो लोकतंत्र, आर्थिक और सैन्य मजबूती के साथ दुनिया में एशिया का प्रतिनिधित्व कर सकने का माद्दा रखता है.
इन मूल्यों के बदौलत अमेरिका एक तरह से भारत का स्वाभाविक सहभागी लगता है. और धीरे-धीरे - चाहे रिपब्लिकन या डेमोक्रैट- दोनों पार्टियों के प्रशासन के दौरान अमेरिका और भारत का सहयोग रक्षा, व्यापार, आतंक के खिलाफ कार्रवाई में लगातार बेहतर हो रहा है. ऐसे में ट्रंप प्रशासन के दौरान तीन अहम समझौतों में तीसरा BECA यानी Basic Exchange and Cooperation Agreement for Geo-Spatial Cooperation जो भारतीय मिसाइल और ड्रोन्स के लिए अहम है और इस पर हस्ताक्षर और इसका ऐलान दोनों देशों के रिश्तों की मज़बूती का तो संदेश देता ही है, चीन के लिए भी साफ संदेश है कि उसकी ज़ोर ज़बर्दस्ती का विरोध सभी मिल कर करने को तैयार हैं.
कादम्बिनी शर्मा NDTV इंडिया में एंकर और एडिटर (फॉरेन अफेयर्स) हैं...
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