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गुरु पूर्णिमा विशेष: सच्चे गुरु स्वार्थी नहीं होते, उनकी कोई दुकान नहीं होती

मेधा
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 10, 2025 17:25 pm IST
    • Published On जुलाई 10, 2025 16:08 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 10, 2025 17:25 pm IST
गुरु पूर्णिमा विशेष: सच्चे गुरु स्वार्थी नहीं होते, उनकी कोई दुकान नहीं होती

गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त.
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥

                                                                                              
संत कबीर के इस दोहे में गुरु के विराट और सर्वसमर्थ रूप का वर्णन है. इसका अर्थ है कि गुरु और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं. पारस तो लोहे को सोना बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है. गुरु और शिष्य के बीच एकात्मकता का ये सम्बन्ध ही भारतीय ज्ञान – परंपरा में गुरु – शिष्य के रिश्ते को अनोखा बनाता है भारतीय भक्ति और सूफ़ी परंपरा में गुरु की महिमा का बहुत अधिक बखान हुआ है. यूँ तो व्यक्ति यदि सचेत हो और अपनी सर्वांग प्रगति के लिए दृढ़ संकल्पी हो, तो कहीं भी किसी साधारण घटना या साधारण व्यक्ति से भी जीवन का गहरा से गहरा मर्म सीख सकता है. यदि जागृति की आकांक्षा हो, तो व्यक्ति हर कहे-सुने और अनुभव से स्वयं को जागृत करने के सूत्र पा सकता है. लेकिन सतगुरु का मिलना एक विरल घटना है. उसके लिए शिष्य में चित्त की स्वच्छता, निर्माल्य, सत्यनिष्ठा, श्रद्धा और समर्पण आदि गुणों का विकसित होना जरूरी है. आज के आत्मकेंद्रित युग में जहाँ हर बात मैं से शुरू होकर मैं पर ही ख़त्म हो जाती है, वहाँ ये सारी योग्यता अर्जित कर पाना लोगों को टेढ़ी खीर ही नज़र आता है. लेकिन जिसने इसे साध लिया, उसका जीवन गुरु के आगमन से अभूतपूर्व ढंग से रूपांतरित हो जाता है.

इसमें क्या किसी को कोई संदेह हो सकता है कि कबीर, रैदास, सहजोबाई, मीरा, दयाबाई, जनाबाई, बुल्ले शाह और रूमी— इन सबने जो पाया, उसमें उनके सतगुरुओं की अनन्य भूमिका रही है. बिन गुरु तो जीवन और जगत में हम अक्सर वैसे ही हो जाते हैं, जैसे तूफानी समंदर में कोई बिना नौका के पार उतरना चाहता हो. गुरु लौकिक और अलौकिक दोनों ही संसार के रहस्यों को आपके लिए आपकी पात्रता के अनुसार खोलते चले जाते हैं. हर गुत्थी को सुलझाते चले जाते हैं. यदि शिष्य में श्रद्धा हो, अज्ञान से मुक्ति की कामना हो और सत्य से साक्षात्कार की अदम्य उत्कण्ठा हो, तो ही जीवन में गुरु का आविर्भाव होता है.

गुरु शिष्य को आत्म कल्याण और जगत कल्याण के मार्ग पर चलना सीखाता है.

गुरु शिष्य को आत्म कल्याण और जगत कल्याण के मार्ग पर चलना सीखाता है.

आज के दौर में गुरु

लेकिन आज के तमोगुणी और रजोगुणी दुनिया में सच्चे गुरु की पहचान हो तो भला कैसे? आज की आपाधापी और तेज रफ़्तार, साइबर युग में मनुष्य स्वयं से, अपने परिवेश से, अपनी जड़ों से और समाज से कटता जा रहा है. ऐसे में हर कोई जाने – अनजाने किसी मार्गदर्शक और गुरु की तलाश में है कि 'इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई / मेरे दुख की दवा करे कोई.' हर व्यक्ति को अपनी जीवन – यात्रा और चेतना के विकास की अवस्था के अनुसार गुर की जरूरत होती है . ऐसे में सब अपनी जरुरत के हिसाब से गुरु का चयन कर सकते हैं. उसके बावजूद सतगुरु की कुछ सार्वभौम पहचान होती है. विद्वानों और जागृत- आत्माओं ने बताया है कि सतगुरु अहंकारशून्य, देहराग से मुक्त, आत्मा के आलोक से प्रकाशित होते हैं. उनकी कोई दुकान नहीं होती है. वो प्रचारतंत्र के जंजाल में नहीं पड़ते हैं. वो शिष्य से कुछ नहीं लेते और शिष्य की श्रद्धा के बदले उसे सबकुछ देते हैं. वो शिष्य को निर्भय, निर्वैरी बनाते हैं. स्वार्थ की एक छींट भी गुरु पर नहीं पड़ती. वो हर हाल में शिष्य को संभाल लेते हैं और उसे सत्मार्ग पर अग्रसर करते हैं; जैसे, रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानन्द को किया. सच्चा गुरु, गुरु-दक्षिणा में अपने शिष्य से इतना भर चाहता है कि वो सत मार्ग पर चले. 

गुरु महिमा ऐसी होती है कि वो चाहे तो हज़ारों सालों के अंधेरे को एक क्षण में कभी न ख़त्म होने वाले प्रकाश से भर दे. भक्तिमती सहजोबाई तो शादी के मंडप में थीं और उनके गुरु चरणदास वहाँ आए और इतना भर उनसे कहा- 

सहजो तनिक सुहाग पर कहा गुदाये शीश. 
मरना है रहना नहीं, जाना बिस्वे बीस.. 

और वो संसार के प्रपंच को छोड़ कर भक्ति मार्ग की साधिका बन गई. उनके जैसा गुरु भक्त समस्त भक्ति-संतों में शायद ही कोई मिले. गुरु कोई ख़ास वेशभूषा, ख़ास जेंडर, ख़ास भाषा-बोली, ख़ास उम्र और पद-प्रतिष्ठा का हो, जरूरी नहीं. वह किसी भी रूप में कभी भी मिल सकता है. हमारी आँखें खुली होनी चाहिए. बुल्ले शाह को एक माली में गुरु दिखा. शाह इनायत और बुल्ले शाह की कथा तो बुल्ले शाह के कलाम में हमेशा के लिए अमर है ही. ऊँचे कुल में पैदा हुए बुल्ले शाह का जब सबने एक माली को गुरु बनाने पर विरोध किया तो उन्होंने डंके की चोट पर कहा-

बुल्ला शाह दी जात ना काई, 
मैं शाह इनायत पाया है. 

यह कथा तो हम सब जानते ही होंगे कि जब शाह इनायत बुल्ले शाह से किसी बात पर नाराज़ हो जाते हैं, तो वो कंजरी बन कर गली-गली नाचते फिरते हैं, जब तक कि उनकी नाराज़गी ख़त्म नहीं हो जाती. गुरु को मनाने से जुड़ा उनका ये कलाम तो अजर-अमर है और आज भी लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है- तेरे इश्क़ ने नचाया…

तेरे इश्क़ नचाइयाँ कर के थैय्या थैय्या
ऐस इश्क़ दे झांगी विच मोर बुलेंदा
सानूं क़िबला ते काबा सोहणा यार दिसेंदा
सानूं घायल कर के फेर खबर न लाईयाँ
तेरे इश्क़ नचाइयाँ कर के थैय्या थैय्या

रूमी ने धर्म-दर्शन का सारा ज्ञान पा लिया था. वो अपने समय के सुप्रसिद्ध धर्म-ज्ञानी माने जाते थे. लेकिन प्रेम की एक छींट भी उन पर नहीं पड़ी थी. उनके मुर्शिद शम्स तब्रीज़ी ने उनकी सारी किताबें पानी में फेंक दी. उसके बाद शम्स की शागिर्दगी ने उन्हें वो रूमी बना दिया, जिसे आज सारी दुनिया जानती है. गुरु ऐसा ही होता है- वो अमर प्रेम का ऐसा प्याला पिलाता है कि आप स्वयं ही देशकाल की सीमा को पार करके सदा के लिए प्रेम का पर्याय बन जाते हैं; जैसे शम्स ने रूमी को बना दिया. संतों का कहना है कि जब शिष्य की पात्रता पूरी हो जाती है,तो स्वयं ही गुरु का प्रवेश जीवन में होता है. कई बार गुरु का जीवन में प्रवेश हो जाए और शिष्य तैयार न हो तो गुरु इंतज़ार करते हैं, शिष्य के जागने का. कभी ऐसा भी होता है कि “प्रेम की माला मेरे सतगुरु दीन्हें, मैं सिमरू सुबह-शाम“ का मन्त्र हमें मिल भी जाए तब भी हम दुनिया के मेले में भटक जाते हैं तो गुरु हमें हमारी जरुरत के हिसाब से कभी प्रेम से, कभी करुणा से तो कभी फटकार से जगाते हैं. तभी तो कबीर ने कहा है –“गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट.अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥” 

गुरु शिष्य को अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाता है.

गुरु शिष्य को अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाता है.

एक बार यदि गुरु ने शिष्य को चुन लिया तो गुरु कभी हार नहीं मानते , जब तक कि शिष्य आत्म – कल्याण और जगत – कल्याण के मार्ग की ओर न चल पड़े. यह भी कोई जरूरी नहीं कि गुरु हमेशा प्रत्यक्ष रूप में मिले. कई बार वो दोस्त , रिश्तेदार, प्रेमी – प्रेमिका  के रूप में अपने गुरु होने की घोषणा किये बिना भी आपके जीवन में ज्ञान का प्रकाश लाते हैं और हम जान नहीं पाते. हीर ने राँझा के जीवन में गुरु की भूमिका निभाई . हीर के ज्ञान का आलोक ही था कि हीर से जुदा हो जाने के बाद भी रांझा देवदास नहीं होता, किसी चंद्रमुखी की शरण में नहीं जाता बल्कि इश्क़ मजाज़ी को इश्क़ हक़ीक़ी में तब्दील कर लेता है- “ रांझा जोगिड़ा बन आया, वाह सांगी सांग रचाया.” 

तो आइये आज के दिन को चिंतन-मनन और कृतज्ञता का दिन बना लें कि हमारे जीवन में जो भी गुरु-तत्व है, उसके प्रति कृतज्ञ हों और गुरु के प्रति वास्तविक कृतज्ञता यही होती है कि हम काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और द्वेष जैसी तमोगुणी और रजोगुणी प्रवृत्तियों से निकलकर एक सतोगुणी जीवन जी सकें और उनके बताए हुए मार्ग पर चल सकें. 

आज के दिन 1616 ईस्वी में बिहार के छपरा जिले में जन्मे संत धरनीदास का ये पद कितना संगत जान पड़ता है! उन्होंने पहाड़ा के माध्यम से गुरु की महिमा का पूरी तरह से बखान कर दिया है- 

पहाड़ा

एका एक मिलै गुरु पूरा, मूल मंत्र जो पावै.
सकल संत की बानी बूझै, मन परतीत बढ़ावै॥

दूआ दुई तजै जो दुबिधा; रजगुन तमगुन त्यागै.
संतगुरु मारग उलटि निरेखै, तब सोवत उठि जागै॥

तीया तीन त्रिबेनी संगम, सो बिरले जन जाना.
तृस्ना तामस छोड़ि दे भाई, तब करु वहँ प्रस्थान॥

चौथे चारि चतुर नर सोई, चौथे पद कहँ लागी.
हँसि कै परम हिंडोलना झूलै, निरखत भा अनुरागी॥

पँचयें पाँच पचीसहिं बस करि; साँच हिये ठहरावै.
इँगला पिंगला सुखमन सोधै, गगन मँडल मठ छावै॥

छठयें छवो चक्र के बेंधे, सुन्न भवन मन लावै.
बिगसत कमल काया करि परिचै, तब चंदा दरसावै॥

सतयें सात सहज धुनि उपजै, सुनि सुनि आनंद बाढ़ै.
सहजहिं दीनदयाल दया करि, बूड़त भवजल काढ़ै॥

अठयें आठ अकासहिं निरखो, दृष्टि अलोकन होई.
बाहर भीतर सर्ब निरंतर, अंतर रहै न कोई॥

नवें नवो दुवारहिं निरखै, जगमग जगमग जोती.
दामिनि दमकै अमृत बरसै, निझर झरै मनि मोती॥

दसयें दस दहाइ पाइ कै, पढ़ि ले एक पहारा.
धरनीदास तासु पद बंदैं, अहि निसु बारंबारा॥

अस्वीकरण: लेखिका मेधा दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में पढ़ाती हैं. उनकी दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं और उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी है.
 

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