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This Article is From Mar 21, 2014

चुनाव डायरी : बीजेपी के 'सागर' में बनता 'टापू'

Akhilesh Sharma
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  • Updated:
    नवंबर 20, 2014 13:10 pm IST
    • Published On मार्च 21, 2014 09:53 am IST
    • Last Updated On नवंबर 20, 2014 13:10 pm IST

आखिरकार आडवाणी मान गए। मानना ही था। कोई रूठता भी इसीलिए है, ताकि उसे मनाया जाए और तभी वह माने। रूठने-मनाने का यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा, लेकिन इस बार आडवाणी ने जो मोहरे इस्तेमाल किए, उससे आने वाले दिनों के लिए बीजेपी के संभावित अंदरूनी खतरों की झलक मिलने लगी है। मोदी के नेतृत्व को पार्टी के भीतर से मिल सकने वाली संभावित चुनौतियां।

आडवाणी का विदिशा के नजदीक की भोपाल सीट पर जाने की इच्छा प्रकट करना बहुत कुछ कह जाता है। विदिशा से सुषमा स्वराज पार्टी की प्रत्याशी हैं। नरेंद्र मोदी से उनका छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है। गठबंधनों को लेकर सुषमा अपनी नाराजगी ट्विटर के माध्यम से सार्वजनिक कर चुकी हैं। मोदी की उम्मीदवारी घोषित होने से पहले आडवाणी के नेतृत्व की वह बार-बार चर्चा करती रहीं।

गुजरात और मध्य प्रदेश की मिलती सीमाएं, विदिशा-भोपाल की नजदीकियां और आडवाणी-सुषमा की करीबियां... यहीं पर खड़े मिलते हैं सुषमा-आडवाणी के करीबी कर्नाटक के अनंत कुमार, जो मध्य प्रदेश के स्थायी प्रभारी कहे जाते हैं और इन सबके बीच हैं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान।

आडवाणी उन्हें मोदी के बराबर खड़ा करने की लगातार कोशिश करते रहे हैं। पहले यह दिखाने का प्रयास कि मोदी शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह की ही तरह बीजेपी के एक मुख्यमंत्री हैं। मोदी संसदीय बोर्ड में आने लगे, तो आडवाणी ने जिद पकड़ ली कि चौहान को भी लाया जाए, ताकि मोदी की तुलना चौहान से ही होती रहे और प्रधानमंत्री की दावेदारी के लिए मोदी का नाम न आए। लेकिन आरएसएस ने इन तमाम मंसूबों पर पानी फेर दिया।

मध्य प्रदेश में शानदार जीत दिलाने के बाद चौहान का कद पार्टी में ऊंचा हुआ है। वह स्वाभाविक रूप से पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी के लिए दावेदार बनते हैं, लेकिन हो कुछ अलग रहा है। चौहान के कंधे पर रख कर बंदूक चलाई जा रही है। मध्य प्रदेश को मोदी विरोध का गढ़ बनाने की कोशिश हो रही है। ऐसा संदेश दिया जा रहा है कि बीजेपी में मोदी का विरोध करने वालों को सिर्फ मध्य प्रदेश में ही शरण मिल सकती है। यानी मध्य प्रदेश को बीजेपी के समुद्र में मोदी विरोध का टापू बनाने की कोशिश हो रही है। जो शिवराज सिंह चौहान लोकसभा चुनाव में सभी 29 सीटें जीतने की बात कहते हैं, उनके बारे में यह प्रचारित किया जा रहा है कि उम्मीदवारों का चयन जानबूझकर इस तरह से किया गया कि पार्टी 15-16 से ज्यादा सीटें न जीत सके।

जाहिर है इससे नुकसान शिवराज सिंह चौहान का ही हो रहा है। पार्टी के भीतर उन्हें मोदी के सामने खड़ा करने की कोशिशें आगे चल कर उन्हें नुकसान पहुंचा सकती हैं। हालांकि खुद चौहान इन बातों को समझते हैं। विधानसभा चुनाव के दौरान वह बार-बार कहते रहे कि वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं और मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए काम करेंगे। इन सवालों से तंग आकर उन्होंने दिसंबर के बाद से कोई इंटरव्यू ही नहीं दिया है। उनके करीबी यह कहते हैं कि जब आडवाणी की ओर से ही यह संदेश आए कि वह भोपाल से लड़ना चाहते हैं, तो फिर ऐसे में वह कैसे मना कर सकते थे। उनके करीबी पूछते हैं कि क्या बीजेपी का कोई ऐसा मुख्यमंत्री है, जो आडवाणी के आग्रह को न माने?

इसके बावजूद संदेश यही जा रहा है कि चौहान मोदी विरोधियों के इशारों पर खेल रहे हैं। व्यक्तिगत तौर पर चौहान की महत्वाकांक्षाएं जोर नहीं मार रही हैं। वह जानते हैं कि उम्र उनके साथ है। उनके सामने चुनौती मध्य प्रदेश में अगले पांच साल बेहतर काम करके दिखाना है, ताकि आने वाले वक्त में वह मोदी के बाद पार्टी की कमान संभालने के लिए बेहतर ढंग से दावेदारी पेश कर सकें।

संघ के स्तर पर यह बात मानी गई है कि शिवराज में नेतृत्व की बेहतर संभावनाएं हैं। संगठन में वह स्वाभाविक रूप से मोदी के बाद नंबर दो के रूप में उभर सकते हैं। शिवराज को कुछ सबक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी सीखने होंगे। नीतीश कुमार भी बीजेपी में मोदी का विरोध करने वाले नेताओं के बहकावे में आ गए। उन्हें लगा कि उन्हें साथ लेकर वह मोदी को रोक सकेंगे, लेकिन हुआ इसका उल्टा।

बीजेपी में मोदी विरोधी तो हाशिए पर गए ही, बिहार में बीजेपी से अलग होने के बाद नीतीश कुमार मुसीबत में फंसते दिख रहे हैं। तमाम जनमत सर्वेक्षणों में संभावना व्यक्त की जा रही है कि नीतीश कुमार की पार्टी लोकसभा चुनाव में बिहार में तीसरे नंबर पर रहेगी, जबकि बीजेपी पहले। अगर ऐसा होता है तो लोकसभा चुनाव के बाद उनकी सरकार पर भी संकट आ सकता है।

क्षेत्रीय क्षत्रपों के उभार के इस युग में इन क्षत्रपों को अपनी महत्वाकांक्षाओं को अपने राज्यों की जनता की आकांक्षाओं के सामने नहीं लाना चाहिए। इनमें टकराव राज्य के हितों में नहीं होता। यह ऐसा दौर है, जब राज्य में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए कुछ क्षत्रप विपरीत विचारधारा के केंद्र से हाथ मिलाने में भी संकोच नहीं करते। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस इसका उदाहरण है, जो अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल में शामिल थी। फिर यहां तो 'परिवार' की ही बात है।

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