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This Article is From Aug 10, 2018

कहीं भारत न पहुंच जाए तुर्क हवा...

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    August 10, 2018 17:49 IST
    • Published On August 10, 2018 17:49 IST
    • Last Updated On August 10, 2018 17:49 IST
पिछले महिने एशिया और यूरोप महाद्वीपों के बिल्कुल बीच में बसे हुए आठ करोड़ की आबादी वाले तुर्की नामक इस्लामिक देश में एक छोटी-सी ऐसी राजनीतिक घटना घटी है, जिसकी ओर फिलहाल दुनिया का ध्यान उतना नहीं गया, जितना जाना चाहिए था, जबकि यह घटना भारत के लिए तो महत्वपूर्ण है ही, जिस तरह से इस्लामिक धर्म की गलत व्याख्या का आधार बनाकर आतंकवादी गतिविधियां बढ़ाई जा रही हैं, दुनिया के लिए भी कम महत्वपूर्ण नहीं है.

दरअसल, इस घटना का संबंध हाल ही में वहां हुए चुनाव में एरडोगान के शासक बनने से है, जहां वह थोड़े-बहुत नहीं, 88 प्रतिशत मत प्राप्त कर बाकायदा लोकतांत्रिक तरीके से राष्ट्रपति बने हैं. गौर करने की बात यह है कि तुर्की का यह लोकतंत्र दुनिया का अपनी किस्म का इस मायने में अनोखा लोकतंत्र है कि वह अब 2029 तक वहां के राष्ट्रपति रह सकते हैं. वह कैबिनेट के मंत्रियों की नियुक्ति कर सकेंगे, वहां तक तो बात ठीक है, लेकिन उन्हें सरकारी अधिकारियों के साथ-साथ न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का भी अधिकार होगा. वह खुले रूप से वैध तरीके से न्यायिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकेंगे. जब भी उन्हें ज़रूरत होगी, वह आपातकाल लागू कर सकेंगे, और जब भी उनकी इच्छा होगी, वह संसद को भंग कर सकेंगे.

यदि यही लोकतंत्र है, तो फिर अधिनायक लोकतंत्र क्या होगा...? मज़ेदार बात यह है कि 88 प्रतिशत समर्थन प्राप्त करने के बाद एरडोगान ने कहा था कि 'तुर्की ने पूरी दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया है...' क्या दुनिया इस लोकतंत्र से कुछ सीखेगी...? सीखना तो दूर की बात, क्या वह इसे लोकतंत्र कहना चाहेगी...? उल्लेखनीय है कि सन् 2016 के एक असफल सैन्य विद्रोह के बाद से वहां आपातकाल लागू है. 

जहां तक भारत का सवाल है, चूंकि तुर्की एक इस्लामिक राष्ट्र है और अपेक्षाकृत सम्मानित एवं शक्तिशाली राष्ट्र भी, ऐसी स्थिति में भारत वहां हुए इस परिवर्तन की पूरी तरह अनदेखी नहीं कर सकता. आशंका इस बात की बिल्कुल भी नहीं है कि वहां की राजनीति प्रणाली से भारतीय लोकतंत्र थोड़ा-बहुत प्रदूषित हो सकता है. दरअसल, भारत की चिंता इस बात को लेकर है कि यदि इसी प्रकार इस्लामिक देशों में लोकतंत्र की अवहेलना होती रही, तो निश्चित रूप से इस समूह के साथ सद्भावपूर्ण संबंधों की स्थापना में दिक्कत तो आएगी ही. और सीधी-सी बात है कि भारत अपनी राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियों के संदर्भ में पश्चिमी एशियाई राष्ट्रों की अनदेखी नहीं कर सकता.

इसी के साथ तुर्की में हुआ दूसरा बदलाव भारत के लिए राजनीतिक बदलाव से भी अधिक चिन्ता का कारण है. अप्रैल, 2017 में एरडोगान ने वहां जनमत संग्रह कराकर इस नई शासन प्रणाली के पक्ष में समर्थन प्राप्त किया ही था, वहां धार्मिक कट्टरता लाए जाने के लिए भी लोगों की रज़ामंदी हासिल कर ली थी. हालांकि इसके पक्ष में उन्हें 51.40 प्रतिशत मत ही मिले थे और तुर्की की 48.60 प्रतिशत जनता एरडोगान की धार्मिक कट्टरता और निरंकुशता के विरोध में खड़ी थी. फिर भी एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत उन्हें यह अधिकार प्राप्त हो गया कि अतातुर्क कमाल पाशा की आधुनिक एवं प्रगतिवादी मूल्यों वाली तुर्की को वह रूढ़िवादी कट्टरपंथ की ओर ले जाएं. अब वह तुर्की के सुल्तान की हैसियत में आ गए हैं.

भारत के लिए इसके मायने बिल्कुल स्पष्ट हैं. भारत फिलहाल सीमा पर और यहां तक कि देश के अंदर भी जिस प्रकार की आतंकवादी गतिविधियों से परेशान है, वह अब कोई रहस्य नहीं रह गया है. ऐसी स्थिति में एक आधुनिक राष्ट्र के धार्मिक कट्टर राष्ट्र में परिवर्तित होने की घटना यदि दूसरे राष्ट्रों के लिए उत्प्रेरक का काम करेगी, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता, तो इससे भारत का सिरदर्द बढ़ेगा ही.

यहां एक बात और है. हालांकि तुर्की भारत की परमाणु आपूर्ति समूह की सदस्यता तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में उसके प्रवेश को समर्थन दे रहा है, लेकिन उसका झुकाव पाकिस्तान की ओर अधिक है. NSG में वह भारत के साथ-साथ पाकिस्तान को भी शामिल किए जाने की वकालत करता है. वह पाकिस्तान को आक्रमण करने वाले हेलीकॉप्टर देता है तथा रणनीतिक मोर्चे पर भी भारत के मुकाबले पाकिस्तान को अधिक तरजीह देता है. इसके प्रमाण के तौर पर कुछ समय पहले जब अफगानिस्तान पर तुर्की में सम्मलेन हुआ था, तब पाकिस्तान के कहने पर उसने इसमें भारत को नहीं बुलाया था. ऐसी स्थिति में यह बहुत स्पष्ट है कि अब यह तथाकथित नया तुर्की पाकिस्तान के अधिक निकट आकर भारत के लिए कठिनाइयां उत्पन्न कर सकता है.

साथ ही तुर्की का झुकाव चीन और रूस की ओर भी कम नहीं है. रूस के व्लादिमिर पुतिन वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने एरडोगान के राष्ट्रपति बनने पर सबसे पहले बधाई दी थी. चीन और पाकिस्तान के परस्पर गठजोड़ से भारत किस तरह की परेशानी महसूस कर रहा है, यह अनजाना तथ्य नहीं है.

अब देखना यह है कि भारत तुर्की से बहकर आने वाली इस नई हवा के रुख को कितना अपने अनुकूल मोड़ सकता है और स्वयं को उसके दुष्प्रभाव से बचा सकता है.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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