एक अच्छे पाठक और दर्शक को हर किरदार में प्रवेश कर उसे महसूस करना चाहिए. अपनी ज़िंदगी से निकल दूसरे की ज़िंदगी में प्रवेश करना ही पाठक होना है. वरना कहानी की डोर छूट जाती है. विमल मोहन और दिग्विजय सिंह देव की किताब हाथ में आई तो पुरानी याद भी कहीं से निकल आई. मैं अपनी ज़िंदगी के पन्ने पलटने लगा. किताब तो दीपा कर्माकर के ऊपर है मगर इस किताब में एक और किताब है. हरियाणा के महेंद्रगढ़ ज़िले के दिलीप सिंह की. मैं पढ़ते पढ़ते दिलीप सिंह होने लगा.
विमल मोहन ने लिखा है कि दलीप सिंह त्रिपुरा में जिमनास्टिक के जनक माने जाते हैं. 1964 में यह शख़्स त्रिपुरा पहुंचता है. सबसे पहले दस लड़कों में से चार को चुनता है. उन्हें ट्रेनिंग देता है. बाम्बे ले जाता है. अपने पैसे से उन्हें खिलाता है. उनमें से एक प्रतियोगिता में पदक जीत जाता है. दीपा कर्माकर के पैदा होने से बहुत पहले त्रिपुरा में जिमनास्टिक का बाग़ीचा तैयार करने वाले हरियाणवी दलीप सिंह के त्याग की कहानी पढ़ते पढ़ते जीने भी लगा. आंखें डबडबा गईं. मणिपुरी लड़की सुशीला से शादी करते हैं और त्रिपुरा में बस जाते हैं. 1987 में उनका निधन हो जाता है.
इसी महान दलीप सिंह के घर से पांच मिनट की दूरी पर पैदा होती है दीपा कर्माकर. दीपा ने दलीप सिंह को कभी नहीं देखा. मगर उनके क़िस्से सुनकर बड़ी होती रही. इस किताब की यही बात अच्छी लगी. अंजाम से पहले आग़ाज़ की तलाश है. कामयाबी शून्य में पैदा नहीं होती है. उसकी शुरुआत हमेशा किसी कामयाब शख़्स से नहीं होती. वहां से भी होती है जहां किसी की असफ़लता के अफ़सोस पड़े होते हैं.
स्कूल के दिनों में जिमनास्ट बनना चाहता था. यह चाहत कुल जमा चार दिनों की ही थी. फ़िज़िकल ट्रेनिंग सर सबको कुछ न कुछ सीखाते थे, मुझे नहीं. एक दिन कहा कि मैं भी जिमनास्टिक सीखना चाहता हूं. शारीरिक दुर्बलता के कारण मेरी पहचान आधे लीवर की थी. इसका लीवर से क्या रिश्ता था, पता नहीं. तीन चार दिनों तक स्कूल से घर लौट कर फिर स्कूल गया. छह किलोमीटर साइकिल चलाई कि बस अब जिमनास्ट बनना है. पहला दिन था. सामने फ़ायर डाइव. पीटी सर की सीटी की आवाज़. लंबू दौड़. मैं दौड़ता हुआ फ़ायर डाइव के पार. दूसरी तरफ धम्म की आवाज़. गिरते ही लगा सूरज की लाइन कट गई. मेरा पृथ्वी लोक से संपर्क टूट गया. अंधेरा छा गया. कुछ सेकेंड तक इस दुनिया से ग़ायब. अंधेरा छंटा तो समझ आया कि रूस की जिमनास्ट को टीवी पर देख उसके जैसे होने का ख़्वाब हमेशा के लिए अधूरा रहेगा. मैं जिमनास्ट नहीं बन सका. वर्ना क्या पता नंदी सर की जगह मैं दीपा का कोच होता!
मैं बहुत सारे अधूरे ख़्वाबों का बंडल हूं. मैं तेज़ गेंदबाज़ भी बनना चाहता था. पहले कपिल देव फिर कर्टली एम्ब्रोस और फिर अकरम. बमहत्था हूं इसलिए. तीन चार महीने क्रिकेट खेला हूं. हर बार लगता था कि मेरे अंदर वसीम अकरम दौड़ रहा है मगर गेंद कभी विकेट पर नहीं गई. हमेशा थर्ड स्लिप की तरफ चली जाती थी. फिर बैटिंग आती तो कोशिश होती थी कि रन बने न बने आउट नहीं होना है. क्योंकि मैं अंशुमन गायकवाड़ की तरह होना चाहता था. डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता!
हम जैसे आलसी लोगों के अधूरे ख़्वाबों की मलिका दीपा कर्माकर की किताब की सूचना आप तक पहुंचाते हुए ख़ुद को धन्य महसूस कर रहा हूं. जब वह मेडल से चूक गई थी तब मैंने लिखा था -
“जैसे ही दीपा ने दौड़ना शुरू किया, मेरे दिल की धड़कनें उसके साथ दौड़ने लगीं. मैं तो लेटा हुआ था, पर लगा कि पंजों पर खड़ा हूं. उस हवा से रश्क हो गया, जिसके साथ कोई इतनी ऊंचाई पर चली गई. उन चंद लम्हों में उसके जीवन का एक-एक पल कलाबाज़ी कर रहा होगा. भारत की दीपा की कलाबाज़ी उन सपनों की उड़ान है, जो अपनी तंग ज़िंदगी के एकांत में देखे जाते हैं. जहां न कोई मुल्क होता है, न मंत्री, न मीडिया न पैसा. खिलाड़ी अपने उस एकांत को चुपचाप किसी जुनून की तरह लादे रोज़ अभ्यास कर रहा होता है कि एक दिन उसका आएगा. आज वो दिन आ गया था.”
हमारे क़ाबिल मित्र विमल मोहन खेल को शिद्दत से जीते हैं. बहुत से खिलाड़ियों को तब से देखना शुरू करते हैं जब वह ख़ुद भी नहीं जानता होगा कि आगे क्या होगा. उनकी किताब आ गई है. टीवी में रहते हुए क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में दिलचस्पी दिखाना कैरियर में कम पाने का जोखिम उठाना है. विमल मोहन ने वही किया मगर हमेशा अपनी जानकारी से हमारे न्यूज़ रूम को समृद्ध किया है. विमल मोहन के कारण मैंने भिवानी की यात्रा की थी. बाक्सिंग में विजेंदर के मेडल के बाद भिवानी की कहानी नाम से एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी.
दीपा कर्माकर पर कुछ लिखना अपने बचपन के उस प्यारे दोस्त को याद करना होता है जो अब इस दुनिया में नहीं है. उसके नाम में भी कर्माकर था. हम साथ स्कूल जाते थे. हम दोनों की साइकिलें टकराती रहती थीं. वो हमेशा फ़र्स्ट आया. उसकी लिखावट इतनी सुंदर थी कि उसके जैसा ही लिखना चाहता था. वो जितना पढ़ता था मैं भी नक़ल में उतना ही पढ़ता था. वो हमेशा फ़र्स्ट आया और मैं हमेशा लास्ट. उसकी मुस्कुराहट आज भी यादों में खनक जाती है. दीपा कर्माकर जैसी शानदार खिलाड़ी है, वैसा ही जयंतो कर्माकर शानदार विद्यार्थी था. पढ़ने में बहुत ईमानदार था.
विमल मोहन और दिग्विजय सिंह देव की किताब का नाम है DIPA KARMAKAR, THE SMALL WONDER. FINGER PRINT से छपी है और 499 रुपये की है. हर स्कूल में ये किताब होनी चाहिए.
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