हर काम के पूरा होने के बाद प्राप्त परिणाम हमें उस कार्य के बारे में तर्कपूर्ण ढंग से विचार करके भविष्य के लिए व्यावहारिक कदम उठाने का एक अनोखा अवसर उपलब्ध कराते हैं. सिविल सेवा परीक्षा के पिछले चार साल के परिणामों को इस एक महत्वपूर्ण तथ्ययुक्त अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए. सिविल सेवा के अभी-अभी घोषित परिणामों के अनुसार देश की इस सबसे कठिन एवं सर्वाधिक प्रतिष्ठित अखिल भारतीय परीक्षा में टॉप करने वाले कनिष्क कटारिया अनुसूचित जाति से हैं. साल 2015 की भी इसी परीक्षा में जिस साढ़े बाइस साल की टीना डॉबी ने टॉप किया था, वे भी आरक्षण के इसी समूह से थीं. निश्चित रूप से भारत इन दोनों परिणामों को आधार बनाकर इस बात पर गर्व कर सकता है कि उसने सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण देकर अब इतना अधिक सशक्त बना दिया है कि वे स्वतंत्र रूप से किसी से भी प्रतियोगिता करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सकते हैं. साथ ही यह भी कि ऐसा न केवल पुरूषों के साथ ही हुआ है, बल्कि महिलाओं के साथ भी हुआ है.
मेरा यह ब्लॉग इन्हीं परिणामों पर विचार करके भविष्य के लिए कुछ नई नीतियों एवं नई पहल करने पर है. नीतियां सरकार के हाथ में होती हैं. लेकिन पहल तो व्यक्तिगत स्तर पर भी की जा सकती है. आरक्षण वर्ग से होने और टॉपर होने के साथ ही टीना और कनिष्क में कई अन्य बहुत समानतायें ये हैं कि दोनों के पिता उच्च सरकारी पदों पर हैं. टीना की तो माँ भी अपने पति के समकक्ष ही थीं. यानी कि जातिगत आधार पर भले ही ये आरक्षित वर्ग में थे, लेकिन उस जातिगत आधार के आधार से दोनों काफी परे जा चुके थे. टीना की पढ़ाई-लिखाई जहाँ दिल्ली के एक बहुत श्रेष्ठ कॉलेज में हुई, वही कनिष्क आईआईटी मुम्बई के स्टूडेंट रहे. दोनों की परवरिश भी दिल्ली और जयपुर जैसे अच्छे एवं सर्वसुविधायुक्त नगरों में हुई. इन सबने उन्हें स्वाभाविक रूप से अपने वर्ग से ऊपर उठाकर देश के एक विशिष्ट वर्ग का सदस्य बना दिया. इसलिए इन दोनों के लिए 'आरक्षण' शब्द का प्रयोग करना न केवल इस शब्द के भावतत्व को ही प्रदूषित करना है, बल्कि जो सच में उसके हकदार हैं, उनका अपमान करना भी है. क्योंकि वे तो ऐसे नहीं है. मैं ऐसा इसके बावजूद कह रहा हूं कि वैधानिक रूप से मैं पूरी तरह गलत हूं.
यह एक अच्छा ठोस अवसर है, जब देश की सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को एक साथ बैठकर इस वर्ग के आरक्षण के प्रश्न पर बातचीत करनी चाहिए. यह बातचीत आरक्षण को बनाये रखने या इसे समाप्त करने पर नहीं होगी बल्कि इस पर हो कि कैसे उसके आधार को व्यापक बनाकर व्यावहारिक किया जाये. इसके लिए उनके पास अन्य पिछड़ा वर्ग क्रीमीलेयर का उदाहरण पहले से मौजूद ही है. अन्यथा पिछले 70 सालों में इन वर्गों में भी अब ऐसे कई टापू निर्मित हो चुके हैं, जिनकी थालियों में हमेशा मछलियां आती रहेंगी और वह भी, उनके अपने ही वर्ग के लोगों की थालियों के बदलें. दूसरी बात है- व्यक्तिगत स्तर की है. एक अफसर के बेटे होने के नाते कनिष्क इस सच्चाई को बहुत अच्छी तरह से जानते होंगे कि सिस्टम का हिस्सा बनकर सिस्टम को बदला नहीं जा सकता. यदि उन्हें विश्वास न हो, तो वे अपने ही शहर के साल 2013 के टॉपर गौरव अग्रवाल से पूछ सकते हैं. गौरव अग्रवाल ने तीन साल की ही नौकरी के बाद अपनी वेबसाइट पर एक लेख में अपनी बेचारगी को बहुत ही बेबाकी के साथ व्यक्त किया था. या फिर वे साल 2005 बैच के छत्तीसगढ़ कॉडर के आईएएस ओ.पी. चौधरी से पूछ लें, जिन्हें बदलाव के लिए राजनीति में जाना सही लगा.
खैर, मेरी कनिष्क से एक अपील है. राजनेता जब करेंगे तब करेंगे. आप परिवर्तन के लिए एक काम कर सकते है, और वह भी तुरंत. वह यह कि आप सार्वजनिक रूप से कहें कि “मैं अपने वर्ग के लोगों के व्यापक हित में यह घोषणा करता हूँ कि मेरी आने वाली पीढ़ी आरक्षण का लाभ नहीं लेगी.” यदि आपके पिता ने यह घोषणा की होती, तो आपके कैरियर पर रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा होता. विश्वास कीजिये कि अब यदि आप ऐसा करेंगे, तो आपके बच्चों के कैरियर पर भी कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा. और इसके साथ ही आरक्षण के मामले में एक नई क्रांति की शुरुआत हो सकती है. आप इसके अगुआ बन जायेंगे. आपका यह कदम समाज के लिए बहुत हितकारी होगा.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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