हमारे देश में क़ानून का डर कितना बचा है?

एक तो वाकई इस देश में कोई कानून नहीं बचा है और इस देश में कानून की मर्यादा समझने वाली जनता भी शायद नहीं बची है. पर जनता के लिए यह बात नहीं कही जा सकती क्योंकि जनता बची है तभी यह वीडियो आया है.

नवंबर 2015 में इंडियन एक्सप्रेस के एक कार्यक्रम में फिल्म अभिनेता आमिर ख़ान ने बस इतना कह दिया कि मैं भयभीत हो गया हूं. मेरी पत्नी को लगता है कि देश से बाहर चले जाना चाहिए. इतना हंगामा हुआ कि जो लोग वाकई देश से बाहर चले गए और बस गए वो भी डर गए कि जाने का कारण अब कम से कम ये नहीं बताना है. सिर्फ याद करने के लिए याद नहीं कर रहा. जस्टिस अरुण मिश्रा ने टेलिकॉम मामले की सुनवाई के समय कह दिया कि इस देश में कोई कानून नहीं बचा है. बेहतर है इस देश में रहा ही नहीं जाए, बल्कि यह देश ही छोड़ दिया जाए. मैं विक्षुब्ध हूं. लग रहा है कि इस कोर्ट के लिए काम ही न करूं. कोर्ट की नाराज़गी इस बात को लेकर थी कि टेलिकॉम मंत्रालय के डेस्क अफसर ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी थी. ज़ाहिर सी बात है. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर कोई अफसर रोक लगा सकता है. उस अफसर को भी पता होगा. लेकिन अब जवाबदेही के सवाल खत्म हो चुके हैं. वर्ना ये फिट केस था कि प्रधानमंत्री टेलिकॉम मंत्रालय से यह सवाल पूछ सकते थे कि किसके कहने पर डेस्क अफसर ने ऐसा किया. यह हुआ नहीं. टेलिकॉम मंत्री से इस्तीफा मांगने की आलसी औपचारिकता भी नज़र आई इसलिए आमिर ख़ान के उस बयान की याद दिलाई. आप सोचिए कि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस कह रहे है कि इस देश में कोई कानून नहीं बचा है. बेहतर है इस देश में रहा ही नहीं जाए.

क्या इस वीडियो को देखते हुए जस्टिस अरुण मिश्र की यह टिप्पणी आपके कानों में गूंज रही है? यही कि इस देश में कोई कानून ही नहीं बचा है. बेहतर है इस देश में रहा ही न जाए. जामिया मिल्लिया इस्लामिया की लाइब्रेरी में पुलिस मेज़ पर बैठे छात्रों पर लाठियां बरसाने लगती है. 15 दिसंबर की शाम का वीडियो है जिस रात पुलिस ने कैंपस के भीतर लाठी चलाई थी. जब यह वीडियो सामने आया तो तुरंत ही इन छात्रों को कुछ लोग दंगाई लिखने लगे. इन्हें ही अपराधी बताने लगे. अगर आप जस्टिस अरुण मिश्रा की टिप्पणी के साथ इस वीडियो को देखेंगे तो आप दो बातें समझेंगे. एक तो वाकई इस देश में कोई कानून नहीं बचा है और इस देश में कानून की मर्यादा समझने वाली जनता भी शायद नहीं बची है. पर जनता के लिए यह बात नहीं कही जा सकती क्योंकि जनता बची है तभी यह वीडियो आया है. कोई बचा होगा जो इस वीडियो को लीक कर दिया वरना यह सच्चाई सामने नहीं आती.

इस वीडियो में आपने पुलिस को लाइब्रेरी के भीतर लाठी चलाते हुए देखा. लेकिन तब दिल्ली पुलिस ने यह क्यों कहा कि पुलिस लाइब्रेरी के भीतर नहीं गई थी. 17 दिसंबर के हिन्दुस्तान टाइम्स में दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता एम एस रंधावा का बयान छपा है. 'हमारे जवान पत्थर चलाने वाले हिंसक प्रदर्शनकारियों का पीछा करते हुए कैंपस में गए थे. छात्रों के हाथ में बल्ब, बोतल और ट्यूब लाइट थी. उन्हें पीछे करने और काबू में करने के लिए पुलिस कैंपस में गई थी. कोई भी पुलिस का जवाब लाइब्रेरी के भीतर नहीं गया था, न ही तोड़फोड़ की. लाइब्रेरी के भीतर भले ही आंसू गैस चला गया हो क्योंकि जहां से फायर हो रहा था उसी के करीब थी लाइब्रेरी.

हिन्दुस्तान टाइम्स ने 17 फरवरी को भी इस बयान को छापा है. इंडियन एक्सप्रेस ने भी लिखा है कि दिल्ली पुलिस ने शुरू में कहा था कि वह लाइब्रेरी के भीतर नहीं गई थी. खैर इस वीडियो के बाहर आने के बाद घटना के आस पास के वीडियो की कहानी को बेहतर तरीके से समझने का मौका मिलता है. पुलिस लाइब्रेरी के भीतर गई थी और छात्र भी यही कह रहे थे. क्योंकि घटना के बाद जो वीडियो आया था वो मार खाते हुए, खुद को बचाते हुए छात्रों ने अपने मोबाइल फोन से रिकार्ड किया था.

यह वीडियो घटना के बाद आया था जिसे छात्रों ने अपने मोबाइल फोन से रिकार्ड किया था. इस वीडियो में आप डेस्क के नीचे छात्रों को छिपते हुए देख सकते हैं, भागते हुए भी लेकिन पुलिस यहां लाठी चलाती नहीं दिख रही है. ज़रूर उसकी हिंसा की तस्वीर नज़र आ रही है. एक और वीडियो में लाइब्रेरी के भीतर दिल्ली पुलिस दिख रही है लेकिन वो दूर दीवार के पास दिख रही है. लाठी बरसाती हुई नजर नहीं आ रही है. अब आप रविवार के इस वीडियो को देखिए. रविवार को जारी पहले वीडियो में पुलिस लाइब्रेरी के भीतर आती है. किनारे की मेज़ पर आप देखिए कि दो पुलिस वाले एक छात्र को ताबड़तोड़ मारने लगते हैं. उसकी बगल वाला छात्र सर बचाने का प्रयास करता है मगर उस पर भी दनादन लाठी चलने लगती है. लाइब्रेरी के भीतर बिना अनुमति के पुलिस प्रवेश करती है और आप देख ही रहे हैं कि किस तरह मारने लगती है. आप यहां जस्टिस अरुण मिश्रा को याद कर सकते हैं कि इस देश में कानून कोई कानून नहीं बचा है. बल्कि यह कह सकते हैं कि क्या इस देश में कानून का यही रूप बच गया है. इस वीडियो में सीआरपीफ के जवान नज़र आ रहे हैं.

जामिया के छात्र इसे प्रथम तल का वीडियो बता रहे हैं. 16 फरवरी रविवार को जब यह वीडियो वायरल हुआ तो पुलिस सूत्रों से एक दूसरा वीडियो सामने आता है. इस वीडियो में आप देख रहे हैं कि बाहर से छात्र दौड़ते हुए भीतर आ रहे हैं. कुछ छात्र बड़ी सी मेज़ खिसका कर दरवाज़े पर लगा रहे हैं ताकि पुलिस भीतर न आ सके. इस वीडियो के ज़रिए पुलिस का कहना था कि जो लोग लाइब्रेरी में घुसे, उसी का पीछा करते हुए जवान भी भीतर घुसे. छात्रों का कहना है कि यह वीडियो दूसरे तल का है.

रविवार को जो पहला वीडियो जारी हुआ था वो प्रथम तल का है. लाइब्रेरी के भीतर घुस रहे छात्रों को प्रदर्शनकारी कहा जा रहा है. उस वक्त कैंपस में बहुत से छात्र थे जो प्रदर्शन का हिस्सा नहीं थे. उन्होंने यही बताया कि वे बाहर मौजूद थे तभी पुलिस लाठियां लेकर आती दिखी और आंसू गैस के गोले चलने लगे. क्या पुलिस के सूत्रों से जारी वीडियो में लाइब्रेरी के अंदर आने वाले नौजवानों को प्रदर्शनकारी कहा जा सकता है? आप देखेंगे कि किसी भी वीडियो में कोई बाहर से चीखता चिल्लाता नहीं आ रहा है, बदहवास भागा नज़र नहीं आ रहा है कि पुलिस आ रही है.

ज़रूर पुलिस के सूत्रों से जारी इस वीडियो में आप देख सकते हैं. काफी देर तक छात्र आराम से बैठे हैं. मोबाइल फोन पर कुछ देख रहे हैं. फिर कुछ और छात्र आ जाते हैं जो मोबाइल पर देखने लगते हैं और आपस में बात करने लगते हैं. इनके हाव भाव काफी हैं बताने के लिए कि ये कहीं से भाग कर नहीं आए हैं. तभी कुछ देर बाद एक छात्र आता है तो शायद छात्रों से कुछ कहता है. फिर बाहर से कुछ छात्र आते हैं और मेज़ को दरवाज़े के पास ले आते हैं और बंद कर देते हैं. लेकिन इस वीडियो से साफ पता चलता है कि लाइब्रेरी में पहले से जो छात्र पढ़ रहे थे उन्हें बाहर की खबर नहीं थी. वे अपनी सीट पर जमे हुए थे. हम पांच मिनट 23 सेकेंड के इस वीडिया का कुछ ही हिस्सा दिखा रहे हैं.

इस वीडियो से पुलिस का दावा पूरी तरह ठोस नहीं लगता है कि वह प्रदर्शनकारियों का पीछा करते हुए लाइब्रेरी गई. जो भी वीडियो सामने आए हैं उनमें साफ-साफ देखा जा सकता है कि लाइब्रेरी में पहले से छात्र मौजूद थे. वहां पढ़ रहे थे. वो बाहर की दुनिया से बेखर निश्चिंत भी थे. जो छात्र बाहर से आए हैं वो प्रदर्शनकारी हैं या कैंपस में मौजूद थे, और लाइब्रेरी की तरफ खुद को बचाने के लिए भागे, यह तभी पता चलेगा जब सारा सीसीटीवी फुटेज आपके सामने होगा. एक वीडियो है जिसमें गेट पर कुछ प्रदर्शनकारी पुलिस की तरफ़ पत्थर चलाते देखे जा सकते हैं.

15 दिसंबर की घटना के बाद बीबीसी की पत्रकार बुशरा शेख ने भी हमसे कहा था कि कुछ छात्रों ने पुलिस पर पत्थर चलाए थे. बुशरा का मोबाइल पुलिस ने छीन लिया था और उनके साथ मारपीट हुई थी.

वैसे पुलिस ने जो आधिकारिक रूप से कहा है वह रूटीन बयान है. उस तरह के दावे नहीं किए जिस तरह से मीडिया के कई हिस्सों में इन छात्रों को दंगाई साबित किया जा रहा है. प्रवीर रंजन क्राइम ब्रांच के विशेष आयुक्त हैं.

प्रवीर रंजन की भाषा मीडिया की भाषा से काफी अलग है. वो न तो अभी सभी छात्रों को दंगाई कह रहे हैं या प्रदर्शनकारी कह रहे हैं या फिर पुलिस का कोई पक्ष रख रहे हैं. यानी रविवार से सूत्रों के हवाले से जारी वीडियो से पुलिस जो कहना चाहती थी उसे अभी दावे से नहीं कह रही है. आप समझ सकते हैं कि वैसे मीडिया का पक्ष क्या है.

गोदी मीडिया तब लाल लाल तीर बनाकर नहीं दिखाता है जब पुलिस मेज़ पर बैठे एक छात्र पर ताबड़ तोड़ लाठी बरसाती है. वह पुलिस पर सवाल नहीं उठाता है कि पुलिस ने ऐसा क्यों किया.

गोदी मीडिया तब ज़रूर तीर बनाता है जब उसे छात्रों के हाथ में पत्थर दिखाना होता है. दिखाना चाहिए लेकिन एक छात्र की तरफ से कहा जा रहा है कि उसके हाथ में पर्स है तो क्या यह बात बताई जा रही है. यह दूसरे तल का वीडियो है जहां बाहर से छात्र आते हुए दिखाई दे रहे हैं.

इस तरह से आप यह भी देख सकते हैं कि आप जब टीवी देखते हैं कि किस तरह से देखना है, यह आप नहीं तय करते हैं, आप कैसे देखेंगे यह कोई और तय करता है. पुलिस का जो आधिकारिक बयान है उसमें यही कहा गया है कि जांच हो रही है. बड़ा सवाल है कि लाइब्रेरी के भीतर पुलिस लाठी चार्ज करती है. क्या उसे करना चाहिए था. वो बगैर अनुमति के लाइब्रेरी के भीतर क्यों गई, क्यों लाठी चार्ज किया. सुशील महापात्रा ने मुस्तफ़ा से बात की. जो उस वक्त लाइब्रेरी में था. मुस्तफा का कहना था एक बार हम फिर से रविवार के पहले वीडियो के जरिए दिखाना चाहते हैं. ताकि आपको पता चले कि जो छात्र पीटे जा रहे थे उनके साथ बाद में क्या हुआ.

अब हम लाल बक्से का इस्तमाल करते हैं ताकि आप देख सकें कि सुदूर कोने में चंद छात्र आराम से बैठे हैं. वहां पर एक पुलिस वाला बाद में जाता है और मारना शुरू करता है. एक छात्र भागता नज़र आता है. लेकिन मुस्तफा का दावा है कि वह वहीं बैठा था. उसने दोनों हाथ ऊपर किए थे लेकिन पुलिस मारती रही. मुस्तफा और मिन्हाजुद्दीन को गंभीर चोटें आई हैं. मुस्तफा का दोनों हाथ टूट गया. एक तो ठीक हो रहा है मगर दूसरा ठीक नहीं हुआ है. मिन्हाज की एक आंख पूरी तरह से खत्म हो गई है. मुस्तफा और मिन्हाज ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर एक करोड़ का हर्जाना मांगा है.

मुस्तफा और मिन्हाज के साथ मुजीब ने भी हाईकोर्ट में अपील की है कि उन्हें हर्जाना मिले. मुजीब का दावा है कि पुलिस की मार के बाद उसके दोनों पांव बेकार हो गए हैं.

मीडिया कब पुलिस का पक्ष लेने लगता है और कब पुलिस को लेकर चुप हो जाता है आप एक अंतर से समझ सकते हैं. जब तीस हज़ारी कोर्ट में डीसीपी मोनिका भारद्वाज के साथ धक्का मुक्की हुई, वहां हिंसा हुई तो मीडिया का वो हिस्सा क्या कर रहा था, आप याद कर सकते हैं. क्या वह उस हिंसा को लेकर चुप था, तीर बनाकर हिंसा करने वालों की पहचान कर रहा था? जवाब आम तौर पर ना में मिलेगा लेकिन जब जामिया के छात्रों की बात आती है तो तुरंत तीर बन जाते हैं, उन्हें दंगाई लिखा जाने लगता है. मीडिया का वो हिस्सा पुलिस को बचाव करने लगता है जिसे मैं गोदी मीडिया कहता हूं. पुलिस से पूछा जा सकता था कि लाइब्रेरी के भीतर लाठी चार्ज क्यों हुआ?

मीडिया आपको छात्रों का प्रोफाइल बता रहा है मगर पुलिस के बारे में नहीं बता रहा. क्या आप ऐसी पुलिस चाहेंगे, अगर दूसरे के लिए चाहेंगे तो इस बात की क्या गारंटी है कि यह पुलिस आपके साथ ऐसा नहीं करेगी. क्या सभी को एक ऐसे सिस्टम की बात नहीं करनी चाहिए जिसमें पुलिस सबके लिए बराबर से काम करे. क्या आप चाहते हैं कि पुलिस बराबर से और कानून से काम नहीं करे? 15 दिसंबर की घटना को दो महीने से अधिक समय हो गए हैं. हम अभी तक सीसीटीवी के वीडियो के टुकड़े टुकड़े लेकर बहस कर रहे हैं.

अगर यह सवाल बड़ा नहीं है तो यह तो बड़ा है ही कि टेलिकॉम मंत्रालय में उस अफसर ने किसके कहने पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी जिससे नाराज़ होकर जस्टिस अरुण मिश्र को कहना पड़ा कि इस देश में लगता है कानून ही नहीं है. देश ही रहने लायक नहीं है. मीडिया ने इस सवाल को छोड़ दिया. बहरहाल शाहीन बाग़ से सरकार बात नहीं कर रही है मगर सुप्रीम कोर्ट बातचीत का रास्ता अपना रही है.

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जिस शाहीन बाग को पाकिस्तानी और आतंकवादी का अड्डा बता कर चुनाव लड़ा गया उसे सुप्रीम कोर्ट लोकतांत्रिक अधिकार के नज़रिए से ही देख रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े और साधना रामचंद्रन को मध्यस्थ नियुक्त किया है ताकि वे शाहीन बाग़ की औरतों से बात करें. जस्टिस संजय किशन कॉल और जस्टिस के एम जोसेफ की बेंच ने कहा है कि विरोध जताना मौलिक अधिकार है. लेकिन इस तरह तो दूसरा वर्ग भी किसी जगह को बंद कर देगा. अगर ऐसा होने लगे तो अराजकता फैल जाएगी. इसलिए बातचीत कर एक हफ्ते में हल निकालने की कोशिश करें. शाहीन बाग़ की दादियों ने भी कहा है कि वे बातचीत करना चाहती हैं. कोर्ट ने यह भी कहा है कि अगर मध्यस्थता से हल नहीं निकलता तो वे मामले को सरकार पर छोड़ देंगे.