उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी अशोक कुमार की आत्मकथा 'खाकी में इंसान' पुलिस की चुनौतियों और समाज के साथ उनके जटिल रिश्ते को संवेदनशीलता से उजागर करती है. यह किताब पुलिस के मानवीय पक्ष को दर्शाते हुए सामाजिक सच्चाइयों पर गहरा चिंतन प्रस्तुत करती है.
किताब का आकर्षण
यदि आप साहित्यिक कृति या राजनीतिक विचारधारा को बदलने वाली किताब की तलाश में हैं, तो 'राजकमल प्रकाशन' से प्रकाशित 'खाकी में इंसान' आपके लिए नहीं है. लेकिन अगर आप पुलिस की वास्तविक जिंदगी और समाज के साथ उसके जटिल रिश्ते को समझना चाहते हैं, तो अशोक कुमार की यह किताब आपके लिए है. उनकी डायरी के पन्नों से निकली यह रचना आपको घंटों बांधे रखेगी.
लेखक ने वीसी गोयल की 'द पावर ऑफ इथिकल पुलिसिंग' से प्रेरणा ली और हिंदी लेखक लक्ष्मण सिंह बटरोही की मदद से इसे साहित्यिक रूप दिया. यह किताब इतनी जीवंत है कि इससे एक दमदार हिंदी फिल्म बन सकती है, जो किसी भी काल्पनिक दबंग कहानी से कहीं अधिक प्रभावशाली होगी.
लेखक का सफर और किताब की रचना
गांव से निकलकर आईआईटी तक का सफर तय करने वाले अशोक कुमार ने समाज में अमीर-गरीब की खाई को पाटने के लिए सिविल सर्विस को चुना. इस किताब में उन्होंने अपनी नौकरी के अनुभवों को सोलह हिस्सों में बांटा है, जो उनकी शुरुआती चुनौतियों से लेकर समाज के लिए समर्पण तक की कहानी बयान करते हैं. हर अध्याय की शुरुआत किसी कविता, गद्य या डायरी की पंक्तियों से होती है, जो पाठक को यह संकेत देती है कि आगे क्या आने वाला है. उदाहरण के लिए, भूमाफियाओं पर तंज कसने के लिए टॉल्स्टॉय की कहानी के किरदार पाहोम का जिक्र किया गया है, जो किताब की साहित्यिक गहराई को दर्शाता है.

उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी अशोक कुमार की किताब 'खाकी में इंसान' पुलिस की वास्तविक जिंदगी और समाज के साथ उसके जटिल रिश्ते को समझाती है.
यह किताब केवल पुलिस की कहानी नहीं, बल्कि समाज की कड़वी सच्चाइयों का भी चित्रण है. लेखक ने अपहरण, सामूहिक बलात्कार और महिलाओं के प्रति अपराध जैसी घटनाओं को संवेदनशीलता से उभारा है. एक घटना में पंचायत के आदेश पर 16 लोगों द्वारा महिला के साथ किए गए अत्याचार का वर्णन तालिबानी मानसिकता को उजागर करता है. साथ ही, रक्तदान जैसी सामाजिक भ्रांतियों को दूर करने का संदेश भी दिया गया है. लेखक की भाषा कभी साहित्यिक है, 'हाड़-मांस का इंसान बैलों की जगह जुतता है', तो कभी रोजमर्रा की, 'अधिकारी बनकर तने रहोगे तो कुछ नहीं सीख पाओगे' जो पाठक के दिल को छूती है.
पुलिस और समाज का रिश्ता
लेखक ने उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आतंकवाद को खत्म करने के अपने अनुभव साझा किए हैं, जो पुलिस और जनता के सहयोग की अहमियत को सामने लाते हैं.
आतंकवादियों के परिवारों पर पुलिस कार्रवाई का प्रभाव और शहीद पुलिसकर्मियों के परिवारों की भावनाएं किताब में भावुकता के साथ उभरती हैं. हरिद्वार और मथुरा की कहानियां पुलिस की समाज में भूमिका को रोचकता के साथ स्पष्ट करती हैं. लेखक 'सड़क पर पड़ रही डकैती' जैसे वाक्यांशों से व्यवस्था पर तंज कसते हैं, जो उनकी लेखन कला को और प्रभावी बनाता है.
निष्कर्ष और पाठक के लिए संदेश
यह किताब पुलिस को भ्रष्ट कहने वालों के सामने पुलिस का पक्ष रखती है, इसके लिए पुलिस की कठिन ड्यूटियों और उनके ऊपर के राजनीतिक दबावों को सामने लाया गया है. यह आपको थाने-चौकियों के बार-बार लगते चक्करों की याद दिलाएगी. वह खाकी, जिससे लोग दूरी बनाते हैं, लेकिन जिसकी जरूरत हर किसी को पड़ती है, उसे समझने के लिए यह किताब पढ़नी जरूरी है. यह किताब न केवल पुलिस की जिंदगी को करीब से दिखाती है, बल्कि समाज के प्रति आपके नजरिए को भी बदल सकती है. इसे पढ़ें और उस इंसान को जानें, जो वर्दी के पीछे छिपा है.
अस्वीकरण: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.