विज्ञापन

सीएम राइज से सांदीपनि तक: शिक्षा व्यवस्था का नामकरण महोत्सव

Anurag Dwary
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 01, 2025 22:58 pm IST
    • Published On अप्रैल 01, 2025 22:58 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 01, 2025 22:58 pm IST
सीएम राइज से सांदीपनि तक: शिक्षा व्यवस्था का नामकरण महोत्सव

मध्यप्रदेश में शिक्षा व्यवस्था का हाल पूछिए मत, देखिए! और देखने से भी ज्यादा, सुनिए! क्योंकि यहां सिर्फ ईंट-गारे से स्कूल नहीं बनते, बल्कि शब्दों से इमारतें खड़ी की जाती हैं और नामकरण से विकास होता है.

अब देखिए, पहले स्कूल का नाम था – "सीएम राइज", जो अंग्रेज़ों की कोई छोड़ी हुई गुप्त योजना लगती थी. मुख्यमंत्री जी को यह नाम खटक गया. आखिर, राइज तो सूरज करता है, नेता नहीं! बस, झटपट आदेश आया— "अब इसे महर्षि सांदीपनि के नाम से जाना जाएगा!"

मुख्यमंत्री जी ने मंच से गर्व से कहा – "अंग्रेज तो चले गए, लेकिन उनकी मानसिकता तकलीफ दे जाती है!"

अब यह सुनकर देशभर के अंग्रेज़ अचानक आत्मग्लानि से भर उठे होंगे— "अरे! जाते-जाते स्कूल का नाम भी बदल कर नहीं गए, कितनी बड़ी गलती कर दी!"

अगर शिक्षा के मंदिरों की दीवारें जुबान खोल पातीं, तो शायद वो चीख-चीख कर कहतीं— "भैया! नाम बदलने से दीवारों की सीलन नहीं सूखती और छतों से पानी नहीं रुकता!" लेकिन अफसोस, दीवारों को लोकतंत्र में बोलने का अधिकार नहीं है. हां, मंत्रियों को है। सो, उन्होंने बोल ही दिया— "सीएम राइज नाम हमें खटकता है! यह अंग्रेजों की मानसिकता है! अब इसे सांदीपनि स्कूल कहा जाएगा." वाह! जैसे नाम बदलते ही टपकती छतें संदीपनी के आशीर्वाद से अभेद्य किले बन जाएंगी और बच्चे अचानक विद्या के महासागर में तैरने लगेंगे!

अब देखिए, सरकारें पहले स्कूल खोलती हैं, फिर उन्हें नया नाम देती हैं, फिर नाम से संतुष्ट नहीं होतीं तो दोबारा नाम बदल देती हैं. नामकरण का यह उत्सव शिक्षा सुधार के सारे तिलिस्म को ढक देता है. बच्चे सोच रहे हैं— "गुरुजी! स्कूल में शौचालय नहीं है, पानी नहीं है, पढ़ाई के लिए जगह नहीं है, लेकिन नाम बदलने का बजट जरूर है!" इस पर सरकारें गर्व से जवाब देती हैं— "बच्चा! तुम मूल मुद्दों पर मत जाओ, तुम्हारे स्कूल का नाम अब सांदीपनि होगा, संस्कार आएंगे!"

अब ज़रा आंकड़ों पर नजर डालें. मध्य प्रदेश के 3,620 स्कूलों में बालिकाओं के लिए अलग शौचालय नहीं है, 12 लाख बच्चे स्कूल छोड़ चुके हैं, 13,198 स्कूल केवल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं और 7,000 से ज्यादा स्कूलों की इमारतें खस्ताहाल हैं. लेकिन सरकार को सबसे बड़ी समस्या सीएम राइज नाम से थी! भाई, कमाल के दूरदर्शी लोग हैं! बच्चों की पढ़ाई-लिखाई जैसी तुच्छ चीजों की फिक्र छोड़कर, उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण समस्या का हल निकाल लिया— "नाम बदल दो, सब ठीक हो जाएगा!"

अब सरकार कह रही है कि 'सांदीपनि' नाम से प्रेरणा आएगी. भगवान कृष्ण और बलराम के गुरु सांदीपनि के नाम से शायद स्कूलों में भी कोई चमत्कार हो जाए, लेकिन बच्चों को डर इस बात का है कि कहीं आगे चलकर स्कूलों में गुरु दक्षिणा भी लागू न हो जाए! "बेटा, पढ़ाई खत्म? अब दक्षिणा में नया भवन बनवाकर दो!"

वैसे नाम बदलने की यह परंपरा कोई नई बात नहीं है. पहले सरकारी योजनाओं के नाम बदलते थे, अब स्कूलों का नंबर आ गया है. जब कुछ ठोस करना हो, तो सरकारें आंकड़ों की बाजीगरी दिखाती हैं, और जब कुछ करना न हो, तो नामकरण समारोह कर लेती हैं.

नाम बदलने से शिक्षा व्यवस्था की हालत नहीं बदलती.

बच्चों को स्कूल में सुविधाएं चाहिए, किताबें चाहिए, अच्छी पढ़ाई चाहिए, लेकिन नेताओं को नाम बदलने की कला में महारत हासिल है. आखिर शिक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण राजनीति होती है! बच्चों का क्या? वे तो आदत से मजबूर हैं, इतिहास में नाम बदलने की यह गाथा पढ़कर परीक्षा में 5 नंबर और ले आएंगे!

नाम बदलने से समस्या हल हो गई? जी नहीं!

विदिशा जिले में सिरोंज के सीएम राइज स्कूल में पांच कक्षाएँ चलती हैं, लेकिन कमरे हैं चार. यह भारतीय शिक्षा पद्धति का नया नवाचार है— "एक क्लास, ओपन-एयर!" बच्चों को सूर्य नमस्कार की जगह अब सूर्य स्नान करवा दिया गया है. गर्मी में टीनशेड ऐसे तपता है कि दो मिनट रुक जाएं तो 'भुने हुए छात्र' तैयार हो जाएं! और बारिश के दिनों में तो स्कूल के बच्चे निबंध लिखते हैं—"मेरी पाठशाला—एक झरना!"

गुरुकुल टॉयलेट स्पेशल— सीढ़ी चढ़ो, काम निपटाओ!

अब बात करें भोपाल के सीएम राइज स्कूल की. यहां के इंटीरियर डिज़ाइनर इतने प्रतिभाशाली निकले कि लड़कियों के टॉयलेट के ऊपर लड़कों का टॉयलेट बना दिया! जी हां, 'डुप्लेक्स शौचालय' का ऐसा अनूठा उदाहरण आपको दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा.

स्कूल प्रशासन इस फैसले को "गुरुकुल शैली" बता सकता है— "सीढ़ी चढ़ो, काम निपटाओ!" शायद इसमें भी कोई वेदों की प्रेरणा होगी, लेकिन बच्चियों को समझ नहीं आ रहा कि "शौचालय जाएं या गुप्तकाल की किसी खुफिया सुरंग में प्रवेश कर जाएं!"

बजट बढ़ा, बच्चे घटे! वाह रे सरकार!

सरकारी स्कूलों में सात साल में शिक्षा बजट 80% बढ़ा दिया गया, पर नतीजा? 12 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूल छोड़कर चले गए! सवाल यह है कि पढ़ाई छूटी या स्कूलों से बदबू आई?

कक्षा 1 से 5 तक 6.35 लाख बच्चे गायब, 6 से 8 तक 4.83 लाख बच्चे कम, और 9 से 12 में 1 लाख बच्चे कम। लगता है, सरकार का एक सीधा मंत्र है— "स्कूल का नाम बदलो, बच्चे खुद-ब-खुद भाग जाएंगे!"

तो समस्या क्या है?

समस्या यह नहीं कि स्कूलों के नाम क्या हैं, बल्कि यह है कि स्कूलों में छतें गिर रही हैं, टॉयलेट गटर बन गए हैं, और पीने का पानी तक नसीब नहीं. लेकिन सत्ता का ध्यान इस पर नहीं, 'ब्रांडिंग' पर है! यानी,
"नाम इतना शानदार रखो कि स्कूल देखने ही मत जाओ!"

अब जब नामकरण हो ही गया है, तो अगला कदम क्या होगा? कहीं कल को स्कूल के नाम के आगे "श्री श्री 1008 महर्षि सांदीपनि गुरुकुल विश्वविद्यालय" ना जोड़ दिया जाए! ताकि बच्चे ना सही, कम से कम नाम पढ़कर ही शिक्षा पूरी कर लें!

तो भाइयों और बहनों, सरकार को धन्यवाद दीजिए कि टूटे स्कूलों में टपकती छतों को देखने से पहले आपको एक भव्य नया नाम देखने को मिल रहा है! क्या हुआ अगर बच्चे पढ़ाई छोड़ रहे हैं? कम से कम वे स्कूल का नाम तो संस्कृत में रट ही लेंगे!

लेखक परिचयः अनुराग द्वारी NDTV इंडिया में स्‍थानीय संपादक (न्यूज़) हैं...

(अस्वीकरण: ये लेखक के निजी विचार है. इससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.)

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे: