संविधान की सर्वोच्चता का हम कितना सम्मान करते हैं?

आस्था के नाम पर 90 के दशक में भारत में जो कुछ भी हुआ अब उसकी फ्रेंचाइज़ी खुल गई है. फ्रेंचाइजी खुलने का मतलब है कि जो बड़ी दुकान है वो चुप रहती है और उसकी शह पर छोटी छोटी दुकानें आए दिन खुलती हैं और संविधान को चुनौती देने लगती हैं.

संविधान की सर्वोच्चता का हम कितना सम्मान करते हैं?

भारत में संविधान सुप्रीम है या जातिगत और धार्मिक संगठन. हर महीने दो महीने के अंतराल पर जाति और धर्म के नाम पर कोई संगठन खड़ा हो जाता है और खुद को संविधान और उससे बने कानूनों से ऊपर घोषित कर देता है. ऐसी संस्थाओं को इस तरह की छूट कैसे मिल जाती है कि जब चाहे संविधान की तमाम धाराओं को नदी में प्रवाहित कर आते हैं और खुद अपने आप को व्यवस्था घोषित कर देते हैं. आस्था के नाम पर 90 के दशक में भारत में जो कुछ भी हुआ अब उसकी फ्रेंचाइज़ी खुल गई है. फ्रेंचाइजी खुलने का मतलब है कि जो बड़ी दुकान है वो चुप रहती है और उसकी शह पर छोटी छोटी दुकानें आए दिन खुलती हैं और संविधान को चुनौती देने लगती हैं. ऐसा नहीं है कि इन संस्थाओं के पास सिर्फ ताकत होती है, समर्थन नहीं होता है. बहुत बार बहुत ज़्यादा समर्थन होता है. तो सवाल उठता है कि ये सामान्य और साधारण लोग भी सामाजिक आन बान शान के नाम पर ऐसे संगठनों के पीछे क्यों खड़े हो जाते हैं, क्या उन्हें संविधान से ज़्यादा ऐसे संगठनों की शरण में जाना सुरक्षित लगता है. आप सोचिएगा.

25 जनवरी की सुबह मोटरसाइकिल पर सवार राजपूत नौजवानों का यह जुलूस देखिए. यह आम तौर पर निकलने वाले जुलूस से अलग है. इस समूह में सिर्फ एक जाति के लोग हैं. आखिर इतने लड़के शून्य से तो नहीं आए हैं. ज़ाहिर है इनके जुलूस को सामाजिक मान्यता भी है यानी मां बाप ने भी कहा होगा कि जा सिमरन जा, अपनी शान के लिए बाइक चला. एक जाति का प्रदर्शन यहीं तक सीमित नहीं है. मुज़फ़्फ़रपुर की एक तस्वीर आपके लिए अनजानी नहीं है. हाथों में तलवार क्यों हैं. क्या आपको लगता है कि ये तलवारें संविधान के सम्मान में निकाली गईं हैं. मुख्यमंत्री लोग कागज़ी आदेश जारी कर रहे हैं कि सख्ती से कार्रवाई करें लेकिन क्या कार्रवाई हो रही है.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि फिल्म रिलीज़ हो लेकिन तब क्या करेंगे जब सिनेमा घर के मालिकों की सुप्रीम कोर्ट के प्रति वफादारी कम है, इन संगठनों के प्रति वफादारी ज़्यादा है. हो सकता है कि सबके लिए वफादारी न हो लेकिन तब आप यह सवाल कर सकते हैं कि क्या इन सिनेमा मालिकों ने इसलिए फिल्म को नहीं चलाया क्योंकि उन्हें उन संस्थाओं में ही भरोसा नहीं है कि जिनका काम संवैधानिक व्यवस्था बनाए रखना है. प्रधानमंत्री ने सात संकल्प लिए थे कि पांच साल में सांप्रदायिकता और जातिवाद मिटा देंगे, सुनने में अच्छा लगा, विज्ञापनों में स्लोगन बना मगर तीन महीने से चल रही इस हिंसक नौटंकी के बारे में प्रधानमंत्री की कोई टिप्प्णी तक नहीं आई है. न ही कोई विपक्ष का नेता साहस जुटा सका है कि इसके ख़िलाफ बोल दे. आज संविधान अकेला खड़ा है. हम कौन सा चेहरा इस संविधान को दिखाएंगे जिसे लागू करने के लिए आज़ादी की लंबी चली लड़ाई में न जाने कितने लोगों ने बलिदान दिया. क्या 26 जनवरी की परेड हमारे लिए लोहा लक्कड़ से बने सामानों के प्रदर्शन की ही परेड है या यह परेड संविधान की मर्यादा के हक में ख़ड़े होने की परेड है.

बहुत पुरानी नहीं है राजस्थान के उदयपुर की तस्वीर. अदालत के प्रवेश द्वार की छत पर भगवा ध्वज लेकर नौजवान चढ़ जाते हैं. गोदी मीडिया ने चुपके से इस तस्वीर को किनारे लगा दिया. अदालतें भी चुप रह गईं. किसी जज को याद नहीं रहा कि संविधान की किताब से चलने वाली इमारत के भीतर धार्मिक ध्वज कैसे आ गया. उसकी छत पर लहराने का दुस्साहस कैसे हुआ. कायदे से इसके लिए ज़िले में तैनात हर तरह के बड़े अधिकारी को नौकरी से बर्खास्त कर देना चाहिए. कोई आपको नहीं बताएगा कि जब इस आरोप में गिरफ्तार लड़के की रिहाई हुई तो उसे उसी तरह शान से वापस ले जाया गया जिस शान से उसने अदालत पर भगवा ध्वज फहराया था.

उसी उदयपुर की यह तस्वीर 25 जनवरी की ही है. फिर से जातिगत ध्वजा लिए ये नौजवान सड़कों पर जमा हैं. क्या वे संविधान की मर्यादा के लिए जमा हुए हैं या जाति की मर्यादा के लिए जमा हुए हैं. एक फिल्म इतने नौजवानों के भीतर जातिगत स्वाभिमान जगा देती है फिर हमारे आपके भीतर कोई संवैधानिक स्वाभिमान भी है, सोया हुआ या आधा जागा हुआ ही सही. ये लोग टू इन वन होते हैं. एक दिन जाति के नाम पर निकलते हैं एक दिन धर्म की रक्षा के नाम पर दादागिरी करने के लिए निकलते हैं.

कब आपके चुने हुए नेता ऐसे वक्त में संविधान के हक में खड़े दिखे. अगर आप खुद को ज़िम्मेदार नागरिक कहते हैं तो वह नागरिकता क्या है, उसकी ज़िम्मेदारी कहां से आती है, क्या संविधान से नहीं आती है. जब आप कहते हैं कि आप भारतीय हैं और इस पर गर्व हैं तो क्या छवि उभरती है, धर्म की, परंपरा की और क्या इन छवियों में संविधान के प्रति गौरव भी शामिल होता है. आपके भीतर कितनी निष्ठाएं हैं, क्या जाति और धर्म की निष्ठाओं के साथ संविधान के प्रति निष्ठा है या है ही नहीं. क्या यह कंफ्यूज़न इसलिए है कि आप अभी तक संविधान को समझ नहीं पाए या फिर बहुत से लोग या संगठन अपने भीतर संविधान और पंरपराओं के नाम पर गुंडई का टकराव सुलझा नहीं पाए हैं.

यह पहली बार तो नहीं है कि फिल्म का विरोध हो रहा है. फिल्म का विरोध इस तरह से सेट अप किया गया है कि एक समुदाय के भीतर पहले जातिगत निष्ठा पैदा हो जाए और फिर उसे मंज़ूरी मिले सांप्रदायिक निष्ठा से. दोनों तरह की निष्ठाएं इसमें काम कर रही हैं. यही निष्ठा है जो चुनाव के समय आपको याद दिलाती है कि वोट सांप्रदायिक निष्ठा के लिए डालना है. क्यों हम बार बार ऐसी निष्ठाओं में, अपना ठिकाना खोजते हैं? इस मुल्क में तीन महीने से फिल्म पदमावत को लेकर बहस चल रही है. पहले इसे गुजरात चुनावों की पृष्ठभूमि में चलाया गया और अब जब नौजवानों के रोज़गार के सवालों का वक्त आ रहा था जो उनके हाथ में मशालें, तलवारें पकड़ा दी गईं. आप दिनों दिन कमज़ोर होते जा रहे हैं. आप जिस भीड़ में हैं उसी भीड़ के शिकार हो रहे हैं. संगठनों के प्रवक्ता तलवार लेकर स्टुडियो की बहस में आए, एक दिन बंदूक लेकर भी आएंगे. यह सेट अप यानी पीछे से सजाया गया मसला न होता तो राज्यों के मुख्यमंत्री चुप नहीं नज़र आते. वे राजपूत जाति के नाम पर बनी सेनाओं के साथ खड़े न होते. मुख्यमंत्री संविधान के साथ खड़ा दिखेगा या किसी जाति की सेना के साथ. 26 जनवरी से एक दिन पहले भारत का लोकतंत्र हार गया है. आपने इस भीड़ को इतनी मंज़ूरी दी है कि वह अब बच्चों से भरी बस पर भी हमला कर सकती है. इस तस्वीर को देखिए कि आपके बच्चे किस भारत में बड़ा हो रहे हैं.

आज की बात नहीं है, आगे की भी बात है, राजनीति में धर्म का इस्तेमाल हो रहा है और धर्म में तलवारों का इस्तेमाल हो रहा है. रामनवमी के अवसर पर रामायण नहीं तलवारों को लेकर जुलूस निकाले जाते हैं. क्या इन संगठनों को संविधान पर भरोसा नहीं है कि उनकी रक्षा करेगा. क्या हमने संविधान को संस्थाओं की इमारतों में ही लागू किया, क्या हम जन जन में इसकी भावना को लागू नहीं कर पाए हैं. क्यों अभी भी फैसले का अधिकार भीड़ के हाथों में है, एक फिल्म के नाम पर सुप्रीम कोर्ट की साख दांव पर लग गई हैं. जिन सिनेमा मालिकों ने फिल्म का प्रदर्शन नहीं किया है क्या उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को ठुकरा नहीं दिया है. संविधान को नहीं ठुकराया है? हम आज कुछ ऐसे ही सवालों पर चर्चा करना चाहते हैं. संविधान क्या है, हमारी नागरिकता क्या है. इस शो का मकसद यह भी है कि लाखों ऐसे छात्र जो अपनी गरीबी के कारण और अमीरी की मौज मस्ती के कारण संविधान तक नहीं पहुंच पाते हैं उन्हें कुछ फायदा हो.


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