श्री दुर्गा सप्तशती ग्रंथ के अंग स्वरूप ऋग्वेदोक्त देवी सूक्त के पाठ की मर्यादा है. यह ऋग्वेद के दशम मंडल का 125वां सूक्त है. इस सूक्त की द्रष्टा महर्षि अम्भृण की कन्या वाक है. वाक ब्रह्माज्ञानिनी थीं. मंत्रदृष्टा ऋषि के नाम पर इस सूक्त को वाक् सूक्त भी कहा गया है. मंत्र के देवता है 'परमात्मा'. इस सूक्त के आठ मंत्रों द्वारा ब्रह्मविदूषी वाक् स्वयं की स्तुति करती हैं. वैदिक मंत्रों के प्रत्यक्ष, परोक्ष और आध्यात्मिक अर्थ है. इस आत्म स्तुति परक सूक्त को आध्यात्मिक सूक्तों की श्रेणी में रखेंगे. इस सूक्त में अवगाहन करने पर गुरु कृपा से बोध होता है की जगत नियंत्रिका शक्ति ही ऋषिका वाक् को आश्रय कर अपने परम स्वरूप को परिव्यक्त कर रही है. भाष्यकार सायनाचार्य के अनुसार वाक् स्वयं को परमात्मा के साथ एकात्म स्वरूप अनुभव कर परमात्मा के सर्वव्यापक अचिंत्य शक्ति की वर्णन करती है. वेद प्रतिपाद्य यह परमात्मा और तंत्र शास्त्रोक्त शक्ति वास्तव में एक है. भक्ति मार्गी वैष्णव संप्रदायों के सिद्धांत में भी शक्ति-शक्तिमान अभेदत्व ही है. अत: यहां परमात्मा के व्याज से परमशक्ति की ही स्तुति की गई है. परमात्मा और पराशक्ति वास्तव में अभिन्न तत्व है. वैदिक और तांत्रिक मतों का सर्वोच्च समन्वय ही भगवती श्रुति देवी सूक्त के माध्यम से करती है.
इस पावन सूक्त का प्रथम मंत्र है:
ॐ अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः. अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा॥१॥
ब्रह्मवादिनी ऋषिका वाक् कहती हैं, मैं ही रुद्र और वसुओं के रूप में विचरण करती हूं. मैं ही मित्र और वरुण, इंद्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों को धारण करती हूं.
आठ वैदिक देवता और उनकी महिमा
इस सूक्त में आठ वैदिक देवताओं का उल्लेख है. इनमें रुद्र एकात्माभिमुखी शक्ति है, जो प्रलय काल में विविधता से भरी सृष्टि को एकात्म स्वरूप बना देते हैं. बहुता का विलोप करने वाले ही रुद्र हैं. अष्ट वसु जगत सृष्टि के बहुत्व शक्ति का परिचायक है, जो इस सृष्टि को विचित्र बनाते हैं. जगत के विविध रूप में व्यक्त होते हैं. आदित्य एकत्र के परिचायक हैं, और विश्वदेव बहुत्व के धारक. देवी कहती हैं, आदित्य रूप में मैं जगत को एक स्वरूप से धारण करती हूं. और विश्वदेव स्वरूप में अनेक हो जगत की पूर्णता को सिद्ध करती हूं.
मित्र और वरुण नीति और शृंखला के देवता हैं. मित्र बहुतायत के शृंखलाकारी और वरुण अंतरंगता के नियामक हैं. वह ऋत को धारण करने वाले हैं. ऋत ही विविधता से भरे जगत को एकात्म सूत्र में पिरोने वाली शक्ति है. जड़ जगत और चिद जगत परम शक्ति द्वारा ही सुनियंत्रित होता है.

नवरात्रि के पहले दिन प्रयागराज के एक देवी मंदिर के परिसर में पूजा-पाठ करती महिलाएं.
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जो शक्ति जगत को व्याप्त कर विराजती है, वह इंद्र है. जो शक्ति सर्वत्र स्थितिमान और गतिमान होकर विराजती है वह अग्नि है. अश्विनी कुमार द्वय सूर्यमार्ग और चंद्रमार्ग के नियामक है (शुक्ल मार्ग और कृष्ण मार्ग जिसका उल्लेख भगवान ने भगवद गीता में किया है). यह दोनों भाई ही (भौतिक जगत में) दिवस और रात्रि स्वरूप, (और आध्यात्मिक जगत में) इड़ा और पिंगला स्वरूप हैं. जगत में प्रकाश-अंधकार, सुख-दुख, शुभ-अशुभ सब कुछ शक्ति द्वारा ही विधृत है.
ब्रह्मांड को चलाने वाली महाशक्ति
इस मंत्र के साथ भगवद गीता के विभूति योग अध्याय की बहुत समानता है. एक ही महाशक्ति संपूर्ण ब्रह्मांड में अनेक रूपों से क्रियाशील है. देवी सूक्त का प्रथम मंत्र इसी सत्य को उद्घाटित करते हैं. स्वयं सप्तशती (१०/८) में भगवती कहती हैं 'मैं ही ऐश्वर्य शक्ति द्वारा बहुमूर्तियों में अवस्थान करती हूं.'
देवी सूक्त के द्वितीय मंत्र में भगवती के साथ एकात्मता का अनुभव करके ऋषिका वाक् कहती हैं:
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्.
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥२॥
देवी कहती है: शत्रुनाशक सोम को धारण करने वाली मैं ही हूं. मैंने ही त्वष्टा, पुषा और भग देवता को धारण किया है. जिन यजमानों ने उत्तम हवि और सोम रस देवताओं को विधिपूर्वक अर्पण किया है उनको (यज्ञ का फल रूप) धन धान्यादि प्रदानकारी मैं ही हूं.
जीव और जगत सर्वदा क्षययुक्त है. क्षणिक है. क्षयरूप शत्रु से रक्षा करने वाली शक्ति जो जीव-जगत को पुष्टि प्रदान करें वही सोम है. चिद जगत के पोषणकारी सोम और जड़ जगत के पोषक पुषा है. संपूर्ण ब्रह्मांड के हर तत्व को रूप प्रदान करने वाले त्वष्टा ही विश्वकर्मा है. भगदेव ज्योति स्वरूप है, जो साधक को साधना का उपयुक्त फल प्रदान करते हैं.
यह संसार वैचित्रमय है. सृष्टि की प्रकृति ही विचित्र है. कई बार दिखता है कि किन्ही के पास संपदा है किंतु दातृत्व की भावना नहीं है. वही निर्धन मानव में दानशीलता है किंतु धन का अभाव है. जिनके पास संपदा रहते हुए जगतकल्याण निमित्त धन-धान्य और बौद्धिक संपदा का दान भी करते हैं, वही जन्म सार्थक है. जो यजमान (यज्ञ कर्म के व्रती अथवा साधक) नित्य विधिपूर्वक ओज: साधना (ब्रह्मचर्य) में निरत है, उनको परम पुरुष की परम शक्ति उनके चिंतन के अनुरूप फल प्रदान करती है. यजमान के भोगार्थी होने पर भोग, स्वर्गार्थी होने पर स्वर्ग और यजमान द्वारा ब्रह्मविद्या साधन करने पर भगवती उनको अपवर्ग-मोक्ष प्रदान करती है.

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श्री सप्तशती (१३/५) में भी कहा गया है: 'आराधिता सैव नृणाम भोग स्वर्गापवर्गदा.' साधन मार्ग में निरत साधकों के लिए स्वयं नित्य सिद्ध गोपीगनों द्वारा श्रीमद् भागवत में कात्यायनी पूजन की लीला दर्शायी गई है.
इस द्वितीय मंत्र में भगवती श्रुति महाशक्ति के संबंध में कहती हैं कि, यही शक्ति अपने संतानों को क्षणभंगुरता से रक्षा कर उनका पोषण करती है. वही विश्व ब्रह्मांड की पोषणकारी-रूपदात्री है, जो योग्य साधक को यथायोग्य फल प्रदान करती है. वह एक होकर भी विभिन्न रूपधारण कर स्वयं ही स्वयं का पोषण करती है (ब्रह्म ही जगत के उपादान और निमित्त कारण है और ब्रह्म और उनकी शक्ति में अभेदत्व है ऐसा ही इस सूक्त का अभिप्राय है).
द्वितीय श्रुति के उपरांत अब तृतीय श्रुति में वाक् देवी उपासकों/साधकों के निमित्त कहती है:
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्.
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्॥3॥
अर्थात्, मैं राष्ट्र (ब्रह्मांड) की अधीश्वरी (राष्ट्री) हूं. मैं ही पार्थिव और अपार्थिव धन प्रदान करने वाली और ब्रह्म साक्षात्कार रूप संविद ज्ञान स्वरूपा हूँ. मैं एक होकर भी इस प्रपंच में बहू रूप में अवस्थित हूँ. मैं ही अपनी शक्ति से अनंत जीवों में प्रविष्ट होती हूं. देवतागण इस रूप से मुझे जान कर मेरी ही उपासना करते हैं.
ब्रह्मर्षि सत्यदेव सप्तशती पर लिखित अपने आध्यात्मिक वृत्ति में अहं शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं, व्याकरण की दृष्टि से अहं शब्द अलिंगक है, अर्थात् वाक्य में इसका प्रयोग स्त्रीलिंग, पुलिंग या क्लीबलिंग (ब्रह्म) किसी के साथ भी हो सकता है. किंतु इस मंत्र में शक्ति रूपा चैतन्यता के प्रकाश के कारण ही ऋषियों और भाष्यकारों ने इसकी देवी सूक्त आख्या दी है.
राष्ट्री शब्द भौगोलिक सीमा में बंधे राष्ट्र के साथ ही अनंत ब्रह्मांडीय प्रपंच के रूप में भी प्रकट है. उस राष्ट्र की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कारण स्वरूपा ब्रह्म-शक्ति जगदीश्वरी है. इस श्रुति में प्रयुक्त वसु शब्द धन का परिचायक है. पार्थिव गौ-हिरण्यादि और अपार्थिव ज्ञान-वैराग्यादि इन उभय प्रकार के धन की स्वामिनी ही ब्रह्म शक्ति है.
साधना का अंतिम लक्ष्य
चिकितुषी शब्द का अर्थ भाष्य में ब्रह्मज्ञान किया गया है. अर्थ जिसकी प्राप्ति से जॉब मात्र को अपने स्वरूप का बोध हो जाए. यह स्वरूप प्राप्ति ही साधना का अंतिम लक्ष्य है. साधन मार्ग की भिन्नता से स्वरूपोप्लब्धि के अर्थ अवश्य अलग हो सकते हैं, किंतु उसका अंतिम प्रयोजन देहाभिमान से मुक्ति ही है. अत: यह ज्ञान ही समस्त उपासनाओं का आदि है.
मंत्र के दूसरे पद का अर्थ अत्यंत ही सुंदर है, भुरिस्थात्रा, अर्थात् जो विभिन्न स्वरूपों में प्रतिष्ठित है. वह एक ब्रह्म ही अपने अनंत रूपों में जीव जगत में प्रकट होता है. जीव मात्र अपने मूल स्वरूप में ब्रह्म का आनंद अंश है. अत: सभी अपने अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर अपने आनंद स्वरूप के मूल की उपासना में प्रवृत्त होते हैं.
आकाशात पतितम तोयम यथा गच्छति सागरम… जिस प्रकार वर्षा की धारा समुद्र में गमन करती है, वैसे ही जीव मात्र किसी भी देवता की अर्चन में प्रवृत् होकर भी मूलतः सभी के आदि श्री भगवान की ही उपासना करते हैं. यह सत्य जान कर उपासना करना ही श्रेयस्कर है अन्यथा उपासना अविधिपूर्वक किया जाएगा. देवी कहती हैं, देवताओं ने इस प्रकार जान कर सभी के मूल परमात्मा से अभिन्न उनकी शक्ति की उपासना की है. भगवद गीता में भगवान अर्जुन को विधि और अविधि पूर्वक की गई उपासना का फल बताते हैं. जिसका सार है, एक मात्र श्री भगवान को ही भोक्ता जान उपासना में निमज्जित होना. उनको अपना एक मात्र आश्रय जानना. यह श्रुति ब्रह्म शक्ति को राष्ट्रशक्ति, धन-धान्य और ब्रह्मज्ञान प्रदानकत्री कहती हैं. जो एक होकर भी अनंत ब्रह्मांडों के रूप में प्रकाशित है. इस तत्व को जानकर जो उपासना में प्रवृत्त होता है, वह निश्चित ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है.
ऋक् संहिता में देवी सूक्त के चतुर्थ मंत्र में श्री देवी कहती हैं:
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणितियईं श्रृणोत्युक्तम्.
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि॥4॥
हे सौम्य (साधक के प्रति), जीव जो कुछ अन्नादि भक्षण करता है, दर्शन करता है अथवा प्राण धारण करता है, यह समस्त कर्ण वह मेरी ही क्रिया शक्ति द्वारा संपादित करता है. जो मुझ शक्ति को ऐसा करते हुए देख नहीं सकते, समझ नहीं सकते वही इस संसार ने हीन दशा को प्राप्त होते हैं. यह सब तात्त्विक ज्ञान श्रद्धा के साथ श्रवण करो.
प्रस्तुत मंत्र में बाह्यिक और आंतरिक क्रिया कलापों के निष्पादन हेतु प्रयुक्त शक्ति का निरूपण किया गया हैं. अन्न शब्द आहार से है. जो स्थूल देह को पोषण और बाहरी कृत्यों को करने की शक्ति देता है. स्थूल देह से मनोमयादि संपूर्ण कोषों की रक्षा भी आहार द्वारा ही संभव है. सूक्ष्म रूप से आहार का अर्थ उस तत्व में अवगाहन करना है जो आत्मा का पोषक हो. भगवती ही ज्ञान-कर्म-भक्ति मार्ग द्वारा आत्म तत्व का पोषण करने की शक्ति देती है.
बाह्य और आंतरिक जगत का साक्षात्कार
प्रत्येक जीव द्वारा बाह्य और आंतरिक जगत का साक्षात्कार चर्म चक्षु या ज्ञान नेत्र द्वारा ही संभव है. यह दर्शन शक्ति भी ब्रह्म-शक्ति ही है. प्रति नियत जो श्वास-प्रश्वास का खेल चल रहा है, इसका आधार प्राण शक्ति है. जिस कर्णेन्द्रिय द्वारा शब्द ग्रहण करते हैं, उसका भी एकमात्र कर्ता शक्ति ही है.

नवरात्रि के पहले दिन पटना में पूजा-पाठ करती एक महिला.
अत: ब्रह्मांड में ऐसा कोई कार्य नहीं जो बिना ब्रह्म-शक्ति के संपादित किया जा सके. किंतु इस सत्य को ना जानकर जो केवल मात्र स्वयं के अहमबोध से पीड़ित हैं, उनका क्षय होना निश्चित है. ईशावस्योप्निषद श्रुति में इन्हें ही आत्मघाती कहा गया है.
देहाभिमानी पुरुष ही अपने कर्तृत्व का अभिमान रख धर्म और धर्म के आधार भगवान का द्रोह करते हैं. किंतु सृष्टि और अपने अस्तित्व के लिए कृतज्ञता प्रकाश करना धर्मप्रेमी जीव का प्रकट लक्षण है. सृष्टि में तो तिर्यक योनि के जीव जंतु भी स्वल्प परिमाण प्रेम के प्रति कृतज्ञता दर्शाते हैं.
साधकों-उपासकों पर कृपा करते हुए यह श्रुति कहती है, ही जीव, आपके आहार-विहार से लेकर क्षुद्र श्वास-प्रश्वास और महत् मोक्ष तक सभी कर्मों में अखंड ज्ञान स्वरूप चैतन्य सत्ता की अनुभूति प्रकाशित होता है. आपके समस्त कर्मों के नियंता कौन है? वही है जो सर्वदा आपके प्रत्यक्ष है, जिनके विरह में एक मुहूर्त भी रहना आपके लिए संभव नहीं. वही आपके एक मात्र शरण है. इंद्रियों से परे होकर भी अपने कृपा से सुलभ है. उस महाशक्ति (और उसके धारक) को जानकर ही अमृत तत्व की प्राप्ति होगी अन्यथा क्षीणता ही जीव जगत की नियती है. इस ज्ञान की प्राप्ति ही मानव मात्र का लक्ष्य है.
यह ब्रह्मसवरूपीनी देवी समय समय पर अपने भक्तों पर कृपा करने विविध स्वरूपों में व्यक्त होती है. नवरात्रि का यह समय इनकी उपासना का सर्वश्रेष्ठ समय है. देवी सूक्त के ये प्रारम्भिक चार मंत्र भगवती की कृपा और साधकों द्वारा उत्तम फल प्राप्ति के उपाय संबंधित है. नवरात्रि में सप्तशती के पाठ और श्रवण का अद्भुत फल कहा गया है. सप्तशती में जिन भावों का विस्तारीकरण हुआ है, उसके तत्व हमें देवी सूक्त में ही प्राप्त होते हैं.
(श्री महानामव्रत ब्रह्मचारी द्वारा लिखित 'चंडी चिंतन' और ब्रह्मर्षि सत्यदेव रचित 'साधन समर' ग्रंथ के स्वाध्याय उपरांत देवी सूक्त पर यह किंचित मनन-चिंतन किया गया है.)
डिस्केलमर: डॉक्टर संदीप चटर्जी, दिल्ली विश्विद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.