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This Article is From Apr 10, 2018

आंदोलनों का चिंतित करने वाला स्वरूप

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 10, 2018 10:01 am IST
    • Published On अप्रैल 10, 2018 10:01 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 10, 2018 10:01 am IST
एक सभ्य समाज में संदिग्धता के लिए कोई जगह नहीं होती. फिर भी यदि कोई व्यक्ति विशेष संदिग्ध हो जाये, तो चलेगा. यदि कोई संस्था संदिग्ध हो जाये, तो एक बार वह भी ढक जायेगा. लेकिन यदि कोई जनान्दोलन, और वह भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में, संदिग्ध हो जाये, तो इसे चलाते रहना व्यवस्था के भविष्य के लिए बेहद खतरनाक हो जाता है. पिछले दो सालों के अंदर हुए देश के तीन ऐसे जनसंघर्ष इसी खतरे की ओर संकेत करते हैं.

इनमें पहला आंदोलन देश के कुछ समुदायों द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर गुजरात, आन्धप्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में किये गये. हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पटेलों के लिए आरक्षण की मांग करने वाला आंदोलन इसका चरम रूप था. आरक्षण के विषय पर आंदोलन यह जानने के बावजूद किये और कराये गये कि इनका कोई भी परिणाम निकलने वाला नहीं है.
दूसरा तथाकथित आंदोलन, जिसे उत्पात कहना ज्यादा सही होगा, ‘पद्मावत’ फिल्म के विरोध में राजपूतों द्वारा करणी सेना के नेतृत्व में किया गया. यह जिद्द और हठ पर टिका आंदोलन था.

तीसरा अभी ताजा-ताजा अनुसूचित जनजातियों की प्रताड़ना से जुड़े कानून पर उच्चतम न्यायालय के एक संक्षिप्त से निर्देश के विरोध में किया गया. आंदोलन करने वाले इस बात तक से वाकिफ नहीं थे कि वे किसके विरोध में आंदोलन कर रहे हैं.
तीनों अलग-अलग होने के बावजूद इन तीनों में काफी कुछ समानतायें भी मिलती हैं. इन तीनों में कहीं भी विचारों की आधारभूमि दिखाई नहीं देती. क्षणिक आवेगों से प्रेरित ये विरोध मूलतः आंदोलन या संघर्ष कम, अविवेकपूर्ण प्रतिरोध का एक समुदायगत कृत अधिक मालूम पड़ते हैं. भीड़ का तो वैसे भी कोई विवेक नहीं होता. दुख की बात तो यह है कि राजनीतिक दलों ने भी इन्हें समझाने-बुझाने की कोई कोशिश नहीं की. उलटे ‘पद्मावत’ के मामले में तो वह तोड़फोड़ करने वालों के साथ खड़े नजर आये. शर्म की बात तो यह भी है कि खड़ा होने वालों में एक चेहरा राज्य सरकारों का भी था.

इन आंदोलनों में किसी को भी राष्ट्रीय स्तर का कहना तो दूर की बात है, कोई क्षेत्रीय स्तर तक का कहलाने लायक नहीं है. ये सभी क्षेत्र विशेष के एक छोटे से समूह के उग्र आवेग मालूम पड़ते हैं. जबकि इसी दौर में अनेक ऐसे ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे मौजूद थे, जो जबर्दस्त रूप से जनांदोलनों की मांग कर रहे थे. कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र में हुए किसानों का आंदोलन राष्ट्रव्यापी होना चाहिए था. लेकिन अब चूंकि भारतीय जनसंघर्षों का दायरा वर्ग से सिमटकर जाति और समुदाय पर आ टिका है, इस तरह की संभावनायें भी क्रमश: धूमिल पड़ती जा रही हैं. यह स्थिति राजनीतिज्ञों के स्थायी एवं निरापद कैरियर के लिए एक अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराता है. 

यदि गौर किया जाये तो ये तीनों विरोध समाज के वर्ग अथवा सरकार के विरुद्ध न होकर संविधान के विरुद्ध नजर आयेंगे. इन तीनों संघर्षों के मूल में संविधान के जिन प्रावधानों का विरोध दिखाई दे रहा है, वे हैं-आरक्षण की व्यवस्था, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा संवैधानिक उपचारों के मूल अधिकार. इन आंदोलनों का मनोविज्ञान प्रतिरोध का कम प्रतिशोध का अधिक महसूस हो रहा है.

इन सबके परिप्रेक्ष्य में इन सबसे भी अधिक चिंताजनक और खतरनाक स्थिति यह है कि इस भावनात्मक एवं अविवेकपूर्ण आवेश को नियंत्रित करने वाली कोई शक्ति दिखाई नहीं दे रही है. न तो संगठन के रूप में और न ही विचारों के स्तर पर.

बाकी दूसरी ओर सोशल मीडिया के फैलाव ने बिखरे हुई नकारात्मक ताकतों को एकजुट होने का एक सस्ता एवं तीव्रगति वाला माध्यम उपलब्ध करा दिया है. निश्चित रूप से इसके कारण राष्ट्रीय हितों के ऊपर निरंतर सामुदायिक हितों का प्राबल्य क्रमशः बढ़ता ही जा रहा है. भविष्य के लिए ये संकेत शुभ नहीं कहे जा सकते.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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