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This Article is From Jan 23, 2017

प्राइम टाइम इंट्रो : टिकट बंटवारे में जमकर चला परिवारवाद

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 23, 2017 21:33 pm IST
    • Published On जनवरी 23, 2017 21:33 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 23, 2017 21:33 pm IST
मान लीजिए आप एक जागरूक मतदाता हैं. हर चुनाव में आपकी शेखी ये होती है कि आपने बड़े बड़ों को हरा दिया, सरकारें बदल दीं. आपके इन अनुभवों का लाभ उठाने के लिए हम एक सवाल करना चाहते हैं. मान लीजिए आप इस बार सत्ताधारी क्रांतिकारी दल से नाराज़ हैं और उसकी जगह बदलाव दल को वोट करना चाहते हैं. पांच साल तक क्रांतिकारी दल का विधायक सुरेश नज़र नहीं आता है, बदलाव दल का रमेश हर मुद्दे पर आवाज़ उठाता है. चुनाव के वक्त दलबदल कर क्रांतिकारी दल का विधायक सुरेश बदलाव दल से उम्मीदवार बन जाता है. नाराज़ रमेश बदलाव दल छोड़ता है और क्रांतिकारी दल का दामन थाम लेता है. अब आप जागरूक मतदाता के सामने दो सिचुएशन है. जिस पार्टी को आप वोट नहीं देना चाहते थे वहां से अब आपका पसंदीदा नेता खड़ा है. जिस पार्टी को आप वोट देना चाहते हैं वहां से वो उम्मीदवार है जिसे आप हराना चाहते हैं. आप बताइये आप वोट किसे देंगे. सही पार्टी को चुनेंगे या सही उम्मीदवार को. सही पार्टी चुनने के लिए आपको बदलाव दल को वोट करना होगा, सही उम्मीदवार चुनने के लिए आपको क्रांतिकारी दल को वोट करना होगा.

जवाब आप पर छोड़ता हूं. यह जानते हुए कि मतदान करना आसान फैसला नहीं होता है. क्या ये अजीब नहीं है कि आप जिस दल को जिताना चाहते हैं, उसके लिए दिन रात मेहनत करने वाले कार्यकर्ताओं के प्रति आपकी कोई सहानुभूति नहीं है. आप दूसरे दल से आए उम्मीदवार को वोट कर देते हैं. हर दल में दलबदल ब्रांच है. दल और दलबदलू दोनों ही मौकापरस्त होते हैं. यह भी सही है कि टिकट बंटने के दो-तीन दिन तक ही दलबदलू और परिवारवाद का मुद्दा हावी रहता है. उसके बाद रैलियां शुरू होते ही सारा मंज़र कुछ और हो जाता है. दलबदल और परिवारवाद का मुद्दा समाप्त हो जाता है. फिर अगले चुनाव में उभरता है.

गाज़ियाबाद ज़िले में विधानसभा की पांच सीटे हैं. यहां भाजपा ने एक दलबदलू को टिकट दिया है. कांग्रेस ने भी एक दलबदलू को टिकट दिया है. बसपा ने किसी दलबदलू को टिकट नहीं दिया है. हापुड़ ज़िले में विधानसभा की तीन सीटें हैं. बसपा ने किसी दलबदलू को टिकट नहीं दिया है. सपा ने भी किसी दलबदलू को नहीं दिया है. बीजेपी ने एक दलबदलू को टिकट दिया है. पूर्व सांसद रमेश चंद्र तोमर जिन्हें 2014 में कांग्रेस ने नोएडा लोकसभा से टिकट दिया था. तोमर ने ऐन वक्त पर चुनाव लड़ने से मना कर दिया और बीजेपी में शामिल हो गए. चार बार बीजेपी से सांसद रहे हैं. 2009 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं.

इलाहाबाद में विधानसभा की 12 सीटें हैं. बसपा ने एक दलबदलू को टिकट दिया है. भाजपा ने 8 नामों की घोषणा कर दी है जिसमें से 5 दलबदलू हैं. सपा और कांग्रेस ने एक भी दलबदलू को टिकट नहीं दिया है. बुलदंशहर ज़िले में विधानसभा की सात सीटें हैं. यहां से भाजपा, बसपा ने एक-एक दलबदलू को टिकट दिया है. राष्ट्रीय लोकदल ने पांच दलबदलूओं को टिकट दिये हैं. रालोद के टिकट पर सपा और भाजपा से आए नेता चुनाव लड़ रहे हैं. बनारस ज़िले में आठ सीटें हैं. भाजपा, सपा और कांग्रेस ने यहां आधिकारिक रूप से नाम की घोषणा नहीं की है. बसपा ने किसी दलबदलू को टिकट नहीं दिया है. नामों की घोषणा कर दी है.

बलिया में सात विधानसभा सीटे हैं. बसपा ने अभी तक एक दलबदलू को टिकट दिया है. सपा ने 6 सीट पर नामों की घोषणा कर दी है मगर किसी दलबदलू को टिकट नहीं दिया है. भाजपा ने एक ही सीट की घोषणा की है, दलबदलू को नहीं दिया है. हल्ला हंगामा से लगता है कि सारे दलों ने मूल कार्यकर्ताओं की अनदेखी की है और बाहरी को ही टिकट दिया है. मगर ज़िलावार जाकर देखने से लगता है कि दलबदलू तो सबके यहां हैं. किसी ज़िले में कम हैं या किसी किसी में बहुत ज़्यादा. 'दैनिक भास्कर' ने लिखा है कि भाजपा ने अभी तक 300 उम्मीदवारों में से 30 दलबदलुओं को टिकट दिया है. एक दूसरा मसला है परिवारवाद. इस बार बीजेपी में कई परिवारों को टिकट मिला तो कांग्रेस, सपा और बसपा के भीतर के परिवारवाद पब्लिक की नज़र से बच गए. बीजेपी ज़रूर परिवारवाद का विरोध करती है, लेकिन अब उसके नेता गांधी परिवारवाद और अपने यहां के पिता-पुत्रों की राजनीति के परिवारवाद से फर्क कर रहे हैं.

कांग्रेस के रणदीप सुरजेवाला ने जवाब नहीं दिया. वो ख़ुद एक राजनेता के पुत्र हैं. बीजेपी के ओम माथुर ने जवाब दिया कि वो गांधीपरिवार के वंशवाद और भाजपा के भीतर के नए नए परिवारों में फर्क करते हैं. उनके कहने का अर्थ है कि कांग्रेस में गांधी परिवार तो सिर्फ ऊपर की कुर्सी पर बैठता है. बीजेपी में परिवार के सदस्य को कार्यकर्ता से ऊपर की ओर चढ़ना पड़ता है. संगठन में काम करने पड़ते हैं. हमने कुछ दिन पहले यूपी बीजेपी के भीतर परिवारवाद की गिनती की थी. उसमें कई नाम जुड़ गए हैं.

बीजेपी के भीतर कल्याण परिवार सपा परिवार का मुकाबला करता लग रहा है. कल्याण सिंह राज्यपाल हैं. उनके बेटे बीजेपी से सांसद हैं. बेटे के बेटे को विधानसभा का टिकट मिला है. बहू को भी टिकट मिला है. पंकज सिंह को टिकट मिलने के साथ ही राजनाथ परिवार दौड़ में आ गया है. सांसदों और नेताओं की पत्नियों, बेटों और बहू के नाम के आधार पर भाजपा के भीतर के परिवारों के नाम इस प्रकार हैं ब्रजभूषण परिवार, सर्वेश परिवार,  कौशल किशोर परिवार, मौर्य परिवार, टंडन परिवार, हुकूम परिवार, राही परिवार, कटियार परिवार, शास्त्री परिवार, वाजपेयी परिवार, त्रिपाठी परिवार, गंगवार परिवार, चुलबुल सिंह परिवार,  श्रीवास्तव परिवार, राय परिवार, कपूर परिवार.

इसका मतलब यह नहीं कि बसपा, कांग्रेस और सपा में परिवारवाद बंद हो गया है. यूपी में मुलायम सिंह कुनबे का कोई परिवार मुकाबला नहीं कर सकता है. मुलायम सिंह यादव के कुनबे की लिस्ट इतनी लंबी होती जा रही है कि एक दिन इस परिवार से यूपी को तीन चार दल तो मिलेंगे ही. इस चुनाव में भी यादव परिवार के दो नए संस्करण लॉन्च हुए हैं. रामगोपाल यादव के भांजे अरविंद सिंह यादव को कन्नौज की छिबरामऊ सीट से टिकट मिला है. फेरारी कार वाले प्रतीक यादव की पत्नी अपर्णा यादव को लखनऊ कैंट से टिकट मिला है. इसके अलावा सपा में आज़म परिवार, अग्रवाल परिवार, अंसारी परिवार जैसे कई परिवार हैं.

कांग्रेस ने पंजाब में कई टिकट परिवारवाद के आधार पर बांटे हैं. बल्कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने परिवारवाद के नाम पर टिकट की मांग को देखते हुए 'एक परिवार एक टिकट' का अजूबा नियम निकाला. मीडिया रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस ने परिवारवाद के आधार पर 13 टिकट दिये हैं. हर दल ने परिवारवाद के आधार पर टिकट दिये हैं, मगर इस तरह के कोटे का श्रेय कैप्टन साहब को ही जाना चाहिए. गोवा और यूपी के लिए कांग्रेस ने ऐसा नियम नहीं बनाया है. गोवा में कांग्रेस ने बाप-बेटे को टिकट दिया है. पति-पत्नी को टिकट दिया है. बसपा में भी परिवारवाद के आधार पर टिकट मिले हैं.

अब मतदाता को तय करना है कि वो चुनाव में सरकार चुने या उम्मीदवार चुने. उम्मीदवार चुनते वक्त दल-बदल, परिवारवाद का भी इलाज करे. वैसे मतदाता का काम उम्मीदवार चुनना होता है, सरकार चुनना उसका काम नहीं है. आप मतदाता ही बता सकेंगे कि राजनीति और राजनीतिक दल के भीतर प्रतिभाओं को कौन ज़्यादा रोक रहा है. पैसा या परिवारवाद. एडीआर के आंकड़े के अनुसार लोकसभा में करोड़पति सांसदों की औसत संपत्ति 14 करोड़ बताई जाती है. पैसे वाले राजनीति में आएंगे तो चुनाव महंगे ही होते जायेंगे. इस प्रक्रिया में नई प्रतिभाओं के लिए चांस कम रह जाता है. राजनीति परिवारों के आस पास घूमती रहती है. आप पार्टी तो बदल सकते हैं मगर परिवार नहीं बदल सकते. पार्टी के साथ-साथ पैसा और परिवार भी पैकेज में जुड़ा होता है

भारतीय राजनीति बनावटी होती जा रही है. थोड़े बहुत अंतरों के साथ हर दल का एक सा ही पैटर्न दिखता है. पत्रकारों की दुविधा देखिये. पहले वे दादा जी को कवर करते थे, फिर उनके बेटे या बेटी को कवर करने लगे, अब नाती पोतों को कवर करना पड़ रहा है और कर भी रहे हैं. लिखने और बोलने के लिए राजनीति में नई प्रतिभाएं बहुत कम दिखाईं दे रही हैं.

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