मंगलवार को टीवी पर दो तस्वीरें दिखाई दीं. इनमें पूछे जाते सवाल एक बार फिर कश्मीर को चर्चा के केंद्र में लाते हैं... पहली तस्वीर पत्रकारों से घिरे समाजविज्ञानी पार्थ चटर्जी की थी. जिन्हें घेर कर सहाफी ये पूछ रहे थे कि वो अपने ताज़ा लेख में प्रकट किये गये विचारों का बचाव कैसे करेंगे जिसमें उन्होंने सेनाध्यक्ष विपिन रावत और अंग्रेज़ जनरल डायर के बयानों की तुलना की है?
दूसरी तस्वीर पत्रकारों से घिरे सीपीएम नेता प्रकाश करात की है जिसमें उनसे पार्टी मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी में लिखे संपादकीय पर सवाल किया जा रहा है जिसमें जनरल विपिन रावत की सेना का राजनीतिकरण करने के लिए आलोचना है और उनके हाल में दिये इंटरव्यू को मोदी सरकार की सोच बताया गया है.
जाने माने समाजविज्ञानी पार्थ चटर्जी ने अंग्रेज़ी वेबसाइट ‘दि वायर’ में 2 जून को एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने घाटी में कश्मीरी नौजवान फारुख अहमद डार को जीप से बांधने और घुमाने की सेना की कार्रवाई (और उसके बाद इस कार्रवाई को अंजाम देने वाले को मेजर लीतुल गोगोई को मिले सम्मान और आर्मी चीफ जनरल विपिन रावत के इंटरव्यू ) को जनरल डायर मूमेंट कहा यानी उन्होंने उस घटना की तुलना जलियांवाला बाग हत्याकांड से की. ये तुलना पार्थ सिर्फ मेजर गोगोई की कार्रवाई के आधार पर नहीं करते बल्कि उन बयानों के आधार पर करते हैं जो जनरल विपिन रावत के इंटरव्यू का हिस्सा थे.
पार्थ चटर्जी अपने लेख में कहते हैं, “ये कहना सही नहीं होगा कि जनरल रावत के इरादे वही थे जो जनरल डायर के थे”. लेकिन चटर्जी उन बयानों की समानता दिखाते हैं जो जलियांवाला बाग के बाद डायर ने अपने एक्शन के बचाव में दिये और कश्मीर की घटना के बाद जनरल रावत ने अपने इंटरव्यू में मेजर गोगोई का बचाव करते हुये कहे.
लेख की शुरुआत में ही पार्थ जनरल डायर को उद्धृत करते हैं और कहते हैं – “ऐसा वक्त आता है जब आप आइना देखते हैं और उसमें एक ऐसा चेहरा देखकर स्तब्ध रह जाते हैं जिसे आप नहीं पहचानते – एक विकृत अजनबी का बदसूरत चेहरा. बहुत सारे भारतीयों के लिये इस पर विश्वास करना बेहद कठिन होगा कि एक राज्य के तौर पर हम जनरल डायर वाले पल में पहुंच गये हैं लेकिन सावधानी और निष्पक्षता से सोचें तो 1919 में ब्रिटिश – इंडियन आर्मी की कार्रवाई के पक्ष में दी दलीलों और आज 100 साल बाद भारतीय सेना के बचाव में कही बातों में डरावनी समानतायें हैं.”
पार्थ लिखते हैं कि जनरल डायर का बचाव ब्रिटिश नेताओं ने नहीं किया, लेकिन मेजर गोगोई का बचाव सेनाध्यक्ष के साथ सरकार के मंत्री भी कर रहे हैं. केंद्रीय मंत्री वैंकेया नायडू ने पार्थ चटर्जी के लेख की कड़ी आलोचना करते हुये इसके खिलाफ परवर्ज़न और इडियोटिक जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया. पत्रकारों से घिरे पार्थ चटर्जी ने कहा वह किसी भी आलोचना का जवाब लिखकर देंगे कैमरों के सामने बोलकर नहीं.
पार्थ चटर्जी का लेख जनरल रावत के इंटरव्यू से लेकर सेना के राजनीतिकरण तक के सवाल उठाता है. मेजर लीतुल गोगोई को सम्मानित करने के बाद जनरल रावत ने अपने इंटरव्यू में ये तक कहा था कि लोगों को सेना से डरना चाहिये. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सेनाध्यक्ष का ये बयान डराने वाला है.
जनरल रावत ने कहा – “ऐसी ही जंग में आप नये तरीके ढूंढते हैं. आप एक गंदे युद्ध को नये तरीकों को खोज कर लड़ते हैं. अगर मेरे अफसर पूछते हैं कि हम क्या करें तो क्या मुझे उनसे कहना चाहिये कि इंतज़ार करो और मर जाओ? मैं तुम्हारे लिये एक बढ़िया कॉफिन और तिरंगा लेकर आऊंगा और तुम्हारे शव को सम्मान के साथ तुम्हारे परिवार वालों तक पहुंचा दूंगा.”
जनरल रावत का ये बयान भले ही सेना की मजबूरी और कठिन हालात के मद्देनज़र मेजर लीतुल गोगोई के कृत्य को सही ठहराता हो लेकिन वह कई सवालों को धुंधला करने और उनकी अनदेखी करने की कोशिश भी है. फारुख अहमद डार की तस्वीर अब कश्मीर में चल रहे विरोध का एक अमिट हिस्सा बन चुकी है और ये तस्वीर एक अनुशासित और मानवीय होने का दावा करने वाली भारतीय सेना का पीछा करती रहेगी. ये बात शायद मेजर गोगोई और जनरल रावत से बेहतर कोई और नहीं जानता.
शायद इसीलिये अपने लेख में पार्थ चटर्जी डार के मानव ढाल बनाये जाने की इसी तस्वीर की तुलना विएतनाम वॉर की उस बहुचर्चित तस्वीर से करते हैं. जहां एक 8 साल की लड़की बम से मिले ज़ख्मों के साथ सड़क पर दौड़ रही है. आप शर्मसार करने वाली और युद्ध का विकृत चेहरा दिखाने वाली ये तस्वीर गूगल में आसानी से ढूंढ सकते हैं.
चटर्जी ने अपने लेख से जो सवाल उठाये हैं वो सेना के फैसलों को नैतिकता की कसौटी पर कसने की बहस फिर शुरू करते हैं.
यहां अंग्रेज़ दार्शनिक जैरिमी बैंथम का यूटिलिटेरिनिज्म का सिद्धांत मेजर गोगोई का बचाव कर सकता है. बैंथम कहते हैं कि किसी फैसले का नैतिकता की कसौटी पर मूल्यांकन उस फैसले के परिणामों के आधार पर होना चाहिये. बैंथम का तर्क है कि हम अधिकतम लोगों के लिये अधिकतम खुशी ढूंढें. उनके तर्क के हिसाब से सेना के जवानों के साथ कई लोगों को बचाने की मेजर गोगोई ने जो दलील दी वह काम कर सकती है.
मुझे नहीं पता कि मेजर लीतुल गोगोई जैरिमी बैंथम और उनकी थ्योरी को जानते हैं या फारुख डार को जीप में बांधते वक्त उन्होंने बैंथम के बारे में सोचा होगा लेकिन जो तर्क उन्होंने दिया वह यूटिलिटेरिनिज्म का सिद्धांत ही है जिसे अंग्रेज़ी में कॉन्सिक्वेंसियल मॉरल रीज़निंग कहा जाता है यानी आप अपने कृत्य के परिणाम के आधार पर नैतिकता तय करते हैं. महान दार्शनिक कहे जाने वाले जैरिमी बैंथम की अपनी इस थ्योरी के लिये बड़ी आलोचना भी हुई क्योंकि यह सोच किसी नैतिक फैसले में अल्पसंख्यकों (यहां शब्द का मतलब नंबर से है किसी धर्म से नहीं ) के अधिकारों को अनदेखा करती है यानी एक व्यक्ति के मरने से अगर 100 लोग बचते हैं तो बैंथम का सिद्धांत उस कृत्य की वकालत करता है.
दूसरी ओर पार्थ चटर्जी जिस ओर इशारा कर रहे हैं वह जर्मन दार्शनिक इमेन्युअल कांट का सिद्धांत है कि आखिरी नतीजे जो भी हों आप क्या कदम उठाते हैं वही आपकी नैतिकता का पैमाना है. इस आधार पर मेजर गोगोई और जनरल रावत की आलोचना जायज़ है. कांट ने अपने सिद्धांत में “मॉरल वर्थ” शब्द का इस्तेमाल किया यानी वह पूंजी जो इस बात की परवाह नहीं करती कि आखिर में आप बुराई को रोक पायेंगे या अच्छा परिणाम हासिल कर पायेंगे या नहीं. कांट कहते हैं कि फैसला नैतिकता के आधार पर ही होना चाहिये. गांधी जी की सोच बी इस बारे में स्पष्ठ रही है कि साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए.
अपने लेख में पार्थ चटर्जी कहते हैं कि डायर ने भारतीयों को अमृतसर की उस गली में रेंगकर चलने पर मजबूर किया जिसमें एक ब्रिटिश महिला की पिटाई हुई थी. डायर ने अपने बचाव में कहा कि ऐसा करना उनका “डरावना” और “गंदा फर्ज़” था.
पार्थ चटर्जी डायर के इन शब्दों को जनरल विपिन रावत के उस इंटरव्यू के सामने रखते हैं जिसमें उन्होंने कश्मीर की लड़ाई को एक “डर्टी वॉर” कहा है. लेकिन मंगलवार को जो तस्वीरें सामने आई उनमें सेना के राजनीतिकरण का एक सवाल उठाने पर पत्रकार सीपीएम नेता प्रकाश करात के पीछे ये कह कर दौड़ रहे थे कि आप सेना के पक्ष में खड़े होने से क्यों हिचक रहे हैं. सेना का विरोध करना किसी देश देश के नागरिकों के मूल अधिकारों के हित में है तो वह विरोध किया जाना चाहिये. इसमें देशद्रोह जैसी क्या बात है.
इसी बात को सावधानी के साथ कहते हैं पूर्व ब्यूरोक्रेट और लेखक पवन वर्मा. वर्मा ने कहा, “किसी भी अधिकारी या संस्था पर सवाल उठाया जा सकता है क्योंकि यहां लोकतंत्र है. सवाल उठाना देशद्रोह नहीं है लेकिन मैं यहां पर इसी लय में ये भी कहूंगा कि पार्थ चटर्जी ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है उससे वह बच सकते थे. ”
वर्मा जिस ओर इशारा कर रहे हैं वह पार्थ चटर्जी के लेख में इस्तेमाल किये गये रूपकों का है. चटर्जी भावनाओं में बहकर न केवल एक अतिवादी तुलना करते हैं बल्कि वह नेताओं की राजनीतिक विफलता और कश्मीर में सीमापार से चल रहे आतंकवाद को बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर देते हैं. सवाल ये है कि क्या पार्थ चटर्जी जनरल डायर से तुलना के अतिरूपकों का इस्तेमाल किये बगैर यही बात नहीं कह सकते थे.
जनरल डायर और जनरल विपिन रावत की साझा फोटो और लेख का शीर्षक शायद पार्थ के पूरे तर्क को धुंधला करता दिखता है. समाज और सत्ता में बैठे लोगों को झकझोरने और उनके ज़मीर को जगाने की लेखक की कोशिश इस अतिशयोक्ति में कहीं भटकती दिखती है और वह अहम सवाल कहीं खो जाता है जो वह अपने लेख के आखिर में उठाते हैं कि राष्ट्र के तौर पर हम ऐसे नाजुक मोड़ पर हैं जो हमें पाकिस्तान की तरह मार्शल लॉ यानी सेना की हुकूमत की ओर ले जा सकता है.
This Article is From Jun 07, 2017
अतिवादी रूपकों में खोये यथार्थवादी और गंभीर सवाल
Hridayesh Joshi
- ब्लॉग,
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Updated:जून 07, 2017 14:01 pm IST
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Published On जून 07, 2017 14:01 pm IST
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Last Updated On जून 07, 2017 14:01 pm IST
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