प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हमेशा कहते हैं कि अगला दशक उत्तराखंड का होगा. किसी भी राज्य के आगे बढ़ने के लिए उसकी महिलाओं का आगे होना बेहद जरूरी है. बन्द हो चुके महिला समाख्या कार्यक्रम ने जमीनी स्तर पर उत्तराखंड की महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए जो भी कार्य किए थे, उनका असर आज भी देखा जा सकता है. अगला दशक उत्तराखंड का बनाने के लिए महिला समाख्या कार्यक्रम फिर से शुरू किए जाने पर विचार करना जरूरी है.
प्रीति थपलियाल और चंद्रा भंडारी को साल 2024 की अस्कोट आराकोट यात्रा के दौरान मैंने महरगांव में महिलाओं से उनके घर के अहम निर्णयों में भागीदारी जैसे बेहद जरूरी सवाल पूछते देखा था. प्रीति थपलियाल और चंद्रा भंडारी महिला समाख्या प्रोग्राम में डिस्ट्रिक्ट प्रोग्राम कॉर्डिनेटर रहीं. अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रीति थपलियाल से महिला समाख्या प्रोग्राम के बारे में विस्तार से बातचीत हुई.
क्या था महिला समाख्या कार्यक्रम?
महिला समाख्या कार्यक्रम के बारे में बात करते प्रीति थपलियाल कहती हैं, रूढ़िवादिता की वजह से उत्तराखंड की महिलाओं को घर की चारदीवारी से बाहर नहीं भेजा जाता था, यह उत्तराखंड में आज भी कई जगह जारी है.
साक्षरता के अतिरिक्त जीवन यापन के लिए महिलाओं को जीवन कौशल की व्यापक शिक्षा, आत्मविश्वास, विश्लेषण करने की समझ देने के लिए विशेष कार्यक्रम की आवश्यकता महसूस किए जाने के बाद केंद्र सरकार के मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के अंतर्गत शिक्षा विभाग ने साल 1988 में महिला समाख्या कार्यक्रम प्रारंभ किया था. यह महिला सशक्तिकरण का जमीनी कार्यक्रम था. साल 1990 में इस कार्यक्रम हेतु अविभाजित उत्तर प्रदेश के टिहरी जिले का भी चयन किया गया था. इसके बाद 1995 में जिला पौढ़ी और फिर 1996 में जिला नैनीताल का चयन भी इस कार्यक्रम के लिए किया गया. साल 2000 में उत्तराखंड बनने के बाद पहाड़ों में घास का भारी भरकम बोझ ढोने वाली महिलाओं का घर के निर्णय लेने में कोई योगदान नहीं रहता था, इस वजह से साल 2004 में उत्तरकाशी, चंपावत और उधम सिंह नगर जिलों में भी इस कार्यक्रम को शुरू किया गया.
इस कार्यक्रम से उत्तराखंड की महिलाओं ने जाना कि महिलाओं की सामाजिक स्थिति को बदलने के लिए शिक्षा बेहद महत्वपूर्ण है. गांव से इसका ढांचा 'सहयोगिनी' से शुरू होता था, वह दस गांवों की कॉर्डिनेटर होती थी. सौ गांवों और दस कार्यकर्ता होते थे.
महिला समाख्या से साक्षर महिलाएं आज आंगनबाड़ी, आशा कार्यकर्ता
महिला समाख्या कार्यक्रम पर प्रीति आगे कहती हैं महिला समाख्या की तरफ से इन जिलों में साक्षरता शिविर लगाए जाते थे, जिसके लिए अलग से पाठ्यक्रम भी डिज़ाइन किया गया था. कई महिलाओं को महिला समाख्या ने ओपन स्कूल से परीक्षा दिलवाई, आज इनमें से बहुत सी महिलाएं आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और आशा कार्यकर्ता हैं.
उत्तराखंड में महिला समाख्या ने स्कूल छोड़ चुकी हज़ार से ऊपर लड़कियों को फिर से शिक्षा से जोड़ा था और इसके सदस्यों द्वारा महिलाओं पर हो रहे यौन अपराधों पर सर्वेक्षण भी किया गया था.
संजीवनी केंद्र और अपनी अदालत थे महिला समाख्या द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्य
प्रीति ने आगे बताया कि महिला समाख्या द्वारा साल 2004 में जड़ी बूटी ज्ञानी महिलाओं की खोज की गई. इन महिलाओं के सहयोग से ग्राम, क्लस्टर और विकासखंड स्तर पर संजीवनी केंद्र खोले गए. इससे ज्ञानी महिलाओं के पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण भी हुआ, यह अंधविश्वास भी दूर हुआ कि जड़ी बूटी से जुड़ा ज्ञान बांटने से ज्ञानी महिलाओं का ज्ञान समाप्त हो जाएगा. पौढ़ी के संजीवनी केंद्र को जड़ी बूटी शोध संस्थान ने देहरादून में पुरस्कार भी दिया था. इसके साथ ही महिलाओं द्वारा 'अपनी अदालत' भी शुरू की गई, जहां महिलाएं पारिवारिक और सामाजिक मुद्दे सुलझती थीं.
जब महिला समाख्या ने टैक्सी का किराया कम करवा दिया
प्रीति बताती हैं कि महिला समाख्या के सदस्य महिलाओं का हर मुद्दे में साथ देते थे. साल 1997 में बेतालघाट में राशन कार्ड बनाने के लिए महिलाओं से पैसे लिए जा रहे थे. टैक्सी ड्राइवर भी कहीं आने-जाने का महिलाओं से मनमाना किराया लेते थे. इन सब के लिए हमने महिलाओं को जागरूक किया कि राशन कार्ड बनाने के कोई पैसे नहीं लगते और टैक्सी का किराया भी फिक्स होना चाहिए. इसके बाद महिलाएं इन लोगों के खिलाफ विरोध में बैठी और यह सब ठीक हुआ. प्रीति आगे कहती हैं साल 2016 में हमारे पास इस प्रोग्राम को बन्द होने की चिट्ठी आई, सरकार के इस फैसले का काफी विरोध भी किया गया था. प्रोग्राम बन्द होने के बाद लगभग 350 लोग बेरोजगार हो गए थे.
प्रीति साल 2024 की अस्कोट आराकोट यात्रा के अनुभवों से कहती हैं कि अभी भी उत्तराखंड में महिलाओं की स्थिति ज्यादा बदली नहीं है, घरेलू हिंसा या अपनी कोई भी बात कहने के लिए अब उनके पास कोई सही मंच नहीं है. महिलाओं की सोच में बदलाव के लिए महिला समाख्या की आवश्यकता आज भी है.
महिला समाख्या कार्यक्रम का नतीजा हैं 'गंगा'
महिला समाख्या ने कई महिलाओं का जीवन बदला, जिस पर 'ना मैं बिरवा, ना मैं चिरिया' नाम से किताब भी प्रकाशित हुई थी. गंगा देवी भी इन महिलाओं में से एक हैं.

गंगा देवी का जन्म साल 1947 में यमकेश्वर ब्लॉक के जामल गांव में हुआ था. पिता की जल्दी मृत्यु के बाद गंगा की मां ने लोगों के घर में खेती का काम कर अपने बच्चों को पाला. गंगा कहती हैं उस समय लोग बोलते थे कि लड़कियों ने पढ़कर क्या करना है, उन्हें तो घास ही काटनी है. फिर भी मुझे पढ़ने का शौक था, मैं पेशाब करने या किसी और बहाने से घर से बाहर आकर बिना कंघी किए स्कूल भाग जाती थी और वापस आने पर मां और दीदी मुझे यह कहते पीटते थे कि तू स्कूल जाती है, लोग क्या कहेंगे? इनके घर में खाने तक को नहीं है और लड़की स्कूल पढ़ती है. मैं फिर भी चोरी छिपे स्कूल जाती रही, स्कूल के टीचर मेरी पढ़ाई में कॉपी देकर मदद करते थे. इस तरह मैंने पांचवी क्लास पढ़ ली.
इसके कुछ साल बाद गांव में कुछ लोग आए जो पांचवी कक्षा तक पढ़े को ढूंढ रहे थे और मैं उनसे मिलकर प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र में पढ़ाने लगी. तीन साल मैंने प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र में पढ़ाया और शादी के लिए मैंने वहां से अवकाश लिया था. शादी के बाद मैं खेती में रम गई.
पति की छोड़ी हुई होंगी महिला समाख्या की महिलाएं
आगे बात करते गंगा देवी कहती हैं साल 1997 में महिला समाख्या से जुड़ी महिलाएं हमारे गांव सार में आईं. तब हमने उन्हें बेघर औरतें सोच कर उनकी बातों को नकार दिया. हम कहते थे कि ये औरतें अपना घर छोड़कर यहां घूम रहीं हैं, इनको इनके पतियों ने छोड़ रखा है, जो ये ऐसे गांव-गांव घूम रही हैं. वे हर महीने हमारे घर आती रहीं और जब वो लोग बार-बार हमें अच्छी बातों का ज्ञान देते रहे तो हम उनकी बातें सुनने लगे. हम चारदीवारी के अंदर बन्द रहने वाले संस्कारों से बाहर आने लगे, उनके साथ रहते हम फ्रैंक बन गए और इसके बाद हमने अपनी बेटी, बहुओं को भी पढ़ने भेजा.
इस बीच ही महिला समाख्या के कहने पर मैं ग्राम प्रधान बनीं, महिला समाख्या की गीता गैरोला, प्रमिला रावत, प्रीति थपलियाल के कहने पर मैंने ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ा था. पानी, सड़क के मुद्दों को लेकर हमने अपने गांव में काम किया.
जब पुरुषों से कहा हमने तुम्हें पैदा किया
महिला समाख्या से मिली हिम्मत पर बात करते गंगा देवी कहती हैं जलागम से गांव में मैंने ठेका लिया, तब कोई भी महिला ग्राम प्रधान ठेका नहीं लेती थी. गांव के पुरुष हमारे पास आए कि एक महिला होकर आपने ये ठेका ले लिया, अब हम क्या करेंगे. तब मैंने कहा हम महिलाओं ने तुम्हें पैदा किया है और अगर तुम पुरुषों ने अपना काम ठीक से किया होता तो हमें ये ठेका लेने की जरूरत नही पड़ती.
गंगा कहती हैं कि उस दौरान हमारे द्वारा बनाए गए हौज आज भी सही हालात में हैं. ऐसे ही एक किस्से को याद करते वह कहती हैं कि मैंने गांव में एक कार्यक्रम के लिए एसडीएम को लाने की बात बोली तो गांववालों ने कहा कि कैसे कैसे ग्राम प्रधान बन गए, गांव में कोई एसडीएम नहीं ला सकता पर हमारे अंदर महिला समाख्या की वजह से ऐसी ताकत थी कि मैं एसडीएम को गांव में लेकर आ गई.
अब कोई भाई मिसेज प्रधान क्यों नही बोलता और अगर वह कार्यक्रम आज भी होता तो हम कैसे कैसे काम कर लेते
आगे बात करते गंगा बताती हैं कि साल 2005 के आसपास मैंने गांव के स्कूल से आठवीं पास की, इसके बाद मैंने हाईस्कूल का फॉर्म भी भरा था पर पेपर नहीं दे पाई. इसके बाद मेरे पति प्रधान बने तो उनका सारा काम मैं करती थी, तब मैं मीडिया वालों से कहती थी कि जब किसी प्रधान महिला का पति काम करता है तो आप सब पति प्रधान कहते हो, अब कोई भाई मिसेज प्रधान क्यों नही बोलता! इसके बाद मैं तीन बार जिला पंचायत का चुनाव हारी, अब मेरी बहु प्रधान है और उसका सारा काम मैं ही करती हूं.
गंगा कहती हैं मैं आज जो भी काम कर रही हूं वह महिला समाख्या की ही देन है. तीन लड़कों और एक लड़की की मां गंगा ने अपना एक बेटा खो दिया है और इन दिनों वह गांव में मनरेगा का कार्य करवा रही हैं. वह कहती हैं मेरे इस कार्यकाल में गांव की सभी महिलाएं ही काम कर रही हैं, महिला समाख्या कार्यक्रम बन्द होने से पहाड़ की महिलाओं का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है. अगर वह कार्यक्रम आज भी होता तो हम कैसे कैसे काम कर लेते.
(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.