एक किताब होती तो आपके लिए भी आसान होता लेकिन जब कोई लेखक रचते-रचते संसार में से संसार खड़ा कर देता है तब उस लेखक के पाठक होने का काम भी मुश्किल हो जाता है. आप एक किताब पढ़ कर उसके बारे में नहीं जान सकते हैं. जो लेखक लिखते लिखते समाज में अपने लिए जगह बनाता है, अंत में उसी के लिए समाज में जगह नहीं बचती है. इसके बाद भी उसका लिखा ही है जो उसे भूल जाने वालों के बाद तक टिका रखता है. 'राग दरबारी' के पचास साल हो चुके हैं, ज़ाहिर है लेखक के चले जाने के बाद किताबें पाठकों को खोजती रहती हैं. अपना सफर तय करती रहती हैं.
ऐ लड़की, ज़िंदगीनामा, मित्रो मरजानी, हम-हशमत दिलो-दानिश, सूरजमुखी अंधेरे के, डार से बिछुड़ी, समय सरगम, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान तक, मुक्तिबोध, मार्फत दिल्ली, लेखक का जनतंत्र, चन्ना. इन सब किताबों के नाम जानने के बाद अगर आप पढ़ने की सोचेंगे तो इतना यकीन से कह सकता हूं कि आप पछताएंगे नहीं. आपको लगेगा कि पहले क्यों नहीं पढ़ा. आप ताज़गी से भर जाएंगे, आपके भीतर का इतिहास बोध उड़ान भरने लगेगा, तब आप चाहेंगे कि लेखक से भी मिला जाए. सुना जाए, मगर अफसोस अब ये नहीं हो सकेगा. 94 साल तक लिखने से लेकर बोलने के मोर्चे पर सक्रिय रह कर गईं हैं. 92 साल की उम्र में उनकी चार किताबें आई थीं. जिसने भी उन्हें पढ़ा और सुना, यही समझ कर लौटा कि एक लेखक का ज़माना देखा है. 25 जनवरी की सुबह कृष्णा सोबती का निधन हो गया. उनके पास जो भी था उसका बड़ा हिस्सा आने वाले लेखकों के लिए ट्रस्ट बनाकर छोड़ कर गईं हैं. अपनी बचत, अपना मकान सब आप पाठकों और लेखकों के लिए. ज्ञानपीठ पुरस्कार के ग्यारह लाख और एक करोड़ की बचत और अपना मकान ट्रस्ट को दे गई हैं. इससे लेखकों के लिए एक घर बनेगा जिसका नाम होगा ज़िंदगीनामा. उनकी रचनाएं हंगामा खड़ा करती रहीं मगर उनकी विदाई आज चुपचाप हो गई. उन्हें अफसोस भी नहीं होगा. उन्हीं के इंटरव्यू की एक पंक्ति है 'मेरे परिचित ज़्यादा हैं, दोस्त कम हैं.' अशोक वाजपेयी ने कहा है कि सोमवार को चार बजे दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में स्मृति सभा होगी.
खूब सारी लड़कियां हैं कृष्णा सोबती के रचना संसार में. आज़ाद भारत के पहले के भारत में पैदा हुई थीं. हाकी खेलती थीं. स्केटिंग करने का मन करता था. 93 साल की उम्र में जब ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला तो राष्ट्रपति के हाथों लेने नहीं जा सकीं.
जिन्होंने कृष्णा सोबती को देखा है उनकी नफ़ासत को भी देखा होगा. ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरों में भी और रंगीन तस्वीरों में कृष्णा सोबती अलग से पहचानी जाने वाली लेखिका थीं. अनामिका से बातचीत में कहा है कि तालकटोरा गार्डन में हाकी खेलती थीं. फैंसी ऐड़ीदार जूते पसंद थे, शैफर की कलम से लिखा करती थीं. जीवन भर गरारा पहना. अब कहां इस दिल्ली में गरारे में कोई दिखती हैं. बाद के दिनों में वे अपने लिए लंबा कुर्ता डिज़ाइन कर पहनने लगीं. कृष्णा सोबती ने कहा है कि मेरे आलोचक कहते हैं कि मैं अपने लेखन में जीवन का उत्सव मनाती हूं. मेरा यकीन डर और निराशा में नहीं है बल्कि जीवन को जैसा मन कहे, वैसे जीने में है. इसलिए मैंने उनके कपड़ों और खेल के बारे में बताया कि लेखक को जीना भी पड़ता है. झक्की स्वभाव की भी थीं, उन्हें मना लेना किसी के लिए आसान नहीं था. उन्हें रोक लेना भी आसान नहीं था. निरंजन देव शर्मा ने उनसे बचपन के बारे में पूछा तो कहा कि मैं 2025 में पैदा होती और इस सदी की ग्लोबल दुनिया को जी भर-भरकर जीती. अपने काम-धन्धे को किसी विज्ञापन एजेन्सी को सौंप दूसरों को उखाड़ने-पछाड़ने पर लग जाती. इसकी निन्दा, उसकी बदखोई, इसे खदेड़, उसे उधेड़.
ज़ाहिर है वे ऐसा नहीं करतीं मगर इसी बहाने उन्होंने दुनिया को आईना भी दिखा दिया. पाकिस्तान के गुजरात में पैदा हुई थीं. इसलिए उनकी रचनाओं में अपना सब छूट जाने का दर्द भी है. मगर वह तरस खाने वाला दर्द नहीं, इतिहास को इतिहास की तरह छोड़ जाने का दर्द था. आप इन तस्वीरों से एक ऐसी लेखिका को देख रहे हैं जो तमाम तूफानों के बीच हंसते खेलते गुज़र जाती थी. दिल्ली में एडल्ट एजुकेशन विभाग में काम किया था. हमारा गांव और हमारा शहर नाम की दो पत्रिकाओं की संपादक थीं. आज की लेखिकाओं को रश्क होता होगा कि काश वे कृष्णा सोबती होतीं. स्टाइल नकल से नहीं आती है. नफ़ासत और फ़ितरत से आती है.
अशोक वाजपेयी को मलाल रहता है कि हिन्दी का समाज अपने महा रचनाकारों को सेलिब्रेट नहीं करता है. जश्न नहीं मनाता. कृष्णा जी को खुद से ये शिकायत नहीं थीं. 93 साल की उम्र में जब ज्ञानपीठ मिला तब इस हालत में नहीं थीं कि राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कार लेने जातीं. गोविन्द पनसारे, एम एम कलबुर्गी और अखलाक की हत्या के बाद दिल्ली में लेखकों की प्रतिरोध सभा हुई थी. इस प्रतिरोध सभा में कृष्णा सोबती 91 साल की उम्र में व्हील चेयर पर आई थीं. ओम थाणवी के आग्रह पर आईं और अपना पर्चा पढ़ा और बाद में उसे छपवा भी दिया. छपवाया ही नहीं, बंटवाया भी. लेखक, सत्ता, संस्कृति और नागरिक नाम से. प्रतिरोध का पर्चा शुरू होता है भारत के संविधान की उद्देशिका से. हम उस समय का भाषण सुनाते हैं ताकि आप ठहर कर सोच सके कि 92 साल की उम्र में कोई लेखिका विरोध करने आती है तो किसके लिए आती है. ज़ाहिर है उस नागरिक समाज के साथ खड़े होने के लिए जिसे नफरत की आंधी उड़ा ले जाना चाहती हो.
जिसका भी यह खेल है राजनीति, जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय वह इनसान और इनसानियत के खिलाफ है. उसके विरोध में है. वह लोकतंत्र की तौहीन है. और उन्हें यह खेल खिलाने वाली शह देने वाली हैं-महाशक्तियां. ऐसी शक्तियां जो लोकतंत्र के विरुद्ध हैं और पुरानी जर्जर हो चुकी व्यवस्था को दुबारा स्थापित करना चाहती हैं. धार्मिक और जातीय द्वंद्व और हिंसा के सब पहलू उनकी तिजोरी में बन्द हैं. तिजोरियां कभी उत्तर नहीं देती हैं. वह प्रजाओं के आगे सिर्फ हथियार फेंकती हैं. लो - पकड़ो और लड़ो ताकि हम जमे रहें.
कृष्णा सोबती को लाखों लोगों ने पढ़ा, सुना. उन्हें मिले पुरस्कारों की सूची किताबों की तरह लंबी है. लेखक का जनतंत्र किताब में गिरधर राठी के एक सवाल के जवाब में कहती हैं, 'याद रहे, इतिहास को दुबारा लिख-लिखकर, उसके शब्दों में फेर-बदल कर आप जातीय या राष्ट्रीय दुर्बलताओं को उपलब्धियां बनाकर गौरव-गान करना चाहें तो आपको कौन रोक सकता है? याद इतना रहे कि इतिहास का पुनर्लेखन एक ऐसी राजनीति है जो दिलों में घृणा, विक्षोभ और वैमनस्य के अम्बार जुटाती है और मौक़ा देखते ही आग सुलगाकर लपलपाने लगती है. गुजरात से गुजरात तक.'
विभाजन से लेकर अपने 90 साल की उम्र के वर्तमान तमाम दंगों को देखने वाले किसी समझदार लेखक का इतना इशारा काफी है. कृष्णा सोबती ने इशारों में नहीं, अपनी बात साफ साफ कही है.