अस्पताल का कोविड आईसीयू वार्ड एक टी-20 मैच के मैदान की तरह होता है, जहां हर पल आपकी नजर बेड के ऊपर लगे इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड पर लगी होती है. इस डिस्प्ले बोर्ड पर आपके अपनों की पल्स, ऑक्सीज़न और बीपी की रीडिंग लगातार चलती रहती है. इन डिस्प्ले बोर्ड पर मरीज़ के तीमारदार की निगाहें टिकी रहती हैं. अगर ऑक्सीज़न का लेवल 1 पॉइंट बढ़ा तो न सिर्फ तीमारदार खुश होता है बल्कि मरीज़ को भी ज़िंदगी की आस जागने लगती है, अगर ऑक्सीज़न 1 पॉइंट कम हुई तो तीमारदार मायूस होने लगता है और मरीज़ ऑक्सीज़न लेवल कम होने के साथ गहरे अवसाद में जाने लगता है. इस तरह ये मैच कई- कई दिन तक चलता है, फिर एक दिन ऐसा आता है जब मरीज़ या तो पारी जीत जाता है या फिर डिस्प्ले बोर्ड में चल रहा स्कोर अचानक बन्द हो जाता है, ज़िंदगी हार जाती है और आत्मा शरीर को छोड़कर आईसीयू से कहीं दूर अनंत यात्रा पर निकल जाती है. ऊपर बैठा अंपायर सब तय कर रहा होता है.
मैं जबलपुर के विक्टोरिया अस्पताल में अपनी मां के साथ तीमारदार के तौर पर 11-12 दिन आईसीयू में रहा. अपनी आंखों के सामने लोगों को मरते देखा तो कई लोगों को ठीक होकर जाते भी देखा. मेरी माता जी उन भाग्यशाली लोगों में थीं जो कोरोना से कड़ा संघर्ष करने के बाद आखिरकार ठीक होकर घर लौट आयीं.
22 अप्रैल को मेरी तबियत अचानक बिगड़ी. शक हुआ कि कोरोना हो सकता है क्योंकि काम के सिलसिले में हर रोज ही बाहर जाना होता है. टेस्ट कराया तो शक पुख्ता हुआ और कोरोना का इलाज शुरू हो गया. मेरे दोस्तों और रिश्तेदारों ने दुआएं कीं. कई लोगों ने इस दौरान बहुत मदद की और मैं घर पर रहकर मई के पहले हफ्ते में काफी हद तक ठीक हो गया. उसी वक्त माता जी जो दिल्ली से करीब 500 किलोमीटर दूर उरई में घर में अकेली थीं, उन्हें पता नहीं कैसे कोरोना से जकड़ लिया. हल्का बुखार और खांसी होने पर भैया उन्हें तुरंत जबलपुर ले आये. दवा शुरू करने के साथ-साथ उनका एंटीजन और आरटी-पीसीआर टेस्ट हुआ, जो पॉजिटिव आया.
2 दिन घर में रहने के बाद उनका जब ऑक्सीज़न लेवल कम हुआ तो माता जी को जबलपुर के विक्टोरिया अस्पताल में भर्ती कराया गया और कोविड वार्ड में उनका ऑक्सीज़न सपोर्ट पर इलाज़ शुरू हो गया, लेकिन 5 मई से उनका ऑक्सीज़न लेवल और कम होने लगा, भैया घबड़ा गए और मुझे फोन किया. मैं 7 मई की सुबह जबलपुर पहुंच गया.
जाते ही घर में सामान रखकर सीधा विक्टोरिया अस्पताल गया. विक्टोरिया अस्पताल जबलपुर का जिला अस्पताल है. मेरे मन में ये बार बार आ रहा था कि जिला अस्पताल में क्या इलाज़ होगा वहां तो कुछ सुविधाएं भी नहीं होतीं हैं. उस अस्पताल में कोविड मरीज़ के साथ उसके एक तीमारदार को रहने की इजाज़त थी इसलिए मैं सीधा उसी वार्ड में गया जहां माता जी एडमिट थीं. उनके चेहरे पर मुझे देखते ही एक चमक सी आयी, लेकिन वो थोड़ी देर के लिए थी. दरअसल, उनकी हालत ऑक्सीज़न सपोर्ट में होने के बाद भी बिगड़ रही थी. उन्हें थोड़ी-थोड़ी देर में एकदम से घबराहट हो रही थी. उनका ऑक्सीज़न लेवल भी लगातार कम हो रहा था, हालांकि एक बात अच्छी थी कि अस्पताल में ऑक्सीज़न और दवा की कोई कमी नहीं थी.
शाम को अस्पताल की तरफ से उन्हें रेमडेसिविर इंजेक्शन का पहला डोज़ दिया गया, जो बिल्कुल फ्री था. इस इंजेक्शन के लिए दिल्ली ही नहीं पूरे देश में मारामारी थी, वो वहां हर जरूरतमंद मरीज़ को फ्री में दिया जा रहा था. मैं ये देखकर हैरान था कि कोई बेटी अपने पिता की, कोई भाई अपने भाई की, कोई पत्नी अपने पति की, कोई पति अपनी पत्नी की कोरोना वार्ड में बगैर अपनी परवाह किये सेवा कर रहा है जबकि ऐसे वक्त पर कई लोग ऐसे भी हैं जो मरीज़ के नज़दीक नहीं आते, उनका डर भी जायज़ है.
उसी यानि 7 मई की शाम को माता जी का ऑक्सीज़न लेवल और कम हो गया, फिर हमें लगा कि बिना आईसीयू के अब माता जी को बचाना मुश्किल हो जाएगा. उस वार्ड में एक दो मरीज़ चिल्ला रहे थे उन्हें भी घबराहट हो रही थी. उन्हें बार-बार नर्स आकर देख रहीं थीं, जब हमने पता किया तो पता चला कि अस्पताल में आईसीयू तो है, लेकिन उसमें सिर्फ 13 बेड हैं. मैंने अपने संपर्क के लोगों को फोन कर बेड के लिए मदद मांगीं. आईसीयू से बताया गया कि एक 35 साल का लड़का वहां क्रिटिकल है, अगर उसकी डेथ हो जाती है तो एक बेड खाली हो जाएगा. मेरे लिए ये बड़ा मुश्किल वक्त था कि मैं किसी के मरने का इंतजार करूं.
इस बीच हम दूसरे अस्पतालों के लिए कोशिश करने लगे. वहां मेडिकल कॉलेज भी है और एक प्राइवेट सिटी अस्पताल भी जिसका मालिक बाद में नकली रेमडेसिविर लगाने के आरोप में गिरफ्तार हुआ. इसी बीच, हमें विक्टोरिया अस्पताल के आईसीयू से फोन आया कि जो मरीज़ क्रिटिकल था उसकी मौत हो गयी है. डर और परेशानी के बीच वार्ड बॉय की मदद से माताजी को आईसीयू वार्ड में लाया. माता जी को बेड नम्बर 6 दिया गया. अस्पताल में इसी नबंर से मरीज़ की पहचान होती है. उसको दवा, इंजेक्शन वगैरह बेड नम्बर के हिसाब से दिए जाते हैं. आईसीयू में मरीज़ के साथ एक शख्स रह सकता था. मैं और भैया बारी-बारी से आते थे. मैं रात के वक्त रहता था तो भैया दिन में. आईसीयू में चूंकि सबसे ज्यादा गंभीर मरीज़ होते हैं इसलिए वहां लोगों को ये पहले ही बता दिया जाता है कि मरीज़ बच भी सकता है और उसकी मौत भी हो सकती है इसका जिम्मेदार अस्पताल का स्टाफ नहीं होगा. वहां माता जी को ऑक्सीज़न का अच्छा प्रेशर मिलने के बाद भी उनका ऑक्सीज़न लेवल और कम होता गया. बीपी और शुगर भी काफी ज्यादा बढ़ गया, लेकिन मैं अस्पताल में इसी उम्मीद के साथ गया था कि वो ठीक होकर ही लौटेंगी.
अगले 2-3 दिन उनकी हालत और बिगड़ी. उन्होंने खाना भी बंद कर दिया. उन्होंने ये भी कहा कि अब मैं नहीं बचूंगी. आईसीयू में इसी बीच एक 41 साल के लड़के की मौत हो गयी, जो माता जी के ठीक बगल वाले 5 नम्बर बेड पर था. मौत से एक दिन पहले उसने मुझसे कहा था कि माता जी के लिए प्रोटीन बिस्किट ले आओ, मैं भी खा रहा हूँ काफी बढ़िया है और अगले ही दिन वो चल बसा. इस नौजवान की पत्नी एक दूसरे अस्पताल में नर्स है वो खुद उसका मनोबल बढ़ाने के साथ साथ उसके इलाज में मदद करती रही, लेकिन वो नहीं बच सका. किसी भी मौत से आईसीयू में सन्नाटा छा जाता. सभी मरीज़ मानसिक तौर पर टूटने लगते थे. किसी की पल्स, किसी का बीपी तो किसी की ऑक्सीज़न कम होने लगती थी. फिर मरीजों के तीमारदार उन्हें हौंसला देने की कोशिश करते, उनसे झूठ बोलते कि तुम्हारा सब ठीक है, ऑक्सीज़न भी ठीक है, जिससे उनके मन में नकारात्मक विचार न आए, और एक बार फिर ज़िंदगी की आस लिए मरीज़ ठीक होने का इंतज़ार करने लगते. दिन हो या रात मरीजों के तीमारदारों की नज़र बेड के ऊपर लगे इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड पर ही रहती. हर कोई टकटकी लगाए यही देखता की कहीं ऑक्सीज़न कम तो नहीं हुई, बीपी ठीक है, धड़कन ठीक है.
बेड पर पड़े अधिकतर मरीजों की हालत ऐसी थी कि वे खुद से न तो वो वाशरूम जा सकते थे और न ही कुछ खा सकते थे, उन्हें वहां ऐसी देखभाल की जरूरत होती है जो कोई परिवार का सदस्य ही कर सकता है. मरीज़ मौत का तांडव देख वहां मानसिक तौर पर टूट जाते हैं. ऐसे में कोई घर का सदस्य उनके साथ न हो तो वो अकेलेपन और अवसाद में जाने लगते हैं. ये मैं आईसीयू में रहकर लगातार महसूस कर रहा था. शायद यही वजह है कि अधिकतर जगहों पर कोरोना मरीजों की मौत काफी ज्यादा हो रही है क्योंकि परेशानी में उनके साथ उनका ख्याल रखने वाला कोई नहीं होता, अस्पताल में एक तरह से वो असहाय हो जाते हैं.
आईसीयू में इलाज़ के साथ धीरे-धीरे माता जी का ऑक्सीज़न लेवल बढ़ने लगा और 2-3 दिन बाद उन्होंने लिक्विड डाइट से थोड़ा-थोड़ा खाना शुरू किया. फिर हम उन्हें वो हर चीज़ खिलाने की कोशिश करते जिससे वो जल्दी स्वस्थ्य हों. धीरे धीरे हमारी दोस्ती वहां मरीजों और उनके तीमारदारों से भी हो गयी. हम सबका मनोबल बढ़ाने की कोशिश करते. पूरा दिन और पूरी रात वेंटिलेटर का आवाज़ हमारे कानों में गूंजती थी और मैं उसका आदी भी हो गया था. माता जी में और सुधार हुआ. इसी बीच 2-3 मरीज़ आईसीयू से ठीक होकर घर भी चले गए. ये बात भी हमने माता जी को बताई, लेकिन उनकी जगह दूसरे गंभीर मरीज़ आ जाते थे. हर तीमारदार 24 घण्टे अलर्ट मोड पर ही रहता था. किसी मरीज़ को तकलीफ बढ़ती तो तुरंत डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ आता था. एक और गौर करने वाली बात मुझे ये लगी कि जिन मरीजों का ऑक्सीज़न लेवल धीरे-धीरे आगे पीछे होता था उनके स्वस्थ्य होने की संभावना ज्यादा रहती थी और जिन मरीजों का ऑक्सीज़न लेवल एकदम से नीचे ऊपर होता था उनकी मौत ज्यादा हो रही थी.
अगली मौत बेड नम्बर 5 पर लेटे जबलपुर के स्थानीय पत्रकार विनोद शिवहरे की हुई. वो करीब 1 महीने से आईसीयू में थे. उनके बेटों ने बताया कि वो बीच में ठीक हो गए थे, लेकिन फिर अचानक से उनकी तबियत बिगड़ी और लंबे इलाज़ के बाद भी उनकी मौत हो गयी. इधर विनोद का शव निकाला गया तो दूसरा मरीज़ उनके बेड पर पहुंच गया. मैं मां के पास रात के वक्त होता था, अब वो ठीक हो रही थीं, लेकिन दवाओं के नशे में ज्यादातर समय सोती रहतीं थीं. बीच-बीच में थोड़ी बातचीत करती थीं या इशारा करती थीं. रात में सोते वक्त कुछ मरीजों के ऑक्सीज़न मास्क निकल जाते थे जब उन्हें ऑक्सीज़न की कमी से तेज घबराहट होती तो वो बिस्तर पर तड़पड़ाते . इसे लेकर हॉस्पिटल का नर्सिंग स्टाफ भी सज़ग रहता और मरीजों के परिजन भी.
मां के बगल वाले 7 नम्बर बेड पर एक बुज़ुर्ग महिला थीं, जब वो आईसीयू में भर्ती हुईं उनका ऑक्सीज़न लेवल बेहद कम था. उनके बुज़ुर्ग पति और दामाद उनकी खूब सेवा करते. उनके एकलौते बेटे की मौत काफी पहले हो गयी थी. वो चिड़चिड़ेपन के कारण अपने पति से झगड़ा भी करतीं, लेकिन फिर भी बुज़ुर्ग पति उन्हें खाना खिलाता, उन्हें बिस्तर पर ही शौच करवाता. जब वो ठीक होने लगीं तो रात के वक्त मुझसे कहतीं भैया देखो मेरा ऑक्सीज़न लेवल ठीक आ रहा है न, मेरे ऑक्सीज़न वाले जार में पानी भरा है न, मैं कहता कि माता जी सब ठीक है आप जल्दी स्वस्थ्य हो जाओगी. बुज़ुर्ग महिला के पति को भी आईसीयू में रहते रहते कोरोना हो गया, लेकिन उन्होंने पत्नी को नहीं बताया. एक दिन जब बुज़ुर्ग महिला अपने पति से झगड़ा कर रही थीं तो उन्हें किसी ने बताया दिया कि आपके पति कोरोना पॉजिटिव होने के बाद भी आपकी सेवा कर रहे हैं तो वो रोने लगीं.
एक नम्बर बेड पर एक खुराना जी भर्ती थे, वो लगभग ठीक हो गए थे. हालांकि, वो चाहते थे कि आईसीयू से बिल्कुल ठीक होकर निकले. इसी बीच रात में आईसीयू में एक बुज़ुर्ग की मौत हो गयी. ये बुज़ुर्ग आईसीयू में तकलीफ के कारण सबसे ज्यादा शोर मचाता था. अपने बेटों से कहता कि जान जा रही है मुझे बचा लो, लेकिन उस रोज मौत से काफी पहले ही उनका शोर थम गया था. उनके बेटे लगातार उनके हाथ पैर की मालिश कर रहे थे, लेकिन उनकी आत्मा ने शरीर का कब साथ छोड़ा पता ही नहीं चला.
उसी रात करीब 40 साल के एक नौजवान की मौत हो गई. नौजवान की पत्नी एक नर्सिंग कॉलेज में पढ़ाती थी ,वो रात भर अपने पति के कानों में कहती रही कि तुम मुझे छोड़कर नहीं जाना. मैं अकेले 2 बेटियों को नहीं पाल पाऊंगी, प्लीज़ मत जाना, लेकिन सुबह 5:30 बजे जब अचानक बेड के ऊपर लगे डिस्प्ले बोर्ड की लकीर सीधी हो गयी, तो वो समझ गयीं. उन्होंने कहा कि नर्स को जल्दी बुलाओ, मैं तुरंत गया. इस बीच, उन्होंने अपने पति को सीपीआर दिया, जिससे कुछ सेकेंड के लिये डिस्प्ले बोर्ड में फिर हलचल हुई, लेकिन फिर सीधी लकीर खिंच गयी और उसे मृत घोषित कर दिया गया.
अगले दिन दोपहर में आईसीयू में एक महिला की मौत हो गयी. खुराना जी के साथ बाकी मरीजों की हालत भी ये सब देखकर बिगड़ गई. वो कहने लगे मुझे आईसीयू से जल्दी निकालो. हम लोग ऐसे माहौल में माता जी के आसपास परदा लगा दिया करते थे, लेकिन वो समझ जाती थीं कि कोई मर गया है. ये तीन शव बाहर तो तुरंत अगले 3 मरीज़ उन बेड पर आ गए. ये सिलसिला चलता रहा.
एक दिन तो आईसीयू की ऑक्सीज़न 3-4 मिनट के लिए बन्द हो गयी. मरीज़ तड़पने लगे. मुझे दिल्ली के अस्पतालों में ऑक्सीज़न की कमी से हुए हादसे याद आ गए. इसलिए मैंने ये भी पता किया कि यहां ऑक्सीज़न कहां से आती है. पता चला कि अस्पताल में एक ऑक्सीज़न प्लांट है और बैकअप के लिए ऑक्सीज़न सिलेंडर का स्टोर भी है. सुबह-सुबह वहां पुलिस भी आती ये चेक करने की ऑक्सीज़न है या नहीं. पता चला कि ये रिपोर्ट हर रोज वहां के कलेक्टर कर्मवीर शर्मा को जाती है. कर्मवीर शर्मा से जब फोन पर बात हुई तो उन्होंने कहा कि वो कोविड मरीजों के लिए सभी व्यवस्थाओं की खुद निगरानी कर रहे हैं.
माता जी आईसीयू में 11-12 दिन रहीं और अब स्वस्थ्य होकर घर लौट आयी हैं. मेरे मन में जो सरकारी अस्पतालों की छवि है उसे विक्टोरिया अस्पताल ने तोड़ा है. यहां रेमडेसिविर से लेकर लगभग सभी दवाइयां फ्री मिलीं. यहां का नर्सिंग स्टाफ बहुत ही अच्छा था. यहां के युवा डॉक्टर संतोष रूपाले की भी तारीफ करना चाहूंगा वो हर रोज आईसीयू में आते, मरीजों के परिवार के सदस्य की तरह बात करते, हर मरीज़ को समय देते, इलाज़ के साथ-साथ किसे वेंटिलेटर की जरूरत है किसे नहीं ये तय कर गंभीर मरीज़ को वेंटिलेटर लगाते, खराब पड़े वेंटिलेटर से माथा पच्ची करते, आईसीयू में मौजूद हर मरीज़ और घरवाले उनकी तारीफ करते नहीं थकते थे. अस्पताल के सीनियर डॉक्टर नीलकमल सुहाने और मित्र यतींद्र शर्मा का भी खासतौर पर शुक्रिया. उन्होंने मेरी बहुत मदद की. सभी शुभचिंतकों का आभार, जो लगातार फोन कर हालचाल लेते रहे. हां हर सरकारी अस्पताल में कामचोर कर्मचारी या डॉक्टर होते हैं वो यहां भी हैं, लेकिन जो काम कर रहे हैं वो 24 घण्टे बिना अपनी परवाह किये सेवा कर रहे हैं.
वहां की यादें अब भी हमारे साथ हैं, जो लोग भर्ती है उनके परिवार के लोग हमें फोन कर माता जी का हालचाल पूछते रहते हैं और हमारे पास भी जिनके मोबाइल नम्बर हैं. हम उनके घरवालों से पूछते हैं कि अभी वो आईसीयू में हैं या बाहर निकल आये.
मुकेश सिंह सेंगर NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर हैं...
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