जातीय जनगणना, 2024 के आम चुनाव में मुद्दा बनेगा- यह तय हो चुका है. राहुल गांधी ने राजस्थान में जातीय सर्वेक्षण कराने और कांग्रेस शासित हर प्रदेश में ऐसा करने का वादा करते हुए देशभर में जातीय जगणना कराने की मांग रखी है. वहीं, कर्नाटक में छह साल पहले हुए जातीय सर्वेक्षण के आंकड़े जारी करने के लिए बीजेपी ने दबाव की सियासत तेज कर दी है. इन उदाहरणों के परिप्रेक्ष्य में सैद्धांतिक तौर पर कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही जातीय जनगणना के पक्ष में दिख रही हैं. लेकिन, क्या कांग्रेस और बीजेपी दोनों जातीय जनगणना के मुद्दे पर सहूलियत की स्थिति में हैं?
जातीय जनगणना का कार्ड वोटरों की संख्या देखकर खेला जा रहा है, लेकिन इसका विरोध संगठित जातियों की ओर से है जो राजनीति में प्रभाव रखते हैं. राजनीतिक दलों के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती है. बिहार में जातीय सर्वेक्षण के पक्ष में दिखी थी भारतीय जनता पार्टी. लेकिन, जब जातीय सर्वेक्षण के आंकड़े आए तो उनकी मीन-मेख निकालकर बीजेपी ने विरोध का स्वर तेज किया और जातीय सर्वेक्षण से जुड़ी चुनौतियों का मुकाबला करने में वह जुटी दिख रही है. इसका मतलब यह है कि जातीय जगनणना या सर्वेक्षण का विरोध नहीं करते हुए भी इसमें रोड़े अटकाने की नीति बीजेपी को सूट कर रही है.
कर्नाटक में परीक्षा दे रही है कांग्रेस
कांग्रेस के लिए जातीय जनगणना का मुद्दा उठाना तो आसान है लेकिन इससे जुड़ी चुनौतियों का सामना करना उतना ही मुश्किल है. इसे कर्नाटक के संदर्भ में समझें. कर्नाटक कांग्रेस में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ओबीसी समुदाय से हैं जबकि उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार वोक्कालिंगा समुदाय से. यहां जातीय सर्वेक्षण के लीक हुए आंकड़ों ने वोक्कालिंगा समुदाय को सांसत में डाल रखा है. इसके मुताबिक वोक्कालिंगा समुदाय की आबादी 11 फीसद है. जबकि, माना यह जाता रहा है कि वोक्कालिंगा की आबादी 13 फीसदी है. इसी तरह लिंगायतों की आबादी 14 फीसद के बजाए 11 फीसद सामने आ रही है. आबादी घटने का अर्थ है आरक्षण में हिस्सेदारी के दावे का घटना. लिहाजा डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार को अपनी ही सरकार के जातीय सर्वेक्षण पर उंगली उठाने को मजबूर होना पड़ा है.
राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना का जो कार्ड राहुल गांधी ने खेला है उसका प्रत्यक्ष विरोध करने का राजनीतिक साहस किसी राजनीतिक दल में नहीं है. मगर, प्रभावशाली जातियों से जुड़े कांग्रेस और इंडिया गठबंधन में शामिल दलों के लोग इसका अंदर ही अंदर विरोध कर रहे हैं. यह विरोध ओबीसी जातियों के बीच भी है जहां यह समझ बन रही है कि यादव जैसी दबंग जातियां अपने रसूख का इस्तेमाल शेष ओबीसी जातियों पर रौब दबाने के लिए करती रही हैं. इसे बिहार के संदर्भ से समझें. 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसबा में बनिया समुदाय से 20 विधायक हैं और इनकी आबादी 8 प्रतिशत मानी जाती रही है. लेकिन, ताजा सर्वेक्षण में बनिया आबादी 2.32 प्रतिशत है. इससे बनिया नाराज़ हैं. बिहार में 52 विधायक यादव समुदाय से हैं. यादवों (14.26%) के मुकाबले वे बहुत कम हो गये हैं. इससे उन्हें अपना हक़ छिन जाने का अंदेशा है. लिहाजा बनिया नेता जातीय सर्वेक्षण के खिलाफ हैं. यही हाल भूमिहार, कायस्थ और शेख मुसलमानों का भी है जिन्हें लगता है कि सर्वेक्षण में उनकी संख्या को घटा कर दिखाया गया है.
ओबीसी वोट बैंक पर नज़र, मजबूत जातियों के बिदकने का डर
जातीय जनगणना का व्यावहारिक मतलब और मकसद दोनों यही है कि ओबीसी के वोटबैंक को साधा जाए. मंडल कमीशन की सिफारिशों के अनुरूप ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण प्राप्त है, जबकि आबादी 1931 की जनगणना के मुताबिक, 52 फीसदी है. एससी या एसटी वर्ग को उनकी आबादी के अनुरूप आरक्षण हासिल है. ऐसे में ओबीसी वर्ग अपने साथ हुए अन्याय की बात को महसूस करता रहा है लेकिन उठा इसलिए नहीं सका क्योंकि 50 फीसदी आरक्षण की सीमा थी. अब जबकि ईडब्ल्यूएस कोटा आ चुका है और इस वजह से आरक्षण की सीमा भी टूटी है तो आबादी के हिसाब से आरक्षण की मांग ने औचित्य हासिल कर लिया है. इसी औचित्य को नीति और सिद्धांत का रूप दे रहे हैं राहुल गांधी या फिर नीतीश कुमार.
जातीय जनगणना से सहमी हुई जातियों में सवर्ण तो हैं ही, ओबीसी के अंतर्गत आने वाली पिछड़ी जातियां भी हैं. इन जातियों को ओबीसी के अंतर्गत प्रभावशाली जातियों से डर है. फिर भी ओबीसी वर्ग की ये जातियां जातीय जनगणना के विरोध में नहीं हैं. मगर, इतना तय है कि जातीय सर्वेक्षण या जातीय जनगणना के आंकड़ों से नयी-नयी किस्म की जटिलताएं सामने आएंगी. इन जटिलताओं से निबटने का मैकेनेजिम ढूंढ़ना राजनीतिक दलों और खासकर इंडिया गठबंधन के लिए चुनौती रहेगी. चूकि कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना की मांग कर रही है इसलिए समाधान लेकर आने की अपेक्षी भी कांग्रेस से ही रहेगी.
दबंग जातियों ने भी बदली है रणनीति
देश के अलग-अलग हिस्सों में दबंग जातियां हैं जो आरक्षण की मांग करती रही है. इनमें जाट, गुर्जर, पाटीदार, मराठा प्रमुख हैं. ये जातियां अपने आंदोलन में सफल नहीं हो सकी हैं. जब-जब आरक्षण देने की कोशिशें हुई हैं तब-तब सुप्रीम कोर्ट ने उसे संविधान के दायरे में बांधने और निष्प्रभावी बनाया है. फिर भी राजनीतिक ताकतें मायूस नहीं होतीं क्योंकि उन्हें वोट बैंक साधने की सियासत करनी होती है. वहीं, इन दबंग जातियों ने आरक्षण हासिल करने के लिए अपनी रणनीति में भी बदलाव किया है. ताजा मामला महाराष्ट्र का है. यहां मराठे खुद को ओबीसी में शामिल कराने की जद्दोजहद में जुटे हैं, आंदोलनरत हैं. राजनीतिक दल उनके साथ तो हैं लेकिन ओबीसी वर्ग की ओर से इसका कड़ा प्रतिवाद पैदा हो गया है. जाहिर है राजनीतिक दलों को इस विवाद का समाधान ढूंढ़ना होगा. इंडिया गठबंधन के लिए खास सावधानी की बात यह होगी कि उससे मराठे भी नाराज ना हों और ओबीसी वर्ग भी. राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना की आवाज से ओबीसी वर्ग का मिल रहा साथ इंडिया गठबंधन के लिए अहम है.
सत्ताधारी दल बीजेपी अवश्य उन मुद्दों को हवा दे रही है जिससे जातीय जनगणना और आबादी के हिसाब से आरक्षण की मांग उठा रही कांग्रेस और इंडिया गठबंधन की मुश्किलें बढ़ें. मगर, यह काम सहज भी नहीं है. कर्नाटक का उदाहरण ही लें तो यहां लिंगायत और वोक्कालिंगा समुदाय की आपत्तियों के साथ खड़े होकर जातीय सर्वेक्षण पर बीजेपी सवाल जरूर खड़े कर रही है मगर उसका जोर जातीय सर्वेक्षण के आंकड़ों को सामने लाने पर है. इससे सिद्धारमैया सरकार का अंतर्विरोध गहरा होगा जिसका फायदा बीजेपी को मिल सकता है. लेकिन, इसका दूसरा पहलू यह है कि 2011 की जनगणना के जातीय आंकड़े जारी करने का दबाव भी स्वयं बीजेपी की केंद्र सरकार पर आएगा. इसका मतलब यह है कि अगर एक उंगली बीजेपी इंडिया गठबंधन की ओर उठाते हैं तो बाकी उंगलियां स्वयं बीजेपी की ओर उठ जाती है. इस तरह जातीय जनगणना का सवाल मधुमक्खी का छत्ता बना दिख रहा है. हाथ डालकर मधु निकालने का लोभ है, तो मधुमक्खियों का डर भी.
प्रेम कुमार पत्रकारिता में तीन दशक से सक्रिय है, और देश के नामचीन टीवी चैनलों में बतौर पैनलिस्ट लंबा अनुभव रखते हैं.
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