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This Article is From May 10, 2016

कुदरती से ज्यादा राजनीतिक दुश्चक्र में फंस गया बुंदेलखंड

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 10, 2016 00:31 am IST
    • Published On मई 10, 2016 00:31 am IST
    • Last Updated On मई 10, 2016 00:31 am IST
बुंदेलखंड समस्या एक पहेली बन गई है। नवीनतम स्थिति यह है कि उप्र और केंद्र सरकार के बीच उठापटक के अलावा कुछ भी होता नहीं दिख रहा। केद्र ने एक प्रतीकात्मक ट्रेन में महोबा पानी भेजने का प्रचार शुरू किया तो पता चला कि उप्र को पानी नहीं बल्कि सड़क पर चलने वाले दस हजार टेंकरों की जरूरत है। पिछले हफ्ते प्रदेश सरकार ने केंद्र सरकार से साढ़े दस हजार करोड़ रुपये की जायज मदद की मांग की है। इधर बुंदेलखंड के हालात घंटे दर घंटे बिगड़ रहे हैं। कुंए सूख गए हैं, तालाब सूख रहे हैं। बांधों से नहरों के जरिए पानी भेजने का सिलसिला महीने भर पहले ही टूट गया था। दो महीने पहले ही सिंचाई के पानी को रोककर रख लिया गया था ताकि पीने के पानी का इंतजाम करके रखा जा सके। लेकिन सब कुछ के बावजूद बुंदेलखंड से लोगों के भागने का अभूतपूर्व सिलसिला बढ़ गया है। इमरजेंसी जैसे हालात में उप्र और केंद्र के बीच एक दूसरे पर आरोप लगाने या अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की हरकतों को समझना पड़ेगा।

केंद्र सरकार की समस्या
पूरे देश को चमन बना देने का वायदा करके सत्ता पाने वाली केंद्र सरकार आज चैतरफा झंझट में है। उसके सामने 11 प्रदेशों में पानी को लेकर हाहाकार से निपटने का पहाड़ खड़ा है। बुंदेलखंड में शासन दो प्रदेशों यानी उप्र और मप्र सरकार का है। दोनों ही प्रदेशों के कार्यक्षेत्र में आने वाले बुंदेलखंड के 13 जिलों में हालात कमोबेश एक जैसे हैं। यह बात अलग है कि कई कारणों से चर्चा में उप्र वाला बुंदेलखंड ही है। उप्र सरकार ने महोबा में ट्रेन से पानी भेजने के केंद्र सरकार के प्रचार पर मुखर होकर प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया है। उप्र सरकार ने बुंदेलखंड में पानी नहीं बल्कि दस हजार रोड टेंकरों की जरूरत बताई है। इसके अलावा उप्र ने केंद्र सरकार को उलाहना दिया है कि पिछले छह महीनों में ओलों और बेमौसम बारिश से मची तबाही की मदद केंद्र ने अब तक नहीं दी। उप्र का कहना है कि उसने अपने सारे संसाधन हालात से निपटने पर झोंक दिए। उप्र ने केंद्र सरकार से साढ़े दस हजार करोड़ की रकम मांगी है। वैसे केंद्र सरकार के लिए यह रकम कोई बहुत बड़ी नहीं है। लेकिन वही बात है कि इस समय संकट में सिर्फ बुंदेलखंड ही नहीं बल्कि देश के 11 राज्य हैं। और फिर अगले साल उप्र में विधानसभा चुनाव हैं। यानी समस्या बुंदेलखंड में लगी सूखे की आग से ज्यादा राजनीतिक नफे नुकसान की ज्यादा दिख रही है।

उप्र का कहना कितना सही या गलत
फिलहाल मामला यह बना है कि बुंदेलखंड में समस्या पानी की है या रोड टैंकरों की। चूंकि खुद मुख्यमंत्री ने यह बात कही है सो इसे जरा गौर से देखना पड़ेगा। देश के सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री के पास अपने प्रदेश के हालात का लेखा-जोखा होगा ही। उनके अफसरों ने बताया होगा कि बुंदेलखंड में अंग्रेजों के जमाने से लेकर आजाद भारत के शुरुआती तीस साल तक जल प्रबंधन पर युद्ध स्तर पर काम हुआ था। सबसे ज्यादा बांध और बड़े-बड़े तालाबों की देखरेख इसी इलाके में हुई। खासतौर पर माताटीला, राजघाट, अर्जुन, उर्मिल और सपरार जैसे बीसियों बांधों का डैड स्टोरेज ही महीने भर के जल संकट से निपटने के लिए काफी है।

डैड स्टोरेज का मतलब
डैड स्टोरेज का मतलब कि बारिश के पानी को रोकने के लिए बांध के एक तरफ जो फाटक बनाए जाते हैं उनके पीछे बांध काफी गहरा बनाया जाता है। यह इसलिए बनाया जाता है कि पीछे से जो मिटटी बहकर आती है वह इस गहराई में भरती रहे और सौ साल तक भी फाटकों के लेवल तक न आ पाए। इस डैड स्टोरेज में पानी 10 से 15 फीसदी तक भरा रहता है। तीस से 50 साल पहले बने इन बांधों में इस संकट के समय अभी मी पांच से दस फीसदी डैड स्टोरेज है। महीने-डेढ़ महीने पीने के लिए यह पानी काफी है। समस्या यह है कि इस संकट के समय बांध की तलहटी का यह पानी फौरन ही गांवों तक कैसे पहुंचाएं। इसी के लिए रोड टैंकरों की जरूरत है। सैद्धांतिक तौर पर उप्र के मुख्यमंत्री की बात बिल्कुल ठीक है, लेकिन टैंकरों के जरिए यह पानी जलाशयों से गांव-गांव पहुंचाना कितना खर्चीला है इसका हिसाब अभी लगा नहीं है। अर्थशास्त्री बताते रहते हैं कि जितनी बड़ी समस्या माल का न होना है उतनी ही बड़ी समस्या सप्लाई की अड़चन होती है। यही नई और सही बात उप्र के मुख्यमंत्री कह रहे हैं।

तो फिर यह किस प्रकार का सूखा है
देश में जब सूखे की अटकलें लगनी शुरू हुईं थीं तब इसी स्तंभ में एक आलेख सूखे के प्रकारों पर लिखा गया था। इस आलेख में बताया गया था कि अगर पानी खूब भी बरसा हो तब भी सूखा पड़ सकता है। पानी हो लेकिन उसे खेत तक न पहुंचाया जा सके तो उसे कृषि सूखा कहते हैं। और उससे भी भयानक स्थिति यह कि जहां किसान कर्ज में लदे हों और ओलों व बेमौसम बारिश के कारण तबाह हो चुके हों, ऊपर से चैतरफा बेरोजगारी के कारण गुजारा न कर पा रहा हों, वहां जो पानी की कमी पड़ती है उसे सोशियो इकोनोमिक ड्रॉट यानी सामाजिक आर्थिक सूखा कहते हैं। पिछले दो दिन में उजागर हुए नए तथ्यों से यह बात साबित हो रहा है कि बुंदेलखंड इस बार इस सामाजिक आर्थिक सूखे का शिकार हुआ है। अब यह विद्वान लोग हिसाब लगाकर देख लें कि इसके लिए केंद्र सरकार कितनी जिम्मेदार है और कितनी प्रदेश सरकार। या दोनों ही बराबर। और जब दोनों सरकारें अपने-अपने लोकतांत्रिक होने का दावा करती हैं तो यह हाल के हाल तय हो जाना चाहिए कि दोनों सरकारों को मरणासन्न बुंदेलखंड के लिए इस समय क्या करना चाहिए। नीति की बात यही है कि जो भी हो, फौरन हो।  

(सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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