वक्त को करवट लेने से रोका नहीं जा सकता। फाइलों में कैदी की सज़ा भुगत रहे इतिहास के नन्हे-नन्हे टुकड़ों ने उड़ान भरना सीख लिया है। फलस्वरूप आज़ादी की कहानी का एक नया चेहरा उभरता हुआ दिखाई दे रहा है। यहां तक कि राजनीति के खेल का भी।
अभी-अभी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी कुछ अन्य गोपनीय सरकारी फाइलें सामने आई हैं, जिनमें से एक में इस बात का ज़िक्र है कि तथाकथित मृत्यु के बाद सुभाष ने तीन बार रेडियो से ब्रॉडकास्ट किया था, जबकि कहा यह जा रहा था कि 18 अगस्त, 1945 को ताइवान में हुई एक हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो चुकी है।
अब आप सुभाष की मृत्यु के बाद की उनकी इन तीन आवाज़ों को पढ़ें -
पहला ब्रॉडकास्ट, दिनांक 26 दिसंबर, 1945
''मैं फिलहाल एक महान विश्वशक्ति के संरक्षण में हूं... मेरा हृदय भारत के लिए जल रहा है... मैं तीसरे विश्वयुद्ध के चरम पर भारत जाऊंगा... यह वक्त 10 साल में आ सकता है या उससे पहले भी...''
दूसरा ब्रॉडकास्ट, दिनांक 1 जनवरी, 1946
''हमें दो साल में आज़ादी पानी है... ब्रिटिश समाजवाद टूट गया है और उसे भारत को आज़ादी देने के बारे में विचार करना चाहिए... भारत को अहिंसा के जरिये आज़ादी नहीं मिल सकती, लेकिन मैं महात्मा गांधी का बहुत आदर करता हूं...''
तीसरा ब्रॉडकास्ट, फरवरी, 1946
''मैं सुभाष चंद्र बोस बोल रहा हूं... जय हिन्द... जापान द्वारा आत्मसमर्पण किए जाने के बाद यह तीसरा मौका है, जब मैं भारत के अपने भाइयों और बहनों को संबोधित कर रहा हूं...''
ज़ाहिर है, यह जानकारी आज़ाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को थी। इस बात की तसदीक भी फाइलें यह बताते हुए करती हैं कि वर्ष 1948 से 1968 तक सरकार लगातार इंटेलिजेंस ब्यूरो के जरिये सुभाष के परिवार के सदस्यों तथा विदेश में रह रही उनकी पत्नी पर पूरी निगरानी रख रही थी। आखिर नेहरू जैसा लोकतांत्रिक नेता ऐसा क्यों कर रहा था, इसका विश्लेषण आने वाला वक्त करेगा, लेकिन इसके बीज इन दोनों नेताओं के पूर्व संबंधों, परिस्थितियों एवं वैचारिकता में देखे जा सकते हैं।
उम्र में भले ही नेहरू सुभाष से नौ साल बड़े थे, लेकिन जहां तक राष्ट्रीय कद का सवाल था, सुभाष नेहरू से कई गुना बड़े थे। सुभाष के पास विद्यार्थी जीवन से लेकर भारतीय सिविल सर्विस जैसी सर्वाधिक प्रतिष्ठापूर्ण नौकरी तक को ठुकरा देने के कार्य थे, जिन्होंने उन्हें उत्कट राष्ट्रप्रेमी और अंग्रेजों का घोर विरोधी सिद्ध कर दिया था। नेहरू के पास ऐसा कुछ नहीं था। सच यह है कि यदि नेहरू के पीछे उनके पिता मोतीलाल नेहरू और उनके आगे बापू नहीं होते, तो नेहरू कतई इतने आगे नहीं निकल सकते थे। इस बारे में नेहरू स्वयं को तो जानते ही थे, सुभाष को भी जानते थे। और जब सुभाष ने सन् 1939 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए बापू के उम्मीदवार को हरा दिया, तो निश्चित रूप से नेहरू चौकन्ने हुए होंगे। उन्हें यह राजनीतिक अनुमान लगाने में कोई दिक्कत नहीं हुई होगी कि 'बापू के बाद सुभाष', जबकि उनकी इच्छा थी, प्रबल इच्छा थी - बापू के बाद नेहरू। नेहरू सुभाष की क्षमता और लोकप्रियता, दोनों से बुरी तरह घबराये हुए थे।
अब, जब इतिहास पर डाला गया पर्दा उठ रहा है, निश्चित रूप से इससे उत्पन्न कई-कई प्रश्नों के उत्तर उनकी पार्टी को देने होंगे, जबकि संकट की इस घड़ी में कांग्रेस की जो दिमागी हालत है, इससे किसी ठोस और संतोषजनक उत्तर की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसमें कोई दो मत नहीं कि आगामी चुनावों में कांग्रेस को इस खुलासे से काफी नुकसान उठाना पड़ेगा, क्योंकि गैरकांग्रेसी पार्टियां, विशेषकर उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे को उठाने में सबसे आगे रहेगी।
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Apr 04, 2016
'खुफिया' सरकारी फाइलों में दफन सुभाष चंद्र बोस का सच
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:अप्रैल 04, 2016 09:25 am IST
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Published On अप्रैल 04, 2016 09:21 am IST
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Last Updated On अप्रैल 04, 2016 09:25 am IST
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