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This Article is From Nov 24, 2016

सुधीर जैन : इस मामले में तो सरकार की तारीफ बनती है...

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 24, 2016 15:03 pm IST
    • Published On नवंबर 24, 2016 09:42 am IST
    • Last Updated On नवंबर 24, 2016 15:03 pm IST
पारदर्शिता हर मामले में ही काबिल-ए-तारीफ नहीं होती. सेना या खुफिया एजेंसियों के कामकाज को देश के लोगों से छिपाकर रखा जाता है. काले धन को बाहर निकालने का काम भी सेना और खुफिया एजेंसियों जैसा बनाना पड़ा. नोटबंदी की तैयारी खुफिया तरीके से की गई. हालांकि अभी इस बात पर विवाद है कि तैयारी वाकई की गई थी या नहीं, लेकिन इसे बताने के लिए सरकार ने मीडियातंत्र का जिस हुनरमंदी से इस्तेमाल किया, उसकी तारीफ ज़रूर की जानी चाहिए. दो हफ्ते के भीतर ही आज़ाद भारत के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व सिद्ध हो गई है. राष्ट्रहित के बैनर पर मीडिया ने सरकार से भी दो कदम आगे आकर जिस तरह नोटबंदी को सराहा है, और एक राष्ट्रभक्त कार्यकर्ता की तरह सरकार का साथ दिया है, उसे सिर्फ देश में नहीं, पूरी दुनिया में बड़े कौतूहल से देखा गया होगा.

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सरकार के अतिविश्वास की तारीफ...
नोटबंदी के बाद 15 दिन से देश में जिस तरह का धूमधड़ाका मचा हुआ है, उसे देखते हुए कोई भी कह सकता है कि इस फैसले को लागू करने के लिए जो तैयारी की जानी ज़रूरी थी, वह नहीं की गई थी. इस पर कोई विवाद इसलिए भी नहीं है कि खुद सरकार ने माना है कि गोपनीयता बनाए रखने के लिए बैंक और एटीएम की व्यवस्था नहीं बनाई जा सकती थी. ज़ाहिर है, सरकार ने सोच लिया था कि जो होगा, उसे मौका-ए-वारदात पर ही निपटा दिया जाएगा. 130 करोड़ की आबादी वाले देश में इतना सनसनीखेज़ काम चालू करने में किसी सरकार का ऐसा जबर्दस्त अति-आत्मविश्वास हमें फिर सरकार की तारीफ करने को प्रेरित करता है. देश के हर तबके को कितनी भी परेशानी हुई हो, दो हफ्तों में नोटबंदी का आधा काम तो सरकार ने निपटा ही लिया है.

सरकार का काम बनाया राष्ट्रहित के प्रचार ने...
काला धन, अपराध-धन, भ्रष्टाचार, समांतर अर्थव्यवस्था का खात्मा वगैरह ऐसे शब्द हैं, जिन्हें नोटबदी के फैसले के केंद्र में रखकर सरकार ने क्रांति का उद्धोष किया. दरअसल, बहुत सारे लक्ष्यों को एक साथ देखना ज़रा मुश्किल होता है, लिहाजा इन सारे लक्ष्यों को एक ही शब्द में समेटा गया था, जिसे राष्ट्रहित या राष्ट्र का नवनिर्माण नाम दिया गया. इसका चामत्कारिक प्रभाव यह हुआ कि नोटबंदी के फैसले की समीक्षा हो सकने की सारी संभावनाएं खत्म हो गईं. राष्ट्रहित के काम के बारे में आमजन तो क्या बोल सकते हैं, एक से बढ़कर एक विद्वान भी नोटबंदी पर होठबंदी करने को विवश हो गए. जिन बातों को कहना ही खतरे से खाली न हो, उसके बारे में सोचना किसलिए. इसी का नतीजा है कि नोटबंदी के फैसले पर विशेषज्ञ और विद्वान इसके गुण-दोषों के बारे में सोचने तक से परहेज़ कर रहे हैं. इस तरह अपनी आलोचना की संभावनाओं को एक ही झटके में खत्म करने की बुद्धिमत्ता के लिए मौजूदा सरकार की तारीफ की जानी चाहिए.

सिर्फ दो ही हफ्ते गुजरे हैं...
सरकार के पास फीलगुड के सैकड़ों कारण उसी दिन से उपलब्ध होंगे, जब उसने सोचा होगा कि नोटबंदी करनी है. कोई दुविधा होती तो पुरानी सरकारों की तरह वह यह फैसला ले ही न पाती. और बेशक कितनी भी अफरातफरी मची हो, देश के लोग 'आगे के सुख' के लिए 'आज का दुख' उठाते चले जा रहे हैं. हालांकि इस प्रकिया में देश की जनता ने राष्ट्रभक्ति में अपने कान और आंखें बिल्कुल ही बंद कर रखे होंगे, यह मानकर चलना ठीक नहीं होगा. भले ही सरकार ने अपने सरकारी तंत्र और नोटबंदी समर्थक मीडिया को रात-दिन काम पर लगा रखा है, फिर भी आगे के लिए सरकार को कुछ और इंतज़ाम करके रखने होंगे. अभी से यह सोचकर रखना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि नोटबंदी की प्रक्रिया पूरी होने में अभी 35 दिन और बाकी हैं. 30 दिसंबर के बाद भी तीन महीने तक रिज़र्व बैंक से नोट बदलवाने का काम चालू रहना है, यानी चार महीने तक अनिश्चय मिटने के आसार हैं नहीं.

सिर पर आकर खड़ी है वैश्विक मंदी...
विश्व में भयावह मंदी के घनघोर बादल मंडरा रहे हैं. याद किया जाना चाहिए कि सात साल पहले की मंदी को हमारा देश इसीलिए झेल गया था कि हमारी अर्थव्यवस्था वाकई उठान वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल थी. इसी आधार पर उस समय हम आश्चर्यजनक रूप से और बड़ी चतुराई से अपनी जीडीपी बढ़ाने में कामयाब हो गए थे. अब वैसी परिस्थितियां बची नहीं हैं. साल भर पहले अपने बैंकों की हालत नाज़ुक होने का रहस्य उजागर हो चुका है. पांच से आठ लाख करोड़ रुपये की रकम एनपीए, यानी बट्टे खाते में चली जाने के अनुमान से हम बुरी तरह परेशान और डरे हुए हैं. ऐसे में दो-चार लाख करोड़ की रकम अगर नोटबंदी से बच भी गई तो वह बैंकों के दर्द को थोड़ा-सा कम करने में ही चली जाएगी.

नोटबंदी से काले धन का कितना लेना-देना...?
1,000 और 500 के पुराने नोटों की कुल रकम 14,20,000 करोड़ की है. अब तक के 15 दिन का मोटा-मोटा अनुमान यह है कि छह लाख करोड़ के पुराने नोट देशवासियों ने रात-रातभर बैंकों के सामने लंबी-लंबी लाइनों में जूझते हुए जमा कराए हैं. ये लोग अपनी पुरानी जमा रकम निकालकर और अपने पुराने नोट बदलकर जो नए नोट और पुराने 100-100 के नोट ले पाए हैं, वह लगभग सवा लाख करोड़ ही है. व्यापार और दूसरे कामकाज के लिए नोटों का भारी टोटा पड़ा हुआ है. दो हफ्ते में ही सकल घरेलू उत्पाद को लगभग 10 लाख करोड़ की तात्कालिक चपत लग चुकी है. सरकारी अर्थशास्त्री बोलते समय फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं.

उनकी होठबंदी जायज़ भी है, लेकिन स्वतंत्रता के साथ आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाने वाले जानकारों का अंदाज़ा है कि नोटबंदी की पूरी प्रक्रिया में 14 लाख करोड़ के पुराने 1000-500 के नोटों में से 11 लाख करोड़ के पुराने नोट जमा हो जाएंगे. यानी तीन लाख करोड़ के पुराने नोट बैंक तक नहीं आएंगे. इसी को हम काला धन या बिना टैक्स चुकाया धन कहेंगे, और सरकार दावा करेगी कि उसके फैसले से तीन लाख करोड़ का काला धन मिट्टी या कागज का टुकड़ा बना दिया गया. इसी रकम को सरकार अपने फैसले से हुआ मुनाफा बताएगी. एक और श्रेय वह यह ले पाएगी कि कम से कम 400 करोड़ के नकली नोट भी बाज़ार से साफ हो गए. हालांकि 14 लाख करोड़ के वैध नोटों के बीच नकली नोटों की यह मात्रा कोई ज्यादा उल्लेखनीय साबित हो नहीं पाएगी. फिर भी नकली नोटों पर चोट का प्रचार करने में यह बात काम आएगी.

नोटबंदी से अप्रत्यक्ष नुकसान के अनुमान...
इस तरह के नुकसान को तोलने के लिए कोई तराजू उपलब्ध नहीं है. इसका कुछ-कुछ अंदाज़ा शेयर बाज़ार की हलचल और उद्योग व व्यापार करने वालों की हालत देखकर चल जाता है. शेयर बाज़ार में निवेश करने वालों को अब तक हुए तीन से चार लाख करोड़ के नुकसान को तो हम यह कहकर छोड़ भी सकते हैं कि चलिए, आगे के अच्छे वर्षों में शेयर बाज़ार इसकी भरपाई भी कर सकता है. लेकिन उद्योग और व्यापार में अभी तक 10 लाख करोड़ से ज्यादा का नुकसान और आने वाले 35 दिनों में 15 लाख करोड़ के नुकसान की भरपाई होने में एक साल से लेकर दो साल तक लग सकते हैं, लेकिन नोटबंदी के जमाखर्च का जो लोग भी हिसाब लगाने बैठेंगे, उन्हें अभी से जवाब सोचकर रख लेना चाहिए.

फिर भी चिंता की बात नहीं...
इसमें कोई शक नहीं कि मौजूदा सरकार के पास इस समय औपचारिक रूप से और साथ ही अनौपचारिक रूप से सक्रिय हुनरमंद आर्थिक जानकार और मीडिया प्रबंधक पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हैं. वे किसी भी स्थिति को संभालने में सक्षम हैं. सरकार के पास उस गुणवत्ता के विद्वान भी हैं, जो फीलगुड का इस्तेमाल करने में भी पटु हैं. इस मामले में मौजूदा सरकार प्रशंसा की पात्र है. यहां एक दार्शनिक वाक्य का इस्तेमाल करने की भी गुंजाइश निकल रही है, जिसमें कहा गया है - सुख और कुछ नहीं, बस दुख के उतार का खेल है... नोटबंदी से जनता को अब तक हुई और आगे होने वाली परेशानी 35 दिन बाद बंद हो ही जानी है. उसके बाद परेशानी खत्म होने का सुख, यानी दुख के उतार का सुख और आनंद का अनुभव तो होना ही होना है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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