अगस्त का महीना महात्मा गांधी के जीवन और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है. आठ अगस्त, 1942 को गांधीजी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था. 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली, लेकिन गांधीजी इस जश्न में शामिल नहीं हुए क्योंकि उनका ध्यान सांप्रदायिक हिंसा को रोकने और शांति स्थापित करने पर था. 1920 में यही अगस्त का महीना था, जब इस देश ने महात्मा गांधी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन को शुरू होते और स्वतंत्रता के लिए पहला जनांदोलन बनते देखा. ऐसे में अगस्त में गांधी जी बहुत याद आते हैं. गांधी जी मतलब बिहार के 'गान्ही बाबा'. जी हां, बिहार में गांधी जी,'गान्ही बाबा'के नाम से ही लोकप्रिय थे. गांधी जी का बिहार से और यहां के लोग से विशेष नाता था. यह भी कहा जाता है कि भोजपुरिया लोग ही गांधी जी को महात्मा के नाम से बुलाना शुरू किए. यह बात सर्वविदित है कि गांधी जी ने सत्य के साथ पहला प्रयोग बिहार से ही शुरू किया और जनता-जनार्दन का बड़े स्तर पर जुटान भी बिहार से ही चालू हुआ. कहने का मतलब है कि बिहार गांधी जी का भारत में पहला कर्मक्षेत्र बना.
क्या करने चंपारण गए थे महात्मा गांधी
साल 1917 का चंपारण सत्याग्रह महात्मा गांधी द्वारा भारत में किया गया पहला सत्याग्रह आंदोलन था. यह बिहार के चंपारण जिले में नील की खेती करने वाले किसानों के शोषण के खिलाफ था. किसान ब्रिटिश बागान मालिकों द्वारा 'तिनकठिया' प्रणाली के तहत जबरन नील की खेती करने के लिए मजबूर किए जा रहे थे. इससे उन्हें बहुत कम या कोई मुआवजा नहीं मिल रहा था. गांधीजी ने इस अन्याय के खिलाफ लड़ने का फैसला किया. वो 10 अप्रैल, 1917 को चंपारण पहुंचे. गांधीजी ने सत्याग्रह के माध्यम से किसानों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी. सत्याग्रह, जिसका अर्थ है 'सत्य के लिए आग्रह करना', एक अहिंसक प्रतिरोध का रूप है. गांधीजी ने किसानों को संगठित किया, ब्रिटिश अधिकारियों के साथ बातचीत की और जनता को शिक्षित किया.
चंपारण सत्याग्रह के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सरकार ने किसानों को राहत देने के लिए झुकने और कई मांगों को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस आंदोलन ने न केवल किसानों के जीवन में सुधार किया, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ भी साबित हुआ. यह गांधीजी के नेतृत्व में भारत में पहला सविनय अवज्ञा आंदोलन था.
मोहनदास और महात्मा
गांधी जी के इस सफल आंदोलन की चहुंओर चर्चा होने लगी. चंपारण का भितिहरवा आश्रम मोहनदास को महात्मा बनाने की प्रक्रिया में लग गया. इतना ही नहीं, गांधी जी भोजपुरिया लोग के मन-प्राण में ऐसे रचे-बसे कि लोग उन पर कविता बनाने लगे, गीत रचने लगे और वह शादी-ब्याह में गाए जाने लगे-
गांधी बाबा दुलहा बनलें, नेहरू बनलें सहबलिया
भारतवासी बनलें बाराती, लंदन के नगरिया ना
बान्हि के खद्दर के पगड़िया, गांधी ससुररिया चलले ना
जब गांधी जी की हत्या हुई तो पूरा भोजपुरी समाज बउरा गया. सबके मुंह पर गोडसे के लिए श्राप, गुस्सा और गालियां थीं. रसूल मियां के एक गीत में गांधी जी के लिए अपनापन और दर्द दोनों साफ झलक रहा है-
के हमरा गांधी जी के गोली मारल हो, धमाधम तीन गो
जरा, गीत की भाषा देखिए- के हमरा गांधी जी के. ..इस 'हमरा' पर गौर फरमाइए. यही गांधी जी का भोजपुरी कनेक्शन है. उस गांधी जी का, जो अंग्रेजों से दहेज में सुराज मांग रहे हैं -
गांधी बाबा दूल्हा बने हैं
दुल्हन बनी सरकार
चरखवा चालू रहे.
वीर जवाहर बने सहबाला
इर्विन बने नेवतार
चरखवा चालू रहे.
वालंटियर सब बने बराती
जेलर बने बाजदार
चरखवा चालू रहे.
दुलहा गांधी जेवन बैठे
दहेज में मांगे सुराज
चरखवा चालू रहे.
लोग गांधीजी की बात मानते थे और विदेशी कपड़ों को उतार फेंकने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. लोकगीत की इन पक्तियों में लोकमानस की यह धारणा बखूबी चित्रित हुई है -
मानऽ गांधी के बचनवा,
दुखवा हो जइहें सपनवा
तन से उतारऽ कपड़ा विदेसी,
खद्दर के कइ ल धरनवा.
एक विवाह गीत में गांधीजी और अन्य नेताओं के इंग्लैंड यात्रा को ससुराल की यात्रा बताते हुए राष्ट्रीयता की भावना को प्रकट किया गया है-
बान्हि के खद्दर के पगरिया,
गांधी ससुररिया चलले ना
गांधी बाबा दुलहा बनले,
नेहरू बनले सहबलिया,
भारतवासी बनले बराती,
लंदन के नगरिया ना
गांधी ससुररिया चलले ना
नौ अगस्त,1942 अपने देश के लिए एक ऐतिहासिक दिन है. इसी दिन भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई. पूरा देश अंग्रेजों को भगाने के लिए तैयार हो गया-
गांधी के आइल जमाना,
बलम अब रउओ चलीं जेलखाना
अब ना सहब हम जुलमिया
बलम हमहूं जायब भले जेलखाना
फिरंगिया भइल दुश्मनवा
बलम अब रउओ चलीं जेलखाना
फुटलि किरनिया पुरुब असमनवा अब ना रूकी संग्रमवा
बलम अब रउओ चलीं जेलखाना
गांधी के आइल जमाना
बलम अब रउओं चलीं जेलखाना.
सन् 1942 के आंदोलन के समय जनकवि रामदेव द्विवेदी अलमस्त जी का एक गीत आंदोलन में हर जगह गाया गया-
तोरा घरवा में पइसल बाटे चोर
अंजोर क के देख भइया ना
अलमस्त जी का गीत अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार नीति की परत खोल रहा है -
इहवां गांधी बाबा अइलें
हमनी के आशा दे गइलें.
मिटी गरीबी,हालत सुधरी
आपन राज मुलुक में भइलें.
चेरी ना भइली रानी, अबकी एहू राजे पाटे
चल रे बैला धीरे-धीरे
गांधी की शहादत पर भी भोजपुरिया इलाका कराह उठा था. इस भाव को लोकगीतों में देखा जा सकता है -
बापू के सुरतिया
नाहीं भुले दिनवा-रतिया,
जियरा पागल भइलें ना
नाचे अंखिया के समनवा
जियरा पागल भइलें ना..
रसूल मियां का गीत किसे नहीं याद होगा -
छोड़ द बलमुआ जमींदारी परथा
सइयां बोवऽ ना कपास, हम चलाइब चरखा
इसी तरह भोजपुरी साहित्य में भी गांधी बाबा पर रचनाएं होने लगीं. अनेक कविताएं गांधी जी को केंद्र में रखकर रची गईं. गद्य साहित्य में भी उन पर खूब लिखा गया. उन पर लिखे भोजपुरी साहित्य को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि भोजपुरी भाषी जनमानस में गांधी एक अवतारी, चमत्कारी और क्रांतिकारी लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं.
कलक्टर सिंह 'केसरी' ने 'बापू' शीर्षक कविता में साफ-साफ लिखा है -
कइसे मानीं हम जोत चान सुरुज के उतरल माटी में.
कइसे मानीं भगवान समा गइलन मानुस के काठी में.
हम समझत बानी मौत खेल ह, एगो आंख मिचौनी सन.
बापू रहलन इंसान, बात ई लागत बा अनहोनी सन.
'एगो रहलें गांधी' कविता में कुबेरनाथ मिश्र 'विचित्र' जी गांधी जी के जीवन चरित को कम से कम शब्दों में कितनी खूबसूरती से समेटते हैं -
एगो रहलें गांधी / चलवलें एगो आंधी
सुराज गान गवलें / देश के जगवलें
सभे लोगवा जागल / अंग्रेज इहां से भागल
सन रहे सैंतालिस / आइल अड़तालिस
नाथू हतियारा / तीनि गोली मारा
राम नाम गवलें / स्वर्ग लोक पवलें
बापू के कहानी / ईयाद बा जबानी
जब गांधी जी को अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया और आंदोलन की अगुआई में उनकी ही जरूरत थी तब हरिहर सिंह भारतीय जनमानस को जगाते हुए अपने गीत में जनता का आह्वान करते हैं -
चलु भइया चलु आजु सभे जन हिलिमिलि
सूतल जे भारत के भाई के जगाईं जा
गांधी जइसन जोगी भइया जेहल में पड़ल बाटे
मिलि जुलि चलु आजु गांधी के छोड़ाईं जा
दुनिया में केकर जोर गांधी के जेहल राखे
तीस कोटि चलु अगिया लगाईं जा
गांधी के चरनवा के मनवा में ध्यान धरीं
असहयोग चलु आजु सफल बनाईं जा.
और भी कई भोजपुरी साहित्यकारों ने गांधी बाबा के नायकत्व और जीवन चरित्र पर खूब-खूब लिखा है. आने वाले समय में भी गांधी पर भोजपुरी में लेखन जारी रहेगा.गांधी बाबा के त्याग और देश के प्रति उनके समर्पण की गाथा युग-युगांतर तक साहित्य और लोक में जीवित रहेगी.
अस्वीकरण: लेखक मनोज भावुक भोजपुरी साहित्य-सिनेमा के जानकार हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.