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This Article is From Oct 24, 2017

भारतेंदु हरिश्चंद्र के कॉलेज की दुर्दशा, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 24, 2017 23:36 pm IST
    • Published On अक्टूबर 24, 2017 21:08 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 24, 2017 23:36 pm IST
'अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा', सिर्फ एक दिन में बनारस के दशाश्वमेध घाट पर बैठकर भारतेंदु हरीश्चंद्र ने यह नाटक लिख दिया था. 1881 का यह नाटक 2017 में भारतेंदु जी के ही बनाए कॉलेज में लौट आया है. भारतेंदु जी ने एक स्कूल की स्थापना की थी, जो आगे चल कर कॉलेज में बना और आजकल चल तो रहा है मगर आगे नहीं चल पा रहा है. हम अपनी भाषा पर गौरव सिर्फ दंगा करने के लिए करते हैं, संस्था बनाने के लिए नहीं. संस्था बनाने के लिए करते तो आज भारतेंदू जी के बनाए कॉलेज की ऐसी हालत न होती. यूनिवर्सिटी सीरीज का यह 12वां अंक है. बनारस में सब बीएचयू नहीं होता है. महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ होता है, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय होता है. बनारस ज़िले में पांच यूनिवर्सिटी हैं. ज़िले में आठ सरकारी कॉलेज हैं. कॉलेज का हाल भी जानेंगे मगर भारतेंदु जी के बारे में थोड़ा जान लेते हैं. 

बनारस में दो ही तो हरीशचंद्र हुए. एक राजा हरीशचंद्र और दूसरे भारतेंदु हरीशचंद्र. भारतेंदु जी की ज़िंदगी मात्र 34 साल, 3 महीने की रही. इतने कम समय में भी उन्होंने हिन्दी को जीने के लिए कई सदियां दे दीं. कुछ कमाल के नाटक लिखे. भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी, विषस्य विषमौशधम, प्रेम जोगिनी, निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल. उन्हीं का कहा हुआ है जिसका मतलब भाषा के विकास से ही विकास के सारे रास्ते खुल सकते हैं. मगर अब तो प्रगति, उन्नति और तरक्की सब विकास में समाहित हो चुके हैं. आज जो आप हिन्दी कहानी कविता पढ़ते हैं, इसकी बुनियाद भारतेंदु हरिश्चंद ने रखी थी. पत्रकारिता के ज़रिए समाज को बदलने का सपना, बराबरी के लिए हक़ मांगती स्त्रियां, ये सब भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने छोटे से जीवन में हमें दिया है. अंधेर नगरी की कल्पना भारतेंदु जी ने सिर्फ ब्रिटिश राज के लिए नहीं की थी, ऐसा होता तो 15 अगस्त, 1947 के बाद ये मुहावरा ही मर जाता, अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी, टके सेर खाजा.

यह नाटक कमाल का है. इसी की एक पंक्ति में है 'चूरन खावै एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहीं बात, चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिन्द हजम कर जाता. चूरन पुलिस वाले खाते, सब कानून हजम कर जाते'. इसलिए सत्ता के उस चूरन से बचिए जो आपको हजम कर रहा है. आज भारत की यूनिवर्सिटी की हालत देखिए, यह दुनिया का अकेला ऐसा देश होगा कि जिसकी कक्षा में गुरु नहीं है, फिर भी वहां आने वाले छात्रों को विश्व गुरु बनाने का चूरन हजम करवाया जा रहा है.

'रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई, हाहा! भारत दुर्दशा न देखी जाई', हे भारत के लोग, भारतवासी, तुम सब आओ, मिलकर रोओ क्योंकि मुझसे भारत की दुर्दशा देखी नहीं जा रही है. यही मतलब है उनकी इस पंक्ति का. भारतेंदु जी ने एक स्कूल की स्थापना की जो बाद कॉलेज बना. उस कॉलेज की दुर्दशा नहीं देखी जा सकती है, मगर उसके लिए सारा भारत मिलकर नहीं रोएगा, भारत कहां-कहां के और किस-किस के कॉलेजों की दुर्दशा पर रोएगा. आपने बनारस के संपूर्णानंद संस्कृत यूनिवर्सिटी का हाल तो देखा ही था, आज बनारस के भारतेंदु हरीशचंद्र कॉलेज का भी हाल बताएंगे. मेहनत हमारे सहयोगी अजय सिंह की है, प्रस्तुति मेरी है और दृश्य निर्माण और साज-सज्जा भारतीय व्यवस्था के उपेक्षा मंत्रालय की है. कॉलेजों को देख कर यही लगता है कि भारत वर्ष में मानव संसाधन विकास मत्रालय नहीं, मानव संसाधन उपेक्षा मंत्रालय चल रहा है.

बनारस का मैदागिन इलाका में है हरीशचंद्र डिग्री कॉलेज. इस कॉलेज की स्थापना उन्हीं की ट्रस्ट ने की थी. 1866 का साल था उन्होंने शिक्षा के महत्व को जन-जन तक पहुंचाने के लिए चौखम्बा स्थित मकान में 5 छात्रों को लेकर एक पाठशाला की नींव रखी. इसका नाम चौखम्बा स्कूल था. 1910 तक यह हाई स्कूल में बदल गया और 26 नवंबर, 1909 को तत्कालीन लेफ्टिनेंट गर्वनर सर जॉन हिवेट ने मैदगिन में नए भवन का शिलान्यास किया. 1939 में यहां इंटरमीडिएट की कक्षाएं शुरू हुईं और 4 अक्तूबर, 1951 को यह कॉलेज बन गया. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से यह कॉलेज संबंद्ध है. 1960 में गोरखपुर विश्वविद्लाय से जुड़ गया. उसके बाद यह कॉलेज पूर्वांचल यूनिवर्सिटी से जुड़ा हुआ है. आजकल महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से जुड़ा हुआ है. दुनिया का यह अनोखा कॉलेज है जिसे कॉलेज जैसा होने का भले ही सौभाग्य न प्राप्त हुआ है मगर चार-चार यूनिवर्सिटी से संबंद्ध होने का सौभाग्य ज़रूर प्राप्त हुआ है.

इसकी दुर्दशा बता रही है कि यह अब महा विद्यालय नहीं, अहा विद्यालय हो गया है. मीडिया और राजनीति और खुद बनारस के लोगों ने बनारस के साथ एक अन्याय किया है. सारे शहर की विरासत को दो-चार चौक, घाट और गोलबंर तक में समेट दिया है. यही कारण है कि हम बनारस में बीएचयू और घाट के बारे में ही ज़्यादा जानते हैं जबकि बनारस में इसके अलावा भी बहुत कुछ है. अजय सिंह ने काफी मेहनत की है इसलिए हम भी आराम-आराम से बता रहे हैं कि कैसें हम सबने आराम-आराम से उच्च शिक्षा को निम्न शिक्षा में बदल दिया है.

8000 छात्र यहां पढ़ते हैं, सोचिए जिस कालेज में 8000 छात्र पढ़ते हों उस कॉलेज में आपने किसी नेता को जाकर फोटो खींचाते देखा है, कभी नाम सुना है, मैंने भी नहीं सुना था. इतना बीएचयू-बीएचयू होता है कि ये 8000 भी खुद को बीएचयू का ही समझते होंगे. इनकी अपनी कोई व्यथा ही नहीं है, जैसे हर व्यथा की एक ही कथा है, बीएचयू और बीएचयू के काबिल वाइस चांसलर. बहरहाल 8000 छात्रों के लिए इस कॉलेज को 3 शिफ्ट में चलाया जाता है. यह कॉलेज सुबह साढ़े सात बजे जागता है, आर्टस, कॉमर्स, सांइंस और लॉ के छात्रों को पढ़ाकर शाम साढ़े सात बजे बंद हो जाता है. मात्र 2 बीधे ज़मीन में यह महाविद्यालय बना हुआ है, 8000 छात्रों के लिए मात्र 40 कमरे हैं. लड़के-लड़कियां भी देर शाम की शिफ्ट में होते हैं.

भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री, नेपाल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. विशेश्वर प्रसाद कोइराला, यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. डॉ. संपूर्णानंद, बंगाल के भूतपूर्व राज्यपाल स्व. त्रिभुवन नारायण सिंह और ब्रिगेडियर उस्मान जैसे शख्स इस कॉलेज से पढ़कर निकले हैं. 

शहर के बीचोंबीच है यह कॉलेज, मगर कॉलेज के गेट पर टैक्सी स्टैंड है. दूर-दराज़ से आने वाले शवों को लाने वाली गाड़ियां यहीं रुकती हैं. कॉलेज के भीतर जो जगह बचती है वो मोटर साइकिल स्टैंड से भर जाती है. खेल का मैदान नहीं है. यही नहीं इस डिग्री कॉलेज में लड़कियों के लिए कोई शौचालय नहीं था. पिछले साल जब खुश्बू सिंह छात्र संघ की अध्यक्ष हुई तो उन्होंने काफी संघर्ष के बाद लड़कियों के लिए शौचालय बनवाया. बन जाने से भारत में समस्या दूर नहीं होती है. शौचालय की हालत बहुत ख़राब है. कुछ में दरवाज़े तक नहीं है. साफ-सफाई नहीं होती है.

हरिश्चंद्र डिग्री कॉलेज में सिर्फ शौचालय ही गंदा नहीं है. बल्कि पूरे कैम्पस में गंदगी इस तरह बिखरी पड़ी है जैसे यह यहां गंदगी की प्रयोगशाला स्थापित की गई हो. कॉलेज में सफाई कर्मी नहीं हैं. विज्ञापन से साफ तो होगा नहीं. महाविद्यालय के प्रिंसिपल के पास समस्या के कारण के जवाब भी हैं. जब तक समस्या का कारण नहीं होता है तब तक समस्या का प्रसारण नहीं होता है.

यह सरकारी जवाब का तरीका है. सफाई करने वाला नहीं है मगर दो बार नियमित सफाई होती है. हम समझते हैं प्रिंसिपल साहब की मजबूरी. ये समस्या उनकी देन नहीं है. इस महाविद्यालय को चलाने के लिए कर्मचारियों की बहुत ज़रूरत है. परमानेंट नहीं रख सकते तो महीने के 3000 रुपये पर कर्मचारी रख लिए जाते हैं. 100 रुपये प्रतिदिन यानी न्यूतनम मज़दूरी से कम पर. भारत की समस्याओं की एक खूबी होती है. ज़िम्मेदार का पता नहीं चलता है. शिकार का पता चल जाता है. इस व्यवस्था ने किस-किस को डंसा है, वो आप चाहें तो पता चल सकता है. मानदेय पर ध्यानदेय अपेक्षित है. समाधान नहीं है मगर प्रधानाचार्य महोदय के पास समस्या के कारण मौजूद हैं.

भारत के कॉलेजों को ऑटोमेटिक घोषित कर देना चाहिए. खासकर उन कॉलेजों को जहां 40 से 50 फीसदी शिक्षकों की कमी है. ऑटोमेटिक कॉलेज उस कॉलेज को कहा जाए जहां छात्र एडमिशन तो लेगा मगर बिना प्रोफेसर, लेक्चरर से पढ़े ही पास हो जाएगा. कायदे से भारत में फीस वापसी का आंदोलन चलना चाहिए. जब प्रोफेसर ने पढ़ाया ही नहीं तो फीस किस बात की ली गई. भारत के ही छात्र अपना डेवलपमेंट ख़राब कर, कॉलेज के डेवलपमेंट के लिए फीस दे सकते हैं. अब आप अगली सूची देखिए और अपने बच्चों से पूछिये कि तुम जहां जाते हों वहां कोई आता भी है पढ़ाने के लिए.

जिस भारतेंदु हरिश्चं ने हिन्दी को हिन्दी दी, उनके शुरू किए गए स्कूल से बने कॉलेज में हिन्दी की भी हालत खराब है. मगर विभाग के बाहर पट्टी की हालत खराब नहीं है. विभाग का कमरा जर्जर कॉलेज के भीतर नदी के द्वीप की तरह बचा हुआ है. हिन्दी विभाग के पास अपना पुस्तकालय नहीं है. कॉलेज का एक सामूहिक पुस्तकालय है मगर मगर वहां भी ज़माने से किताब नहीं ख़रीदी गई है. लाइब्रेरी की रैक पर किताबें तो हैं मगर अब वो कोर्स से बाहर हो चुकी हैं. इसके बाद भी आप कहते हैं कि मैं पोजिटिव स्टोरी नहीं दिखाता. बताइये बिना टीचर, किताब, लाइब्रेरी के हज़ारों बच्चे पढ़ कर पास हो रहे हैं, इससे बड़ी पोज़िटिव स्टोरी क्या हो सकती है.

भारत के कॉलेज बग़ैर शिक्षक के पढ़ाने की प्रयोगशाला हैं. यही कारण है कि आज भारत में व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी ज़्यादा लोकप्रिय है. एक सज्जन ने कहा कि मैं यह सीरीज़ बंद कर दूं. बोरियत होती है. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है. हो सकता है कहने वाले सही हों पर मैं यही तो देखना चाहता हूं कि किस-किस को फर्क नहीं पड़ता है. क्या आप भी उन माता-पिता में से हैं या छात्रों में से हैं, जिन्हें फर्क नहीं पड़ता है.

सरकारी एडेड कॉलेज है ये. शिक्षकों कर्मचारियों का वेतन तो सरकार देती है मगर कॉलेज को फीस के ज़रिए अपना विकास करना होता है. फीस कम होने के कारण भी बाकी व्यवस्थाएं नहीं हो पाई हैं. प्रिसिंपल कहते हैं कि इस कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए बहुत क्रेज है. यही बात समझ से बाहर है कि जहां टीचर न हो, क्लास में पंखे न हो, वहां एडमिशन के लिए क्रेज है या छात्रों के पास एडमिशन के अलावा कोई रास्ता नहीं है. एडमिशन ही देश को महान बनाता है, ये स्लोगन लिख देना चाहिए.

भारत की समस्याओं की एक और ख़ासितय है. इन्हें दूर करने के नाम पर कई लोग आते हैं और फिर कुछ समय बाद वे सारे लोग समस्या से बहुत दूर चले जाते हैं. समस्या चुपचाप वहीं खड़ी रहती है. यहां से दस किमी की दूरी पर भारतेंदु ट्रस्ट की 52 बिघा ज़मीन है. कॉलेज ने वहां कुछ क्लास चलाने की अनुमति मांगी मगर अनुमति नहीं मिली. मुझे शक है कि शासन में बैठे लोगों ने भारतेंदु हरिश्चंद से बदला लिया है कि उन्होंने अंधेर नगरी चौपट राजा नाम का नाटक क्यों लिखा. वे न लिखते न दुनिया राजाओं के चौपट कारनामों पर हंसती. वैसे अखिलेश यादव की सरकार ने एक करोड़ रुपये देने की मंज़ूरी दी थी मगर कॉलेज काग़ज़ी खानापूर्ति नहीं कर सका और यह फंड आज तक नहीं आ सका है.

हिन्दी और संस्कृत के नाम पर राजनीति में दंगा हो जाने तक की संभावना है मगर इसके नाम पर न तो टीचर रखे जाते हैं न उन्हें सम्मानजनक वेतन दिया जाता है. इस राजनीति का चयन आपने किया है. आपने देखा कि संस्कृत शिक्षा की कितनी ख़राब हालत है, अब आप आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद के बनाए स्कूल कॉलेज की हालत देख लीजिए. वैसे आज भारतेंदु हरिश्चंद के बनाए संस्थान की रिपोर्ट पेश कर अच्छा नहीं लगा. क्या भारत की जनता ने वाकई कसम खा ली है कि राजनीति में सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम ही चलेगा, पढ़ाई-लिखाई अस्पताल की बात चलेगी ही नहीं. क्या वाकई ऐसा है,

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