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उत्तराखंड की खेती की कहानी: मोटे अनाज से जुड़े राज़ और संघर्ष

Himanshu Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 08, 2025 13:01 pm IST
    • Published On अप्रैल 08, 2025 13:00 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 08, 2025 13:01 pm IST
उत्तराखंड की खेती की कहानी: मोटे अनाज से जुड़े राज़ और संघर्ष

'समय साक्ष्य' प्रकाशन से प्रकाशित हुई किताब 'मोटे अनाज, महत्व और उत्पादन' के कवर पेज में मोटे अनाज की तस्वीरें आकर्षित करती हैं. बाजरा के बारे में जानकारी से किताब की शुरूआत हुई है और इसकी खेती के बारे में जानकारी देते लेखक ने किताब को शुरुआत से ही कृषि के लिए एक महत्वपूर्ण किताब बना दिया है.

उत्तराखंड की फसलें: प्राकृतिक सौंदर्य से परे एक संपन्न विरासत

पृष्ठ संख्या 27 में लेखक 'भट्ट' के बारे लिखते हैं 'लेकिन सुंदरता के अलावा भी हमारे उत्तराखंड में बहुत कुछ है' ऐसा करते वह फसलों के जरिए पाठकों को उत्तराखंड की तरफ खींचते हैं.  राजमा के बारे में भी लेखक ने महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए लिखा है 'विटामिन और अन्य खनिजों से भरपूर, मुनस्यारी राजमा प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट का एक अच्छा स्त्रोत है. अपने अद्वितीय और सूक्ष्म स्वाद, उच्च फाइबर सामग्री और रंग के कारण, यह राजमा सभी उम्र में पसंदीदा है.' फसलों के प्रयोग पर भी लेखक ने जानकारी दी है, जैसे मडुवा पर उन्होंने लिखा मडुवा को छह माह के बच्चे से लेकर गर्भवती महिलाओं, बीमार व्यक्तियों और वृद्धजनों तक सभी को दिया जा सकता है.  ओगल के बारे में भी किताब में काफी विस्तार से जानकारी दी गई है 'ओगल घरेलू उपचार में औषधीय प्रयोग में भी आता है जैसे खून की कमी होने पर लोहे की कढ़ाई में पत्तों को उबालकर रोगी को देना'.

कृषि के पतन का दस्तावेज़: चौंकाने वाले आंकड़े और वजहें

उत्तराखंड में कृषि के पतन को लेकर लेखक ने कुछ चौंकाने वाले आंकड़े और उनकी वजह भी लिखी है, कृषि के नीति निर्माताओं के लिए यह महत्वपूर्ण जानकारी हैं. पृष्ठ 37 में लिखा है वर्ष 2001-02 में 1.31 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मडुवा की खेती होती थी, वह 2018-19 में घटकर करीब 92 हजार हेक्टेयर पर आ गई. ऐसे ही पृष्ठ 29-30 में लेखक ने लिखा है दलहन की खेती की उपेक्षा 1960-70 के दशक से हरित क्रांति के साथ शुरू हुई थी. हरित क्रांति के संकर बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशक जहर व खरपतवार नाशी संसाधनों ने स्वावलंबी घर की खेती को पराया बना दिया. 
कृषि में संभावना पर भी लेखक ने इन्हीं पृष्ठों में आगे लिखा है साफ है कि परंपरागत तकनीकी में आधुनिक कृषि तकनीकी का समावेश कर इन फसलों के उत्पादन और उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की जा सकती है.

पृष्ठ 22 में लिखे शब्द उत्तराखंड में कृषि के पतन को लेकर काफी जानकारी देने का काम करते हैं 'लगातार जोत भूमि का घटना, जंगली भालू का इस फसल को भारी नुकसान पहुंचाया जाना, आज ओगल और फाफर की फसल संकटग्रस्त हो गई है'.

 किसानों के लिए खजाना: फसलों की समृद्ध जानकारी

किस फसल को कैसी जगह लगाना है, किस फसल से धन अर्जित किया जा सकता है. अगर यह जानकारी किसी कृषक को चाहिए तो उसके लिए यह किताब किसी खजाने से कम नही है. लेखक ने क्विनोआ के बारे में पृष्ठ 71 में महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए लिखा है कि क्विनोआ भारत ही नही अपितु सारे विश्व के सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए महत्वपूर्ण विकल्प है. ऐसे ही कौंणी की फसल के बारे में पढ़ते हुए लगता है कि इतनी लाभकारी फसल कैसे अब उत्तराखंड में विलुप्ति की कगार पर है.
काली हल्दी से जुड़ी जो जानकारी लेखक ने इस किताब में दी है, वह बहुत अहम है और इसके साथ ही नरेंद्र मेहरा का उदाहरण भी दिया गया है जो यह संदेश देता है कि खेती में प्रयोग करने वालों के लिए धन और सम्मान दोनों हैं.

कुछ कमियां, पर संदेश स्पष्ट

इतनी महत्वपूर्ण किताब में कहीं पर सम्पादन की गलती दिखाई दी है, जैसे पृष्ठ 55, 56 में ओगल उत्पादन से जुड़ा एक पैराग्राफ दोहराया गया है. लेकिन यह छोटी सी त्रुटि किताब के महत्व को कम नहीं करती. 'मोटे अनाज, महत्व और उत्पादन' न सिर्फ उत्तराखंड, बल्कि पूरे देश में कृषि के पुनरुत्थान का आह्वान करती है. यह पुस्तक हर उस पाठक के लिए जरूरी है जो भारत की मिट्टी और उसकी फसलों से जुड़ा है. पुस्तक में फसलों के चयन, बुवाई के तरीके और बाजार से जुड़ी जानकारियाँ भी शामिल हैं, जो इसे किसानों के लिए एक प्रैक्टिकल गाइड बनाती हैं.

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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