'किया किसका नहीं कल्याण उसने?
दिए क्या-क्या न छिपकर दान उसने?
जगत के हेतु ही सर्वस्व खोकर
मरा वह आज रण में नि:स्त्र होकर”.
(रश्मिरथी, रामधारी सिंह दिनकर).
15 अक्टूबर को अभिनेता पंकज धीर के निधन की खबर आई. उन्होंने मशहूर टीवी सीरियल 'महाभारत' में कर्ण के किरदार को इस तरह से जिया था कि उनकी मृत्यु पर ऐसा लगा जैसे सच में 'कर्ण' का ही देहांत हुआ है. कर्ण भारतीय साहित्य और संस्कृति का एक ऐसा नायक था, जो आज के वैश्विक संकट के दौर में 'वेबेरियन' तरीके से देखें तो 'आइडियल-टाइप' की तरह है, जो सशंकित समाज को एक सकारात्मक संदेश दे सकता है. आज सामाजिक-सबंधों की तरलता का दौर है, संबंधों से प्रतिबद्धता गायब हो चुकी है, जिस कारण सामाजिक संस्थाएं भी या तो अपना स्वरूप बदल रही हैं या फिर ढहती जा रही हैं. परिवार, नातेदारी, विवाह, मित्रता, पड़ोस सब अंतिम सांसें ले रहा है.
समाज में आया विश्वास का संकट
बाजारवादी सभ्यता में सबसे बड़ा संकट विश्वास का है, 'क्राइसिस ऑफ़ ट्रस्ट'. राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संस्थाओं से विश्वास लगातार कम होता जा रहा है. लोगों को बैंकों के दिवालिया होने का डर है. उन्हें डर है राजनीतिक सत्ता के तख्ता-पलट होने का. उन्हें डर है समाज के बिखर जाने का. संकट के इस दौर में व्यवस्था को सबल कर्ण का जीवन मूल्य बना सकता है. ऐसे वैश्विक विप्लव और विलाप के दौर में कर्ण 'प्रतिबद्धता का एक मॉडल' है. कर्ण 'स्थायित्व का पर्याय' है. कर्ण 'विश्वसनीयता का मानक' भी है.
'महाभारत' में अनगिनत पात्र हैं. कर्ण के आलावा भीष्म, कृष्ण, अर्जुन, युधिष्ठिर जैसे अनेकानेक नायक हैं, जिनका जीवन अपने आप में एक आदर्श को स्थापित करता है. किसी न किसी न रूप में उनके जीवन मूल्यों का समुच्चय समकालीन संकट का सहारा बन सकता है. बीआर चोपड़ा द्वारा निर्देशित और राही मासूम रजा के लिखे संवाद से सजे इस धारावाहिक ने टीवी पर जो कुछ पेश किया वह महज एक धारावाहिक नहीं था, बल्कि वह भारतीयता का एक ऐसा दस्तावेज था, जिसमें तमाम भारतीय मूल्य, दर्शन, विचार समाहित थे. दूसरे शब्दों में कहें तो जो कुछ भी जीवन में था उसका दर्शन इस साहित्य में किया जा सकता था. महाभारत धारावाहिक ने एक तरह से शुषुप्त भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को झकझोर दिया था. खोई हुई भारतीय अस्मिता प्रज्वलित हो चुकी थी. यह धारावाहिक मात्र 'हिन्दुओं' का कोई धार्मिक धारावाहिक नहीं था, बल्कि मुस्लिम, सिख और ईसाई सबने इसके माध्यम से एक साझे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गौरव को महसूस किया. महाभारत और रामायण, उपनिषद और अरण्यक जैसे ग्रन्थ देश की सामूहिक और सार्वजनिक धरोहर हैं. यह सबकी प्रेरणा हैं और सबकी संपत्ति हैं.

टीवी सीरियल महाभारत में कर्ण की भूमिका में अभिनेता पंकज धीर.
कर्ण के व्यक्तित्व के आयाम
कर्ण की कथा वस्तुतः व्यथा की कथा है, इसलिए वह एक गाथा है. उस गाथा में आम आदमी के द्वन्द हैं और उसकी विडम्बनाएं हैं. कर्ण पुरुषार्थी है. वह साहसी है, वह दानवीर है, लेकिन इन सबके बावजूद राजनीतिक सत्ता की वैधता के बिना वह महत्वहीन बना रहा. खास आदमी अक्सर पुरुषार्थ के बलबूते नहीं, बल्कि अलग-अलग तरह के 'नेपोटिस्म' के बलबूते खास बना रहता है या बन जाता है. समकालीन राजनीतिक सन्दर्भों में भी देखें तो यह साफ़- साफ दिखाई देता है.
कर्ण का जीवन अभिशप्त है. लेकिन शापित होना हमेशा बुरा नहीं होता, कई बार शाप ही वरदान जैसे परिणाम देते हैं. कर्ण का अभिशप्त जीवन ही उसे महान बनाता है कि कैसे प्रतिकुलताओं में वह एक आदर्श स्थापित करता है. उसके जन्म की कहानी भी सामाजिक अभिशाप की तरह ही है. वह जन्म से शापित था. मां के त्याग से, गुरु के शाप से और समाज की उस व्यवस्था से जो इंसान को उसके कर्म से नहीं, 'जाति' और 'जन्म' से आंकती थी. कर्ण के साथ जो हुआ, वह किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि वह समाज के एक बड़े हिस्से की कहानी है. कर्ण जानता था कि पांडव उसके वास्तविक भाई हैं, फिर भी उसने दुर्योधन के साथ खड़े रहकर अपनी वचनबद्धता निभाई. यह केवल मित्रता नहीं थी, बल्कि आदर्श और नैतिकता की प्रतिबद्धता थी. उसने दिखाया कि सच्चा सामाजिक मूल्य केवल स्वार्थ या सुविधा से नहीं, बल्कि विश्वास, वचन और मानवीय आदर्शों से बनता है. लेकिन आज के संदर्भ में देखे तो उपभोक्तावादी समाज रिश्तों की अहमियत को भूलता जा रहा है. लोग अपने संबंधों को भी जैसे किसी वस्तु की तरह देखने लगे हैं. लोग सतही बातचीत और तात्कालिक जुड़ाव पर भरोसा करने लगे हैं. हर रिश्ता अब सुविधा और स्वार्थ से जुड़ा नजर आता है. ऐसे में कर्ण की कहानी हमें याद दिलाती है कि सच्चा सामाजिक मूल्य केवल आदर्श, भरोसा और मानवता में निहित है. इन्हें केवल स्वार्थ या सुविधा के हिसाब से नहीं मापा जा सकता.

टीी सीरियल महाभारत के साथी कलाकार पुनीत ईस्सर (मध्य में) और मुकेश खन्ना (दाएं) के साथ पंकज धीर.
समाज की सीमा और नैतिकता
महाभारत को अर्थपूर्ण बनाने में कर्ण की भूमिका निर्णायक है. बिना कर्ण के यह महाकाव्य शायद इतना समृद्ध और अर्थपूर्ण नहीं बन पाता. महाभारत में वीरों के वैभव और संघर्ष का जो विराट चित्र सामने आता है, उसकी धुरी कर्ण भी है. वह केवल कथानक को आगे बढ़ाने वाला पात्र नहीं, बल्कि एक ऐसा विवादास्पद और महत्वपूर्ण व्यक्तित्व है, जो पाठकों और समाज दोनों के लिए गंभीर विमर्श का अवसर प्रदान करता है. कर्ण की कहानी केवल वीरता और दान की नहीं, बल्कि मनुष्य की उस अंतर्द्वंद्व की भी है, जो समाज की सीमाओं और अपने नैतिक बोध के बीच फंसा हुआ है. आज के दौर में कर्ण नहीं हुआ जा सकता, लेकिन उस जैसा व्यक्ति कभी हुआ था यह बोध ही रोमांचित करता है. कर्ण का पुरुषार्थी जीवन समाज की संपूर्ण नैतिकता पर पुनर्विचार का प्रबंध है.
डिस्क्लेमर: केयूर पाठक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. अरुण कुमार गोंड इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र हैं. इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखकों के निजी विचार हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.