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डब्लूटीओ के दुष्चक्र में फंसा भारत का कृषि क्षेत्र

डॉक्टर अनंत विजय पालीवाल
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 27, 2025 17:42 pm IST
    • Published On अगस्त 27, 2025 17:32 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 27, 2025 17:42 pm IST
डब्लूटीओ के दुष्चक्र में फंसा भारत का कृषि क्षेत्र

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका सिर्फ एक आर्थिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह देश के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने का अभिन्न अंग है. भारत की 60 फीसदी से अधिक आबादी के लिए आजीविका का प्राथमिक स्रोत होने के साथ-साथ, कृषि देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में भी एक महत्वपूर्ण योगदान देती है. जीडीपी में इसका अनुमानित हिस्सा करीब 24 फीसदी है. यह क्षेत्र लाखों छोटे और सीमांत किसानों (भारत की कृषि आबादी का लगभग 86 फीसदी हिस्सा) का घर है, जिनके लिए खेती एक व्यवसाय से कहीं अधिक एक जीवनशैली है. इस पृष्ठभूमि में, भारत की कृषि नीतियां केवल आर्थिक लक्ष्यों से प्रेरित नहीं होतीं, बल्कि उनका उद्देश्य ग्रामीण आजीविका और खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना भी होता है.

क्या है डब्लूटीओ

भारत और ऐसे ही अन्य देशों की वैश्विक चुनौतियों को देखते हुए 30 अक्टूबर, 1947 को जिनेवा (स्विट्जरलैण्ड) में 23 देशों द्वारा सीमा शुल्कों के संबंध में एक सामान्य समझौता किया गया था. इसे गैट अर्थात् 'प्रशुल्क एवं व्यापार पर सामान्य समझौता' (General Agreement on Trade and Tariff) नाम दिया गया. यह समझौता एक जनवरी, 1948 को लागू हुआ. गैट के सन् 1947 (पहला), सन् 1949 (दूसरा), सन् 1950-51 (तीसरा), सन् 1956 (चौथा), सन् 1960-61 (पांचवां), सन् 1964-67 (छठा), सन् 1973-79 (सातवां) तथा सन् 1986-93 (आठवां) में अलग-अलग वार्ताओं के दौर हुए.
उरुग्वे में चली आठवें दौर की वार्ता और इसके प्रस्ताव विश्व भर में वाद-विवाद का विषय बन गए. दिसंबर, 1991 में आर्थर डंकल द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव सबसे अधिक बहस के शिकार हुए. ऐसा लग रहा था कि समझौते पर हस्ताक्षर नहीं हो पाएँगे लेकिन 15 अप्रैल, 1994 को मराकेश (मोरक्को) में हुई व्यापार प्रतिनिधियों की वार्ता में समझौते की पुष्टि हो गई. इस पर 125 देशों ने हस्ताक्षर कर दिए. एक जनवरी, 1995 से गैट का स्थान विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organisation) या डब्ल्यूटीओ ने ले लिया. 30 अगस्त 2024 तक दुनिया के 166 देश इसके सदस्य थे. इसका कार्यालय जिनेवा में बनाया गया है.

डब्लूटीओ का कार्यालय जिनेवा में है, 149 से अधिक देश इसके सदस्य हैं.

डब्लूटीओ का कार्यालय जिनेवा में है, 30 अगस्त 2024 तक दुनिया के 166 देश इसके सदस्य थे.

डब्लूटीओ का भारत से संबंध

यह संगठन विश्व व्यापार में वृद्धि करने हेतु बनाया गया लेकिन विश्व व्यापार संगठन (WTO) और भारत के कृषि क्षेत्र के बीच संबंध उतने आसान नहीं रहे. भारत की घरेलू खाद्य सुरक्षा, लाखों छोटे किसानों की आजीविका और वैश्विक व्यापार के सिद्धांतों के बीच एक स्थायी विवाद हमेशा से चलता रहा है. ये सही है कि डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते (AoA) ने भारत के लिए वैश्विक बाज़ारों में पहुंच के अवसर खोले हैं, लेकिन दूसरी ओर इसने न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग जैसे महत्वपूर्ण घरेलू नीतियों पर निरंतर दबाव भी डाला है.

डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते (AoA) का मुख्य उद्देश्य 'एक निष्पक्ष और बाज़ार-उन्मुख' व्यापार प्रणाली स्थापित करना था. जो व्यापार बाधाओं को दूर करे और अंतरराष्ट्रीय कृषि व्यापार में पारदर्शिता को बढ़ावा दे. पर इस वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने भारत की घरेलू कृषि-आर्थिक नीतियों और अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था के बीच एक अजीब सी स्थिति पैदा कर दी है. किसान समूहों और विशेषज्ञों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि डब्ल्यूटीओ के नियम और नीतियां वकसित देशों के पक्ष में हैं. वहीं दूसरी ओर ये विकासशील देशों के छोटे किसानों की आजीविका के लिए खतरा हैं. इसे और अच्छी तरह से समझने के लिए डब्ल्यूटीओ के कृषि संबंधी कुछ मूलभूत सिद्धांतों को जानना जरूरी है. डब्ल्यूटीओ का कृषि समझौता (AoA) तीन मुख्य तरीकों से काम करता है. पहला: घरेलू समर्थन, दूसरा: बाज़ार पहुंच और तीसरा: निर्यात सब्सिडी.

30 अगस्त 2024 तक दुनिया के 166 देश इसके सदस्य थे.

विकसित देश अपने किसानों को बड़े पैमाने पर सब्सिडी देते हैं, जबकि विकाशशील देश ऐसा नहीं कर पाते हैं.

घरेलू समर्थन क्या होता है

यह सरकारों द्वारा किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी से संबंधित है. AoA इन सब्सिडी को उनके व्यापार-विकृत प्रभाव के आधार पर तीन तरह से वर्गीकृत करता है.

ग्रीन बॉक्स सब्सिडी: विकसित देश अपने किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता जैसे उपायों के माध्यम से विशाल सब्सिडी देना जारी रख सकते हैं, जिन्हें ग्रीन बॉक्स के तहत 'गैर-व्यापार विकृत' माना जाता है. इन पर कोई सीमा या प्रतिबंध नहीं है. इसमें अनुसंधान और विकास, आपदा राहत, पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम, फसल बीमा, और ग्रामीण बुनियादी ढाँचे के विकास जैसे कार्यक्रम शामिल हैं. डब्ल्यूटीओ का मानना है कि ये सब्सिडी बाजार को विकृत नहीं करतीं.

ब्लू बॉक्स सब्सिडी: ये सब्सिडी व्यापार में अपेक्षाकृत कम विकृति उत्पन्न करती है. इन्हें उत्पादन को सीमित करने वाली शर्तों के साथ प्रदान किया जाता है. इन पर भी कोई प्रतिबंध नहीं है. इन्हें 'शर्तों के साथ एम्बर बॉक्स' के रूप में भी जाना जाता है.

एम्बर बॉक्स सब्सिडी: यह सबसे विवादास्पद श्रेणी है. भारत के संदर्भ में, न्यूनतम समर्थन मूल्य और उत्पादन से जुड़ी सीधी आर्थिक सहायता इसी श्रेणी में आती हैं. भारत में एमएसपी, जो लाखों छोटे किसानों की आजीविका के लिए एक महत्वपूर्ण सुरक्षा तंत्र है, को एम्बर बॉक्स में वर्गीकृत किया जाता है. उस पर लगातार दबाव डाला जाता है.

सब्सिडी का यह वर्गीकरण अपने आप में असमानता पैदा करता है. यह वर्गीकरण, जो 'व्यापार विकृति' के सिद्धांत पर आधारित है, भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को नज़रअंदाज़ करता है. एक प्रकार की 'संरक्षित सब्सिडी' की अनुमति देता है, जो विकसित देशों के बाज़ार को विकृत कर सकती है, जबकि भारत के आवश्यक कार्यक्रमों पर प्रतिबंध लगाती है.

बाजार पहुंच क्या है

यह व्यापार बाधाओं को कम करने से संबंधित है. इसका मुख्य प्रावधान 'टैरिफ़िकेशन' (आयात शुल्क) है. जिसके तहत आयात कोटा और न्यूनतम आयात मूल्य जैसे सभी गैर-टैरिफ़ बाधाओं को समाप्त करके उन्हें टैरिफ़ (आयात शुल्क) में परिवर्तित करना अनिवार्य है. इसके अलावा, सदस्य देशों को टैरिफ़ में कमी करने की प्रतिबद्धता भी निभानी होती है. इस संदर्भ में, भारत ने अपने घरेलू बाज़ार को सस्ते आयातों से बचाने के लिए एक 'विशेष सुरक्षा तंत्र' (SSM) की मांग की है. एसएसएम विकासशील देशों को आयात में अचानक वृद्धि या कीमतों में भारी गिरावट की स्थिति में अस्थायी रूप से टैरिफ़ बढ़ाने की अनुमति देगा.

हालांकि, इस मुद्दे पर भारत और अमेरिका के बीच गहरे मतभेद बने रहे, जिससे कई वार्ताओं में गतिरोध पैदा हुआ. भारत ने 115 फीसदी का ट्रिगर स्तर प्रस्तावित किया, जबकि अमेरिका 140 फीसदी के ट्रिगर पर अड़ा रहा. इससे कोई समझौता नहीं हो सका. एसएसएम पर गतिरोध यह दर्शाता है कि डब्ल्यूटीओ की बाज़ार उदारीकरण की प्रवृत्ति का छोटे किसानों की सुरक्षा की जरूरतों से कोई लेना-देना नहीं है. 

विकसित देश अपने किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता जैसे उपायों के माध्यम से विशाल सब्सिडी

डब्लूटीओ की नीतियां भारत के छोटे किसानों के लिए एक चुनौती पेश करती हैं.

न्यूनतम समर्थन मूल्य और 'डी मिनिमिस' सीमा की चुनौती

डब्ल्यूटीओ की नजर में, भारत का एमएसपी कार्यक्रम एक एम्बर बॉक्स सब्सिडी है. भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि इसकी सब्सिडी 'डी मिनिमिस' सीमा (10फीसदी) से अधिक न हो. दरअसल इस चुनौती की जड़ एमएसपी की गणना पद्धति में निहित है, जो 1986-88 के एक स्थिर 'बाहरी संदर्भ मूल्य' (ERP) का उपयोग करती है. भारत जैसे देश में मुद्रास्फीति के कारण एमएसपी और इस स्थिर ईआरपी के बीच का अंतर समय के साथ बहुत बढ़ गया है. नतीजतन, भारत द्वारा प्रदान की जाने वाली वास्तविक सब्सिडी कम होने के बावजूद, गणना में यह 10 फीसदी की सीमा का उल्लंघन करती हुई दिखाई देती है. उदाहरण के लिए, 2020-21 में, भारत की चावल सब्सिडी उत्पादन मूल्य का 15.14 फीसदी थी, जो 10 फीसदी की सीमा से अधिक थी. इसी तरह, गन्ना सब्सिडी 90 फीसदी से अधिक पाई गई. यह एक ऐसी गणना पद्धति है, जो भारत जैसे विकासशील देशों की घरेलू आर्थिक वास्तविकताओं को ध्यान में नहीं रखती. यह पद्धति एक स्थिर बेंचमार्क का उपयोग करके एक गतिशील आर्थिक वास्तविकता का आकलन करती है. इसका परिणाम यह होता है कि जैसे-जैसे घरेलू मुद्रास्फीति और एमएसपी बढ़ती है, भारत की सब्सिडी 'दिखावटी' रूप से सीमा का उल्लंघन करती दिखती है. यह दिखाता है कि नियम तकनीकी रूप से तटस्थ हो सकते हैं, लेकिन उनका कार्यान्वयन विकासशील देशों के लिए संरचनात्मक रूप से हानिकारक हो सकता है.

सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग और 'पीस क्लॉज़': सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग वह प्रक्रिया है, जिसके तहत सरकार खाद्य सुरक्षा उद्देश्यों के लिए एमएसपी पर अनाज की खरीद करती है (जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए). ये भी डब्लूटीओ के नियमों के तहत जांच के दायरे में रही है. भारत में अभी तक की जितनी भी सरकारें रही हैं उन्होंने अपनी खाद्य सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए इन कार्यक्रमों का जोरदार बचाव किया है. डब्लूटीओ ने भारत को 'पीस क्लॉज़' का उपयोग करने की अनुमति दी है. यह क्लॉज उसे खाद्य सुरक्षा के लिए एमएसपी-आधारित खरीद के खिलाफ कानूनी चुनौतियों से प्रतिरक्षा प्रदान करता है, भले ही वह 'डी मिनिमिस' सीमा का उल्लंघन करता हो. फिर भी, यह 'पीस क्लॉज' एक स्थायी समाधान नहीं है, बल्कि एक अस्थायी राहत है. इस क्लॉज की कई सीमाएं हैं. यह केवल पारंपरिक मुख्य खाद्य फसलों (जैसे चावल और गेहूं) पर लागू होता है और गैर-खाद्य सुरक्षा फसलों (जैसे कपास और सूरजमुखी के बीज) के लिए लागू नहीं होता है. यदि भारत सरकार अन्य फसलों के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी देने का फैसला करती है, तो उन पर डब्लूटीओ में कानूनी तौर पर चुनौती दी जाएगी, क्योंकि 'पीस क्लॉज' उन पर लागू नहीं होता. यह नियम एक तरह से नीतिगत बाधा पैदा करता है जो भारत की कृषि क्षेत्र की क्षमता को सीमित करता है.

क्या डब्लूटीओ की नीतियां भारतीय किसानों के लिए चुनौती हैं

कुल मिलाकर देखा जाए तो डब्लूटीओ की नीतियां भारत के छोटे किसानों के लिए एक चुनौती पेश करती हैं. विकसित देशों के किसानों को भारी सब्सिडी और उन्नत प्रौद्योगिकी का लाभ मिलता है, जो उन्हें वैश्विक बाजार में एक अनुचित लाभ प्रदान करता है. अगर तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो, अमेरिका में प्रति किसान 40 हजार डॉलर की सब्सिडी मिलती है, जबकि भारत में यह आंकड़ा केवल 300 डॉलर प्रति किसान है. दूसरी तरफ यदि भारत टैरिफ में कमी करता है तो सस्ते आयात का खतरा बढ़ जाता है, जिससे घरेलू बाजार में कीमतें गिरती हैं और किसानों की आय कम होती है.

डब्लूटीओ की नीतियां भारत के छोटे किसानों के लिए एक चुनौती पेश करती हैं.

भारत को न केवल डब्लूटीओ में अपनी स्थिति को मज़बूत करना होगा, बल्कि घरेलू नीतियों में भी सुधार पर जोर देना होगा.

इन सारे खतरों के बावजूद भारत ने डब्लूटीओ में कभी भी केवल एक निष्क्रिय सदस्य की भूमिका नहीं निभाई, बल्कि वह हमेशा से एक सक्रिय और मुखर खिलाड़ी रहा है. खासकर विकासशील देशों के हितों की रक्षा में उसने हमेशा पहल की है. भारत ने G-33 जैसे समूहों के गठन और नेतृत्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जो कृषि व्यापार वार्ताओं में विकासशील देशों के हितों की रक्षा के लिए एक मंच के रूप में काम करता है. भारत की सक्रियता और उसकी रणनीतिक स्थिति का अंदाजा उससे जुड़े दो प्रमुख कानूनी विवादों के विश्लेषण से हो जाता है:

गन्ना और चीनी सब्सिडी विवाद: अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ग्वाटेमाला ने आरोप लगाया कि भारत ने गन्ना किसानों को 10 फीसदी की 'डी मिनिमिस' सीमा से अधिक सब्सिडी प्रदान की है, जो चीनी उत्पादन के कुल मूल्य का 90 फीसदी से अधिक थी. साल 2021 में, एक डब्लूटीओ पैनल ने भारत के खिलाफ फैसला सुनाया. इसमें यह पाया गया कि भारत ने लगातार पाँच साल (2014-15 से 2018-19) तक नियमों का उल्लंघन किया. भारत ने इस फैसले को 'त्रुटिपूर्ण' और 'तर्कहीन' बताते हुए दृढ़ता से इसका विरोध किया और इसके खिलाफ अपील दायर की.

निर्यात प्रोत्साहन योजनाएं (MEIS) विवाद: अमेरिका ने भारत की विभिन्न निर्यात प्रोत्साहन योजनाओं पर आपत्ति जताई. उसका तर्क था कि भारत का GNI प्रति व्यक्ति 1,000 डॉलर की सीमा को पार कर गया है और वह अब इस तरह की सब्सिडी देने के योग्य नहीं है. अक्टूबर 2019 में, डब्लूटीओ पैनल ने अमेरिका के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसमें यह कहा गया कि भारत की योजनाएं, जिसमें विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) से संबंधित योजनाएं भी शामिल हैं, सब्सिडी और प्रतिकारी शुल्क (SCM) पर समझौते का उल्लंघन करती हैं.

इन दोनों प्रमुख विवादों में, डब्लूटीओ के फैसले तभी लागू होंगे जब अपीलीय निकाय द्वारा वैध ठहराया जाए. चूंकि अपीलीय निकाय निष्क्रिय होने के कारण भारत की अपील भी लंबित है. यह स्थिति भारत को अपनी नीतियों को बिना किसी तत्काल प्रतिबंध के जारी रखने की अनुमति देती है. इस प्रकार, अपीलीय निकाय का निष्क्रिय होना भारत के लिए एक प्रकार का रणनीतिक विलंब बन गया है, जो उसे बहुपक्षीय व्यवस्था के भीतर अपनी रक्षात्मक स्थिति बनाए रखने में मदद करता है.

असमानताओं से भरे डब्लूटीओ के नियम

कुल मिलाकर देखा जाए तो भारत ने डब्लूटीओ के नियमों की कई असमानताओं को उजागर किया है, जैसे कि विकसित देशों को 'ग्रीन बॉक्स' सब्सिडी के तहत भारी समर्थन जारी रखने की अनुमति देना, जबकि भारत जैसे विकासशील देशों की 'एम्बर बॉक्स' सब्सिडी पर लगातार सवाल उठाना. इसके बावजूद, भारत ने अपनी रक्षात्मक स्थिति को मज़बूत करने के लिए G-33 जैसे विकासशील देशों के समूह का नेतृत्व किया है और 'पीस क्लॉज' का रणनीतिक उपयोग किया है. विशेष रूप से, डब्लूटीओ के अपीलीय निकाय का निष्क्रिय होना भारत के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीतिक लाभ बन गया है, जिससे वह अपने विरुद्ध निर्णयों के बावजूद अपनी नीतियों को जारी रख सका है. भविष्य में, जलवायु परिवर्तन जैसे नए मुद्दे व्यापार वार्ताओं में और अधिक जटिलता ला रहे हैं, जिस पर भारत एक सतर्क दृष्टिकोण अपना रहा है. इन चुनौतियों का सामना करने के लिए, भारत को न केवल डब्लूटीओ में अपनी स्थिति को मज़बूत करना होगा, बल्कि घरेलू नीतियों में भी सुधार पर विचार करना होगा, जैसे कि एमएसपी से आय-आधारित समर्थन की ओर बढ़ना, जो वैश्विक व्यापार नियमों के अनुरूप हो और नई चुनौतियों का सामना कर सके.

अस्वीकरण: डॉ. अनंत विजय पालीवाल दिल्ली के डॉक्टर बीआर आंबेडकर विश्वविद्यालय में हिंदी के सहायक प्राध्यापक हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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