भूराजनीतिक समीकरणों में बीते कुछ महीनों में व्यापक परिवर्तन देखा गया है. इससे भारत में चर्चाओं और आत्ममंथन का दौर शुरू हो गया है. एक ओर ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत की पाकिस्तान के साथ बढ़ी हुई अदावत का एक नया अध्याय शुरू हुआ है. वहीं दूसरी ओर भारत की सामरिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy) और बहु-संरेखण (Multi Alignment) की नीति को भी भारी दबाव का सामना करना पड़ा है. इन सबके केंद्र में कहीं न कहीं अमरीका द्वारा भारत पर मनमाने तरीके से लगाए गए टैरिफ के कारण संबंधों में आई कड़वाहट और अमरीका और पाकिस्तान के बीच बढ़ती नजदीकी सबसे महत्वपूर्ण है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारती के विदेश नीतिकारों के लिए यह समय अप्रत्याशित रूप से चुनौती भरा है. इसमें परंपरागत धारणाओं से नीति निर्माण और नीति क्रियान्वयन, दोनों ही लाभकारी नहीं होने वाला है. यह विदेश नीति के आत्म-विश्लेषण, उसमें नई संभावनाएं तलाशने और नवाचार लाने का भी उपर्युक्त समय है.
अमेरिका-पाकिस्तान की निकटता
कुछ दिन पहले पाकिस्तान के फील्ड मार्शल असिम मुनीर 'ऑपरेशन सिन्दूर' में भारत से मुंह की खाने के बाद दूसरी बार अमरीका गए थे. वहां उन्होंने अप्रवासी पाकिस्तानियों के सामने जिस तरह भारत पर परमाणु हमले की धमकी दी, उसने भारत में पाकिस्तान के साथ-साथ अमरीका के प्रति भी एक प्रकार की नकारात्मकता के भाव को जन्म दिया.राष्ट्रपति ट्रंप और उनकी टीम ने टैरिफ और पाकिस्तान से नजदीकी पर जैसा रुख अपनाया है, उससे भारत-अमरीका के रिश्तों में परस्पर अविश्वास और असंतोष की भावना में अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है. यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि शीत युद्ध के बाद जिस तरह से विश्व के सबसे पुराने और सबसे विशाल लोकतांत्रिक देश साझा मूल्यों और साझा समझ के कारण एक-दूसरे के निकट आए थे,आज वो मूल्य और समझ कमजोर होते नजर आ रहे हैं.
सनद रहे की 1998 में भारत द्वारा परमाणु परिक्षण किए जाने के बाद अमरीका के तत्कालीन बिल क्लिंटन शासन ने भारत पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी थीं. लेकिन उसी क्लिंटन शासन में भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी बनाने को लेकर सहमति भी बनी. राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने मार्च 2000 में भारत का दौरा किया. यह उस समय 22 सालों में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की पहली भारत यात्रा थी (उनसे पहले जनवरी 1978 में जिमी कार्टर भारत आए थे). इस यात्रा का उद्देश्य संबंधों को पुनः स्थापित करना, भारत के बढ़ते आर्थिक और सामरिक महत्व को मान्यता देना और परमाणु अप्रसार, आतंकवाद और व्यापार जैसे मुद्दों पर बातचीत को बढ़ावा देना था. 21वीं सदी के पहले वर्ष में हुई इस यात्रा के दौरान अमेरिका और भारत ने एक ऐतिहासिक '21वीं सदी के लिए विजन' वक्तव्य पर हस्ताक्षर किए. इसमें लोकतंत्र, आर्थिक विकास और जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद जैसी वैश्विक चुनौतियों पर केंद्रित एक रणनीतिक साझेदारी की रूपरेखा पेश की गई थी.

अपने पहले कार्यकाल में भारत के पक्ष में नरम रुख रखने वाले डोनाल्ड ट्रंप दूसरे कार्यकाल में आक्रामक हो गए हैं.
कैसे आगे बढ़े भारत-अमेरिका संबंध
उसके बाद के सभी अमरीकी सरकारों चाहें वो रिपब्लिकन पार्टी की हों या डेमोक्रेटिक पार्टी की, सबने भारत के साथ संबंधों को मजबूत बनाने को न केवल प्राथमिकता दी, बल्कि उसके लिए व्यापक कदम भी उठाए. वहीं भारत में भी आम जनता के साथ-साथ दोनों प्रमुख गठबन्धनों एनडीए और यूपीए ने अमरीका के साथ अच्छे रिश्ते बनाने को भारतीय हितों के अनुकूल माना. इस वजह से दोनों देश आर्थिक, सामरिक, प्रोद्यौगिक मोर्चों पर एक-दूसरे का साथ देते नजर आए. एक ओर जहां अमरीका चीन को घेरने और अपनी इंडो-पैसिफिक नीति की सफलता के लिए भारत जैसी एक क्षेत्रीय महाशक्ति का साथ जरूरी था. वहीं भारत के लिए भी अमरीका के करीब जाने से आर्थिक, सामरिक और सैन्य मोर्चों पर लाभ मिलना निश्चित था. छोटे-मोटे उतार चढ़ाव के बावजूद 2000 से एक बार फिर शुरू हुई यह साझेदारी करीब ढाई दशक तक काफी अच्छे से चली. इसमें डोनाल्ड ट्रंप का पहला कार्यकाल भी शामिल था. इस दौरान दोनों देशों में कई उल्लेखनीय समझौते भी हुए, जिनके कई दूरगामी परिणाम थे. जहां एक ओर 2008 का असैन्य परमाणु समझौता भारत के परमाणु अलगाव को समाप्त कर वैश्विक मान्यता दिलाने वाला था, वहीं 2016 में हुए लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA) ने दोनों देशों के बीच सैन्य सहयोग को बढ़ाया. इसके साथ-साथ 2023 में iCET पहल ने प्रौद्योगिकी सहयोग को बढ़ावा दिया. साल 2024 में सप्लाई सिक्योरिटी एग्रीमेंट (SOSA) पर हस्ताक्षर हुए, जो दोनों देशों को राष्ट्रीय सुरक्षा को बढ़ावा देने वाली वस्तुओं और सेवाओं के लिए पारस्परिक प्राथमिकता समर्थन प्रदान करने की अनुमति देता है.
डोनाल्ड ट्रंप ने अपने दूसरे कार्यकाल में अंदाज काफी बदल चुका है. अपने पहले कार्यकाल में पाकिस्तान के प्रति उनके विचार अत्यधिक आलोचनात्मक थे. उन्होंने पाकिस्तान पर आतंकवादियों को पनाह देने का आरोप लगाते हुए पाकिस्तान को अमरीका से मिलने वाली डॉलर की सैन्य सहायता को निलंबित कर दिया था. इससे दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण हो गए थे. इसके विपरीत अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रंप का रुख अधिक सकारात्मक और मैत्रीपूर्ण हो गया है.उन्होंने पाकिस्तान के सेना प्रमुख असिम मुनीर की लंच के लिए मेज़बानी की, बल्कि वैश्विक आतंकवाद के सबसे बड़े पोषक, समर्थक आतंक को अपनी राज्य-नीति की तरह प्रयोग करने वाले देश पाकिस्तान के साथ अमरीका की आतंकवाद विरोधी साझेदारी को "शानदार" बताया. उन्होंने 'ऑपरेशन सिन्दूर' के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच हुए संघर्ष विराम का झूठा श्रेय लेने की भी कई बार असफल कोशिश की. इसका खंडन भारत कई बार अधिकारिक रूप से कर चुका है. ट्रंप के पाकिस्तान के करीब आने के पीछे उनके निजी आर्थिक हित, विशेष रूप से उनके परिवार के क्रिप्टो व्यवसाय से जुड़े होने की अटकलों ने जोर पकड़ा है. जानकारों का मानना है कि ट्रंप का पाकिस्तान के प्रति सकारात्मक रुख क्षेत्रीय स्थिरता या चीन के खिलाफ रणनीति से ज्यादा उनके व्यापारिक हितों से प्रेरित हो सकता है. कई अखबारों में यह लिखा गया है कि पाकिस्तान सरकार ने 17 हजार करोड़ रुपए के क्रिप्टो बिजनेस का ट्रंप परिवार के स्वामित्व वाली वर्ल्ड लिबर्टी काउंसिल के साथ टेकओवर करार किया है.ऐसे में भारत के प्रति उनकी आक्रामकता और उनके भारत विरोधी बयान जैसे भारत को रूस से तेल खरीदने के कारण यूक्रेन युद्ध के लिए अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार ठहराना,ब्रिक्स को खत्म करने की धमकी देना, भारतीय अर्थव्यवस्था को मृत घोषित करना आदि भारत के लिए कई समस्याओं को खड़ा करता है.
अपनी सामरिक स्वायत्तता की सुरक्षा करता भारत
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की 'अमेरिका फर्स्ट' नीति पर केंद्रित आर्थिक राष्ट्रवाद के तहत अमेरिका की बढ़ती अनिश्चितता के साथ, इस कदम ने एक स्पष्ट संदेश दिया है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों के विस्तार के लिए अमरीका पर उस तरह से निर्भर नहीं हो सकता जिस तरह से वो बीते कुछ सालों से हो गया था. पिछले दो दशक से नई दिल्ली में यह विचार आम समझ बन गया था कि साझे हितों, साझी जरूरतों और साझी मान्यताओं के कारण अमरीका भारत का नैसर्गिक मित्र बन चुका है. अब दोनों देश अपनी विदेश नीति में एक दूसरे की संवेदनशीलताओं का ध्यान रखेंगे. लेकिन मौजूदा हालात ने यह साबित कर दिया है कि आत्मनिर्भर बनने की आकांक्षा रखने वाले देश के लिए अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में विविधता लाना अब एक विकल्प नहीं, बल्कि जरूरत बन गया है. इसके लिए भारत व्यापक कदम उठा रहा है.
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने कुछ दिन पहले ही मास्को में रूस की सुरक्षा परिषद के सचिव सर्गेई शोइगु से मुलाकात की है.वहीं हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद पुतिन से फोन पर बात की. इससे भारत और रूस के संबंधों के अनवरत और मजबूत होने का संकेत मिला है. विदेश मंत्री डॉक्टर जयशंकर की मॉस्को यात्रा (19-21 अगस्त) अपने समकक्ष सर्गेई लावरोव से मिल कर रूस-भारत वार्षिक शिखर सम्मेलन की तैयारी संबंधी विचार-विमर्श का एक हिस्सा है. इसमें राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के इस साल के अंत में भाग लेने की उम्मीद है.

दुनिया में जारी-उथल-पुथल के बीच भारत स्ट्रेटेजिक ऑटोनोमी), मल्टी एलाइनमेंट और डी-हाइफनेशन की नीति पर आगे बढ़ रहा है.
रूस-भारत-चीन का त्रिकोण
वहीं चीनी विदेश मंत्री वांग यी की भारत यात्रा का समय भी उल्लेखनीय है. यह प्रधानमंत्री मोदी की तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन के लिए चीन की अपेक्षित यात्रा से पहले हो रही है. इस तरह की एक हाई-प्रोफाइल बैठक से पहले नई दिल्ली द्वारा विदेश मंत्री स्तर पर चीन से बातचीत करना,माहौल बनाने, सीमा रेखाएं खींचने और संभावित समझौतों की तलाश करने के एक सुविचारित दृष्टिकोण को दर्शाता है.कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिक्स के एक अन्य संस्थापक देश ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डा सिल्वा से अंतरराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्य को लेकर चर्चा की थी.
अमरीका के बदले हुए रुख से भारत को कुछ समस्याएं अवश्य आ रही हैं, लेकिन भारत के लिए अपनी विदेश नीति के सिद्धांतों को फिर से परिभाषित करना कोई नई बात नहीं है. 1947 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मिली स्वतंत्रता के बाद से ही पंडित नेहरू के नेतृत्व में भारत ने दो ध्रुवों में बंटी दुनिया में विकासशील देशों को साथ लेकर गुट-निरपेक्ष आंदोलन खड़ा किया. इससे भारत की संप्रभुता और स्वायत्ता अनवरत जारी रही. उसके बाद की सरकारों ने भी इस नीति को अपने-अपने हिसाब से जारी रखा. इससे न केवल भारत रूस के करीब जा कर उससे अपने राष्ट्रीय हित सुरक्षित कर पाया, बल्कि उसे विकासशील देशों, जिन्हें ग्लोबल साउथ की संज्ञा दी जाती है, का नेतृत्व करने का अवसर भी मिला. मौजूदा दौर में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत गुटनिरपेक्ष के बजाए सामरिक स्वायत्ता (स्ट्रेटेजिक ऑटोनोमी), बहु-संरेखण (मल्टी एलाइनमेंट) और डी-हाइफनेशन की नीति के सहारे आगे बढ़ रहा है, जो यह सुनिश्चित करता है कि एक देश के साथ रिश्ते में मजबूती दूसरे देश से संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव नहीं डालती है. मोदी के प्रयासों से ही भारत 2023 में अफ्रीकन यूनियन को जी20 की सदस्यता दिलाने में कामयाब रहा था. ऐसे में भारत को बिना किसी दखलंदाजी या दबाव के अपनी इन नीतियों के साथ ही आगे बढ़ना चाहिए. सामरिक उथल-पुथल के युग में भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को और मजबूत करना होगा. भारत को एआई, ड्रोन, बायोइंजीनियरिंग जैसी अग्रिम तकनीकों में अधिक निवेश करके इनमें महारत हासिल करनी होगी ताकि अन्य देश खुद ही भारत के साथ मजबूती से जुड़ना चाहें. भारत के लिए संभावनाओं और चुनौतियों दोनों के रास्ते खुले हैं. उसको यह निर्णय लेना होगा की वह कौन सी रह चुनता है.
अस्वीकरण: डॉ. पवन चौरसिया,इंडिया फाउंडेशन में रिसर्च फेलों के तौर पर काम करते हैं और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति पर लगातार लिखते रहते हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.