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शिव, सावन और संसार

मेधा
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 18, 2025 15:14 pm IST
    • Published On जुलाई 18, 2025 15:11 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 18, 2025 15:14 pm IST
शिव, सावन और संसार

सावन शब्द की ध्वनि कानों में पड़ते ही स्मृतियों का एक अत्यंत समृ़द्ध संसार आंखों के सामने खुल जाता है. न जाने कितनी ही दृश्यावलियां नज़रों के सामने नृत्य करने लगती हैं. चैपाल के विशाल पीपल के पेड़ पर डाला गया झूला! उस पर पेंगें भर कर आसमान को छूती ग्रामीण बालाएं! उनकी आनंदित हंसी से झंकृत होता गांव का दिग-दिगंत! खेतों में धनरोपणी करती बालाएं! धरती की हरी-भरी नई चुनर! सोमवार को हर मंदिर के बाहर बिकते भांग-धतूरा और बेलपत्र! अभी-अभी पेड़ से टूटकर आए टटका अमरूद! मेंहदी के पत्तों की खुशबू! 

भारतीय संस्कृति में सावन

भारतीय संस्कृति में सावन के महीने का बहुत महत्व है. आमतौर पर इस महीने को भगवान शिव से जोड़कर देखा जाता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार माना जाता है कि बारिश के चतुर्मास में भगवान विष्णु शयन के लिए चले जाते हैं.इन चार महीनों में सृष्टि के संचालन की जिम्मेदारी भगवान शिव पर आ जाती है. पुराणों से लेकर सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में सावन की महिमा का किसी न किसी रूप में जरूर वर्णन मिलता है. हो भी न क्यों भला! एक कृषि प्रधान देश के लिए बारिश के महीने से शुभ और कौन सा महीना हो सकता है! लहलहाते खेत ऐसे लगते हैं, जैसे किसानों के हृदय नृत्यरत हों! कह सकते हैं कि सावन के महीना का धार्मिक-आध्यात्मिक और जागतिक दोनों ही दृष्टि से बहुत ज्यादा महत्व है. कहना गलत न होगा कि जीवन के ये दोनों पहलू एक-दूसरे में रचे-बसे हैं. 

अक्सर धर्म को हम एक सम्यक दृष्टि से देखने से चूक जाते हैं. बहुधा या तो हम केवल उसके कर्मकांडी पाठ को महिमामंडित करके ही संतुष्ट हो जाते हैं और जीवन को 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्' बनाने वाले उसके सार्वभौम सूक्ष्म आध्यात्मिक पहलुओं तक नहीं पहुंच पाते हैं. या फिर हम धर्म के अस्तित्व को ही सिरे से नकार देते हैं. लेकिन सच यह है कि हम नास्तिक हों या आस्तिक - धर्म किसी न किसी रूप में हमारे जीवन में हमेशा ही उपस्थित है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कितना सही कहा था कि धर्म केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक नैतिक और सांस्कृतिक प्रणाली है. उनका कहना था कि धर्मविहीन संस्कृति मूल्यविहीन हो जाती है. स्वामी विवेकानंद ने भी यही कहा कि धर्म हमारी संस्कृति की जड़ है. उनका मानना था कि भारतीय संस्कृति की पूरी नींव धर्म पर टीकी हुई है. आधुनिक भारत के महान स्वप्नद्रष्टा  और राजीनितक चिंतक डॅा.राम मनोहर लोहिया ने इसी बात को कुछ इस तरह कहा, ''धर्म और राजनीति, ईश्वर और राष्ट्र या कौम हर जमाने में और हर जगह मिल कर चलते हैं. हिंदुस्तान में यह अधिक होता है.'' इन विभूतियों के विचारों के आलोक में कहा जा सकता है कि धर्म और संस्कृति एक दूसरे के पूरक हैं.

सावन के महीने में शिवालय में चढ़ाने के लिए पवित्र जल लेकर जाते दो शिवभक्त.

सावन के महीने में शिवालय में चढ़ाने के लिए पवित्र जल लेकर जाते दो शिवभक्त.

धर्म और जीवन

धर्म और संस्कृति के प्रीतिकर संबंध को समझने के लिए सावन का महीना सर्वसुन्दर उदाहरण हो सकता है. धर्म कैसे जीवन जीने की एक नैतिक और सांस्कृतिक प्रणाली है, इसे भी सावन के तीज- त्योहारों के जरिए बखूबी समझा जा सकता है. पहली नज़र में सावन का महीना किसी को धार्मिक कर्मकांडों से भरा महीना लग सकता है. शिव के मंदिरों के बाहर लगी भीड़. सड़क पर कांवड़ियों का सैलाब! (वास्तविकता यह भी है कि कांवड़ियों के इन समूहों में सभी श्रद्धालु नहीं होते हैं. बहुधा समाज का उच्छृंखल समूह भी श्रद्धा की आड़ में अपनी उच्छृंखलता से नागरिकों की पेरशानी का कारण बन जाते हैं. लेकिन यह भी सच है कि ऐसे असमाजिक तत्व तो लगभग हर जगह मिल ही जाते हैं.) सोमवारी का व्रत आदि. सब इसी ओर इशारा करते हैं.

लेकिन शिव की पूजा और उनके सुमिरन का सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू बहुत अलहदा है. शिव ने प्रकृति और समाज में जो परित्यक्त हैं, उन्हें अपनाया. पशुपति भी उनका एक नाम है. नंदी बैल उनके सबसे प्रिय मित्र है. वासुकि नाग हर समय उनके गले की शोभा बने हुए हैं. मस्तक पर चंद्रमा और जटाओं में गंगा. शिव पर सारे जंगली फूल-पत्ते चढ़ाए जाते हैं. जिन फूल-पत्तों को कोई और देवता स्वीकार नहीं करते, शिव उन्हें सहर्ष स्वीकार करते हैं. उनके सहचरों में अधिकतर सभ्य समाज में अस्वीकृत समूह हैं, जिनसे पूरे समाज का रिश्ता या तो भय का है या तिरस्कार का है. तभी तो जब शिव सती को ब्याहने बारात लेकर जाते हैं, तो बारातियों को देख कर सती का पूरा परिवार और समाज भयभीत हो जाता है. कह सकते हैं कि प्रकृति से लेकर समाज के अस्वीकृति समूहों की स्वीकृति, उनकी सुरक्षा और उनसे प्रीति के देवता हैं- शिव. शिव की पूजा, शिव का उत्सव, कहीं न कहीं संपूर्ण प्रकृति और समाज के वंचित और तिरस्कृत समूहों की पूजा है. ऐसे वंचित और तिरस्कृत समूहों के प्रति हममें स्वीकारभाव पैदा हो और हम उनके उत्थान और सर्वमंगल हेतु ठोस सामाजिक पुरुषार्थ करें, उसका अवसर है यह. ‘शिव' शब्द का तो अर्थ ही सबका कल्याण, सबका परम मंगल है. उसका एक अर्थ शांति और सहजता भी है. आज शायद सभ्यता का अपूर्ण अर्थ निकालकर हम प्रकृति से दूर जा रहे हैं. यही वजह है कि सभ्य समाज जब शिव की पूजा करने चलता है, तो उन्हें मनाने और रिझाने योग्य सामग्री ही नहीं मिल पाती है. पूरब में शिव के लिए सावन में गाये जाने वाले इस लोकगीत में इस मुश्किल और दुविधा की झलक मिल सकती है-

का लेके शिव के मनाइब हो शिव मानत नाही
बेला-चमेली शिव के मनहू ना भावे
भांग धतूरा कहा पाइब हो शिव मानत नाही
का लेके शिव के मनाइब हो शिव मानत नाही
शाला दुशाला शिव मनहू ना भावे
मृगा के छाल कहा पाइब हो शिव मानत नाही
का लेके शिव के मनाइब हो शिव मानत नाही
मोटर गाड़ी शिव के मनहू ना भावे
बसहा बैल कहा पाइब हो शिव मानत नाही
का लेके शिव के मनाइब हो शिव मानत नाही

शिव द्वारा अपने भक्तों और श्रद्धालुओं से अपनी भक्ति और श्रद्धा के लिए वैकल्पिक व्यवस्था की मांग, कहीं न कहीं अपने श्रद्धालुओं को मुख्यधारा के राजसिक जीवन से निकल कर एक वैकल्पिक दुनिया की खोज का निमंत्रण भी है. अंधाधुंध और अविवेकी आधुनिक विकास न केवल पारिस्थितिकीय संतुलन, बल्कि मनुष्य के आंतरिक और बाह्य संतुलन को भी आत्यांतिक ढंग से बिगाड़ रहा है. दरअसल शिव की अपने श्रद्धालुओं से एक न्यूनतमवादी (Minimalistic) मनुष्य और समाज की मांग है, जहां अतिउपभोग पर आधारित परम राजसिक जीवन के लिए प्रकृति का दोहन न हो. प्रकृति के संरक्षण में रहकर, उसे प्रेम करते हुए मनुष्य एक ऐसे समाज का निर्माण कर सके, जहां तमस और रजस के बदले करुणा, भाईचारा, प्रेम के भाव से परिपूरित सात्विक संसार बसाया जा सके.

शिव मृत्यु के भय से मुक्ति के संदेश के देवता हैं.

शिव मृत्यु के भय से मुक्ति के संदेश के देवता हैं.



शिव की चेतना

शिव शमशान की भस्म लगाते हैं. उनका बहुत सारा समय श्मशान में व्यतीत होता है. कहा जा सकता है कि शिव मृत्यु के भय से मुक्ति के संदेश के देवता हैं. यदि हम वास्तव में शिव की चेतना को समझने का प्रयास करें तो, कहीं न कहीं मृत्यु के भय के साथ-साथ वहां जीवन में व्याप्त हर किस्म के भय से मुक्ति की कुंजी भी मिल सकती है. दरअसल सावन में शिव का महात्मय जीवन के इन्हीं पहलुओं के प्रति हमें जागृत करने का एक अवसर है. शिव तो मरण के भय पर विजय पाकर जीवन को भयमुक्त करने के देवता हैं. हो न हो शिव की इसी प्रकृति से प्रेरित होकर संत गोरखनाथ ने लिखा होगा-

 ''मरो वै जोगी मरौ, मरण मीठा है.
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरख मरि दीठा..''

शिव की बात शक्ति के बिना अधूरी है. शिव एकांतिक प्रेम के महानायक हैं. वह अकेले देवता हैं, जो सती की मृत्यु के बाद उनके वियोग में सारे संसार को हिला कर रख देते हैं. सती की मृत्यु पर प्रकट किया गया उनका शोक भारतीय मिथक-संसार का सबसे अनुपम वियोग-प्रेम का प्रसंग है. तभी लोहिया जी लिखते हैं, ''शिव के सबसे बड़े कारनामों में एक उनका सती की मृत्यु पर शोक प्रकट करना है. मृत सती का अंग-अंग गिरता रहा फिर भी शिव ने अंतिम अंग गिरने तक नहीं छोड़ा. किसी प्रेमी, देवता, असुर या किसी की भी साहचर्य निभाने की ऐसी पूर्ण और अनूठी कहानी नहीं मिलती.'' सती के वियोग और शोक में सारी धरा पर उनके शव को लेकर अत्यंत क्रोधित अवस्था में विचरने के बाद वह महामौन में चले जाते हैं. ध्यान और मौन की उनकी अवस्था तब तक चलती है,जब तक कि सती का पुनर्जनम पार्वती के रूप में नहीं हो जाता है.

शिव और शक्ति जैसे एक ही आत्मा के दो हिस्से हों, तभी तो यह भी कहा जाता है कि शक्ति के बिना शिव शव समान हैं. शिव के सबसे मोहक रूपों में उनका अर्धनारीश्वर का ही स्वरूप है. शिव और शक्ति प्रेम की ऐसी अनोखी प्रक्रिया का नाम है, जहां दोनों ही एक दूसरे के प्रेम के योग्य होने के लिए निरन्तर साधनारत हैं. और प्रेम ऐसा कि एक दूसरे के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित भी हैं और स्वतंत्र भी हैं. कह सकते हैं कि शिव और पार्वती आदियुगल दंपत्ति हैं. 

शिव और शक्ति का अर्धनारीश्वर स्वरूप कहीं न कहीं हमारे भीतर की पुरुष-ऊर्जा और स्त्री-ऊर्जा का संतुलन कर एक सम्यक मनुष्य बनने की प्रेरणा भी देता है. इन दोनों ऊर्जाओं का असंतुलन ही हमारे पूर्ण मनुष्य होने में बाधा है. इसी बात को संतों ने बारम्बार अनेक रूपकों और उदाहरणों से समझाया है. संत गोरखनाथ कहते हैं कि शिव और शक्ति हमारे मन के भीतर ही है- 

यहु मन सक्ति, यहु मन सीव,
यहु मन पांच तत्त का जीव.
यहु मन लै जै उनमन रहै, 
तो तीन लोक की वार्ता कहे..

एक सावन का महीना हमारी संस्कृति और धर्म के जरिए लौकिक और अलौकिक संसार के कितने दरवाजे खोल रहा है! यदि हम धर्म को महज राजनीति का माध्यम न बना कर मनुष्य होने की सर्वोत्तम संभावना को साकार करने का माध्यम बना सकें तो कितना सुखकारी होगा - व्यक्ति के लिए भी, समाज के लिए भी, राष्ट्र के लिए भी और विश्व की समस्त मानवता के लिए भी. सावन मुबारक.

अस्‍वीकरण: लेखिका मेधा दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में पढ़ाती हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी हैं और उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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