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इन गलियों में अब परियों की कहानी नहीं सुनाई जाती, बस एक सवाल गूंजता है- हमारा बच्चा क्यों?

अनुराग द्वारी
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 11, 2025 20:11 pm IST
    • Published On अक्टूबर 11, 2025 20:06 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 11, 2025 20:11 pm IST
इन गलियों में अब परियों की कहानी नहीं सुनाई जाती, बस एक सवाल गूंजता है- हमारा बच्चा क्यों?

मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा की गलियों में अब सिर्फ सन्नाटा है. वही गलियां, जहां कभी बच्चों की हंसी गूंजती थी. हर शाम आंगन में मिट्टी की खुशबू, मासूम पैरों की आहट सुनाई देती थी. आज वहां रोते हुए माता-पिता की चीखें दीवारों से टकराकर गूंजती हैं. जिन घरों में कभी परियों की कहानियां सुनाई जाती थीं, अब हर रात एक ही सवाल गूंजता है- हमारा बच्चा क्यों?

हम इन गलियों से गुजरते हुए उन 23 घरों के बाहर ठिठके... 23 नाम, 23 तस्वीरें, 23 अधूरी जिंदगियां. यह सिर्फ एक जिले की नहीं, एक पूरे राज्य की व्यवस्था के गिरने की कहानी है. एक ऐसा राज्य, जहां जहर दवा बनकर मासूमों के गले से उतर गया, और सरकार को जागने में 40 दिन लग गए.

हम अंदर पहुंचे तो अस्पताल की ठंडी, सफेद रोशनी हमारे साथ भीतर तक चली आईं. बर्फ़-सी चमकती, पर गर्माहट से खाली. मशीनों की लगातार बीप-बीप के बीच, दरवाज़ों के बाहर कांपती उंगलियां, भीतर वेंटिलेटर से जूझती सांसें, और हर बीप पर टूटती दुआएं... ये मंजर किसी के भी रोंगटे खड़े करने को काफी था.

अदनान की मां आफरीन परवीन दरवाजे के बाहर खड़ी थीं. उन्होंने धीमे मगर साफ शब्दों में कहा, “आईसीयू में किसी को रहने नहीं दिया. मेरी उंगलियां बाहर कांपती रहीं और अंदर मेरा बच्चा वेंटिलेटर की नली के साथ अपनी सांसें गिनता रहा. डायलिसिस की मशीन हर बार मेरे बच्चे से कुछ खींच ले जाती थी. आखिर में जब मशीन ने एक लंबी, थकी हुई बीप की आवाज निकाली तो मुझे समझ आ गया कि अब मेरी दुआओं का असर भी खत्म हो चुका है.”

दिव्यांश के पिता प्रकाश यदुवंशी की आंखों में भी थकान और आग्रह साथ-साथ थे. वह बोले, “मेरा बच्चा 15 दिन मशीनों से बंधा रहा, शरीर सूज गया, पेशाब बंद हो गया. डॉक्टर ने कहा कि डायलिसिस होगा. हमने जमीन गिरवी रख दी, गहने बेच दिए, उधार लिया… सब कुछ दे दिया, फिर भी मेरा बेटा नहीं बचा. अब हम हाईकोर्ट जाएंगे. हमारे बच्चे कोई आंकड़े नहीं हैं.”

दिव्यांश की मां लीना यदुवंशी ने आपबीती बताते हुए कहा कि अस्पताल में बच्चे के भर्ती रहने के दौरान वह हर आवाज पर चौंक जाती थीं. कभी कोई डॉक्टर आता, कुछ लिखकर चला जाता, जैसे मेरा बच्चा कोई रिपोर्ट हो. हर तेज बीप पर मेरे होंठ अपने आप बोल पड़ते- हे भगवान मेरा बच्चा… फिर नर्स कहती- शांत रहिए, हमें काम करने दीजिए. लेकिन मां हूं न, मेरा काम तो बस दुआ करना था. वो भी काम नहीं आई.”

इन दीवारों के बीच मुझे कबीर की आवाज सुनाई देती है. कबीर, वो बच्चा जो अब इस दुनिया में नहीं है, जो अपने भाइयों की तरफ से भी बोलता है. उसकी आवाज जैसे मेरे नोटबुक पर उतर आती है, “मैं कबीर हूं… मैं बोल रहा हूं उसैद की जगह, दिव्यांश की जगह, उन सबकी जगह, जिन्हें डॉक्टरों ने दवा दी और सरकार ने खामोशी.”

अदनान की दादी केसर मजीद खान ने सन्नाटे को चीरती आवाज में कहा, “कहते हैं डायलिसिस खून साफ करता है, पर उसने तो हमारी उम्मीदें भी खींच लीं, एक-एक करके. बच्चा मशीन से जुड़ा रहा, दुनिया से कटता गया. अब बस रोशनी आंखों में जलती है और सन्नाटा… जहां मशीनें बोलती हैं, बच्चे नहीं.”

उसैद के पिता यासीन ख़ान ने हमें अपने छोटे-से घर का एक कोना दिखाया, जहां कभी बेटे की हंसी बसती थी. बोले, “बस मामूली खांसी थी. डॉक्टर अमन सिद्दीकी के पास ले गया तो उन्होंने कोल्ड्रिफ सिरप लिख दिया. वही सिरप जिसने हमारी हंसी पी ली. दो दिन में बच्चे की हालत बिगड़ गई. पेशाब बंद, उल्टियां शुरू, आंखें सूज गईं. उसैद को लेकर हम छिंदवाड़ा से नागपुर दौड़े. डॉक्टर बोले कि किडनी फेल हो रही है. बेटे को बचाने के लिए मैंने अपना ऑटो बेच दिया. सोचा, बेटा बचेगा तो फिर ऑटो ले लूंगा. चार लाख रुपया लग गया… पर उसैद नहीं बचा.” उनके पास बैठी अफसाना सिर झुकाए बस रोती रहीं... शायद शब्द उनके आंसुओं में घुल गए थे.

बैतूल के आमला ब्लॉक में रहने वाले कैलाश यादव अपनी कहानी शुरू करते ही थम जाते हैं. फिर हिम्मत जोड़कर बताते हैं, “डॉक्टर प्रवीण सोनी ने कहा था कोल्ड्रिफ दे दीजिए, आराम आ जाएगा. लेकिन दो दिन में हालात और बिगड़ गए. दोबारा डॉक्टर के पास गए तो उन्होंने कहा कि किसी और डॉक्टर को दिखाइए. हम उसे लेकर नागपुर भागे. वहां पर कहा कि घर ले जाइए. फिर भोपाल पहुंचे, तो वहां बच्चा हमेशा के लिए खामोश हो गया.”

ढाई साल के गर्मित के पिता निकलेश धुर्वे से जब हम मिले तो उन्होंने बताया, “आंध्र से 40 हज़ार रुपये लाया था, गांव में 40 हज़ार उधार लिए. सब लगा दिए, फिर भी बच्चा नहीं बचा. एक से दूसरे डॉक्टर, एक से दूसरे अस्पताल भागते रहे. इलाज में 80 हज़ार खर्च हो गए. अब सिर पर वही कर्ज है. हम इतने गरीब हैं कि बेटे की रिपोर्ट और पर्चियां भी दफन कर दीं.” उनकी पत्नी फुलकारी ने बताया कि 1 अक्टूबर की सुबह गर्मित ने गांव की हवा में आख़िरी सांस ली थी. घर के पीछे की बाड़ी में उसे दफनाया गया. वहीं पर, जहां वह कभी मिट्टी से खेलता था. अब वहां सिर्फ उसका बदन नहीं, हमारी उम्मीदें भी दबी हुई हैं.

सैय्यद सबाब अली की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. छिंदवाड़ा से नागपुर तक अपनी आठ महीने की सेहरिस को गोद में लिए भागते रहे. उन्होंने बताया, “मैं ड्राइवर हूं, रोज स्टीयरिंग से मेरी दुनिया चलती है, पर अपनी दुनिया को ही नहीं बचा पाया. उसके लिए उधार लिया, दवाएं दीं, दुआ की… पर न दवा काम आई, न दुआ. अब हर सुबह गाड़ी स्टार्ट करता हूं तो इंजन की गूंज में अपनी बच्ची की हंसी ढूंढता हूं... अब एक छोटी-सी वीडियो क्लिप में ही सेहरिस की सांसें बची हैं.”

सवाल बोतलों के भीतर झांकने का है. क्या किसी ने देखा कि ‘मीठा' सिरप किस कड़वाहट से भरा था? क्या किसी ने सोचा कि छोटी-सी बीमारी के बहाने कितने घर उजड़ने वाले थे? केसर मजीद खान पूछती हैं, “हमारी मौत किस डॉक्टर की पर्ची पर लिखी थी?” कागज जवाब देते हैं तमिलनाडु की ड्रग्स कंट्रोल रिपोर्ट पर. दस्तावेज कहता है, “कोल्ड्रिफ सिरप (बैच SR-13) में 48.6% डाईएथिलीन ग्लाइकॉल पाया गया. वही केमिकल जो पेंट और इंजन कूलेंट में इस्तेमाल होता है. यही जहर बच्चों की किडनी फेल कर गया.” 

वरिष्ठ संचालक (एनएचएम) डॉ. प्रभाकर तिवारी इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं. रिपोर्ट यह भी दर्ज करती है कि तमिलनाडु ने 24 घंटे में जांच की और दवा पर बैन लगा दिया. वहीं, मध्य प्रदेश में परिजनों के शब्दों में कहें तो- “40 दिन तक न जांच, न प्रतिबंध, न कार्रवाई... जब बच्चे मरने लगे, तब फाइलें चलीं. जब रिपोर्ट आई, तब बयान आए. जब मीडिया पहुंचा, तब मुआवजे का ऐलान हुआ.”

इन पीड़ितों के घरों में ‘न्याय' शब्द अब रसोई के डिब्बों की तरह रखा नहीं रहता, वह हर सांस में घुला है. मैं उन दीवारों को देखता हूं, जिन पर तस्वीरें टंगी हैं. कोई मुस्कराता चेहरा, कोई सोया हुआ. मांएं इन्हें इस तरह देखती हैं जैसे तस्वीर अभी बोल उठेगी. पिता की हथेलियों में अब छाले नहीं, बस थकावट है.

यह सब लिखते हुए मेरे कानों में फिर वही फुसफुसाहट आती है कबीर की... “सरकार, प्रशासन, डॉक्टर… क्या हमें दवा देने से पहले नहीं परखा गया? क्या दवा की बोतलें बच्चों तक पहुंचने से पहले किसी लैब की ठंडी मेज पर नहीं गिरीं? क्या किसी ज़िम्मेदार ने नहीं सोचा कि छोटे बच्चों की किडनी नाज़ुक होती है? क्या कागज की औपचारिकताएं इतनी अहम थीं कि हमारी सांसों से खिलवाड़ हो गया?” और कहीं भीतर से एक और चोटिल वाक्य उभरता है, “किसी ने वो फैक्ट्री क्यों नहीं देखी जहां 400 से ज़्यादा नियम टूटे… सैंपल तक साधारण डाक से भेज दिए गए.”

अपने दिल के टुकड़े गंवा चुके मांएं कहती हैं, “हमें पैसे मत दो, हमें हमारे बच्चों का इंसाफ दो.” मैं उनके साथ बैठे-बैठे सोचता हूं क्या इन बच्चों की ज़िंदगी इतनी सस्ती थी कि एक बोतल में घुल जाए? क्या उनके बचपन, उनकी हंसी, उनकी किताबें, उनके खिलौने सब सिर्फ आंकड़े थे?

मुझे मुंशी प्रेमचंद का हामिद याद आता है जो ईद के मेले में सबसे गरीब होकर भी सबसे अमीर निकला, क्योंकि उसके पास दादी की दुआ थी. हामिद की दादी कहा करती थीं, “नेकी कभी मिट्टी में नहीं मिलती.” पर यहां… सच्चाई भी मिट्टी में दब गई है, इंसाफ भी. अगर कभी हामिद इन गलियों से गुजरे, तो शायद वह दीवारों पर टंगी तस्वीरों को देखकर कहे- रूठो मत अम्मा, तुम्हारे बच्चों की हंसी जरूर लौटेगी… बस किसी को फिर ईमान का ‘चिमटा' उठाना होगा.”

मैं रिपोर्टर हूं, इन घरों में बैठा, इन आवाज़ों को सुनता, इन्हीं शब्दों को आपकी आंखों तक लाता. अगर हम चुप रहे, तो हर बारिश की बूंद टूटी छत पर पड़ेगी और हर खिलौने पर रुकी उंगलियां फुसफुसाएंगी, “हमने बच्चों को सिरप नहीं, जहर दिया था.” अगर न्याय आया, तो वही गलियां शायद फिर से हंस पाएंगी.

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