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This Article is From Feb 02, 2016

लिंग जांच को लेकर कितना सही है मेनका गांधी का विचार...?

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 02, 2016 16:59 pm IST
    • Published On फ़रवरी 02, 2016 16:24 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 02, 2016 16:59 pm IST
केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी का विचार भले ही उन्होंने निजी तौर पर प्रकट किया है, लेकिन यह देश की वर्तमान परिस्थितियों में कतई ठीक नहीं है। मां के गर्भ में भ्रूण के लिंग की जांच को भ्रूणहत्या रोकने का उपाय बताने वाली श्रीमती गांधी सर्वप्रथम तो एक महिला हैं, इसलिए देश उनसे अपेक्षा करता है कि वह महिलाओं के प्रति संवेदनशील होंगी, और उस पर एक ऐसे विभाग का जिम्मा संभाल रही हैं, जो देश में महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए जिम्मेदार है। ऐसी परिस्थितियों में इस तरह के विचार देश में महिलाओं के हालात को कैसे ठीक कर पाएंगे, सोचना होगा।

जनगणना 2011 के आईने में हम अपने बदरंग चेहरे को देख ही चुके हैं, जिसमें स्त्री-पुरुष के निरंतर कम होते जा रहे लिंगानुपात को हमने देखा। अभी-अभी देश के 13 राज्यों में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नतीजे भी आए हैं और इसमें भी कमोबेश सभी राज्यों में बच्चों के लिंगानुपात में असंतुलन महसूस किया जा रहा है। हैरानी की बात यह है कि एक तरफ हम विकसित हो रहे हैं, और दूसरी और हम लड़कियों के जीने के अधिकार को छीन रहे हैं। श्रीमती गांधी ने भी स्वीकार किया है कि विकसित राज्यों का लिंगानुपात और ज्यादा गंभीर है।

(पढ़ें - कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए लिंग जांच होनी चाहिए : मेनका गांधी)

केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री ने कहा कि लिंग जांच को अनिवार्य कर देना चाहिए, ताकि जिन महिलाओं के गर्भ में लड़की है, उनका ध्यान रखा जा सके और इस तरह कन्या भ्रूणहत्या रोकी जा सकेगी। सवाल यह है कि लड़कियों का ध्यान कौन रखता है। जिस देश में लड़कियों को आज भी बोझ माना जा रहा हो, वहां लड़कियों के पक्ष में माहौल बनाना, उनकी उचित देख-रेख करना और उनको किसी भी लड़के के बराबर के अधिकार देना अब भी बड़ी चुनौती है। केवल खानपान और रहन-सहन में ही नहीं। आप केवल उच्च शिक्षा के लिए लेने वाले लोन के आंकड़े उठाकर देख लीजिए। यह साफ समझ में आ जाएगा कि लड़कियां आज भी उपेक्षित हैं। इसकी शुरुआत जब गर्भ से ही हो जाएगी तो या तो वे बचेंगी ही नहीं, या फिर उनकी बचपन की नींव गर्भ में ही इतनी कमजोर हो जाएगी कि उनका पूरा जीवन इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेगा।

हो सकता है कि समाज का एक वर्ग लड़कियों के लिए सकारात्मक दृष्टि के साथ सोचने लगा हो, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अधिकांशतः ऐसा नहीं है। बल्कि हो तो ऐसा रहा है कि जिन इलाकों में अच्छी शिक्षा है, जो सभ्य माने जाते हैं, या जिन लोगों की नई टेक्नोलॉजी तक पहुंच है, वे पीछे के रास्तों से पता लगाते हैं कि उनकी आने वाली संतान का लिंग क्या है। इसीलिए हम देखते हैं कि शहरों के पॉश इलाकों में इस लिंगानुपात में जर्बदस्त असंतुलन है। देश में साल 2001 में जहां प्रति 1,000 आदमियों पर 927 महिलाएं थीं, वहीं जनगणना 2011 ने हमें बताया कि देश में 10 सालों में प्रति 1,000 पुरुषों पर 919 महिलाएं ही बची हैं। इसका मतलब क्या है।

देश की राजधानी दिल्ली का लिंगानुपात देख लीजिए, 1,000 पुरुषों पर केवल 871 महिलाएं हैं। देश में केवल दो राज्य केरल और पुदुच्चेरी ही ऐसे हैं, जहां लड़कों से ज्यादा लड़कियां हैं। हां, देश के ज्यादातर आदिवासी इलाके जरूर हैं, जो इस अनुपात को तोड़ते हैं। वहां इस तरह की कोई सुविधा नहीं है, कोई तकनीक नहीं है, जिससे मां के गर्भ में लड़का या लड़की का पता लगाया जा सके। और एक पक्ष यह भी है कि ऐसे समाज सामाजिक रूप से लड़कियों के लिए ज्यादा बेहतर माहौल उपलब्ध करते हैं, वहां उनके साथ भेदभाव कम होता है।

मेनका जी ने स्वीकार किया कि "एक बार जांच में यह तय हो जाए कि बच्चा लड़का है या लड़की, उसकी निगरानी रखना आसान हो जाएगा, यह एक अलग नजरिया है। मैंने यह विचार रखे हैं, जिन पर चर्चा की जाएगी..." दूसरी ओर वह कह रही हैं, "गैरकानूनी रूप से अल्ट्रासाउंड करने वाले लोगों को कब तक पकड़ते रहेंगे, ऐसे लोगों को गिरफ्तार करना इस समस्या का स्थायी हल नहीं है..." उनके विचार को लागू करने का दूसरा तरीका क्या होगा, उसके पीछे उनकी विस्तृत योजना क्या है, इसका अभी खुलासा नहीं हुआ है, लेकिन लिंग जांच को रजिस्टर करने का भी तो कोई सिस्टम बनाना ही होगा। इस बात की क्या गारंटी होगी कि लिंग जांच के बाद बच्चे को बचाया ही जाएगा। अभी हम देखते हैं, प्रसव पूर्व लिंग की जांच का बाकायदा कानून होने के बावजूद स्वास्थ्य संस्थाएं निजी हितों के लिए इसकी धज्जियां उड़ाती हैं।

यह सही है कि विकसित राज्यों में अविकसित राज्यों के मुकाबले बाल लिंगानुपात का गिरता स्तर बड़ी समस्या है, लेकिन इसे सुधारने का रास्ता इस गली से होकर नहीं जाता है। सोचना यह चाहिए कि हमारे समाज में लड़कियों को मारे जाने की सबसे बड़ी वजह क्या है। सोचना यह भी होगा कि महिलाओं की स्थिति को बेहतर करने की जिम्मेदारी केवल एक विभाग की नहीं। जब तक देश में लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ अपराध के आंकड़े दुरुस्त नहीं होंगे, जब तक उनका स्वास्थ्य बेहतर नहीं होगा, जब तक उनकी शिक्षा बेहतर नहीं होगी, ऐसी परिस्थितियां बनी ही रहेंगी। न तो इसे कोई जादुई तकनीक ठीक कर सकेगी, न कोई कानून।

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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