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This Article is From Jan 03, 2016

जीवन में सादगी और आक्रामक राजनीति का मेल

Hridayesh Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 03, 2016 20:01 pm IST
    • Published On जनवरी 03, 2016 15:48 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 03, 2016 20:01 pm IST
‘अरे भाई ये दाल इतनी पतली है। कोई खा सकता है क्या इसे!’ किचन में बैठे बुज़ुर्ग ने रसोइये से शिकायत की।

‘जितने पैसे आप हमें देते हो उतने में ऐसा ही खाना बन सकता है।’ रसोइये ने पलट कर जवाब दिया।

कुछ देर तक बुज़ुर्ग उसे देखता रहा फिर चुपचाप वही खाना खाने लगा। चुपचाप।

ये 2004 में गर्मी की एक उमस भरी दोपहर थी और मैं उस बुज़ुर्ग के साथ किचन में बैठा इंतज़ार कर रहा था कि ये नेता अपना खाना खत्म करे तो मैं साउंड बाइट लूं, अपनी टीवी की स्टोरी के लिये। उस दिन मुझे भरोसा नहीं हो रहा था कि एक साधारण सा रसोइया भी किसी राष्ट्रीय पार्टी के मुखिया को इस तरह झिड़क सकता है। वह बुज़ुर्ग वामपंथ के सबसे धाकड़ नेताओं में एक और सीपीआई के महासचिव ए बी बर्धन थे। नियमों के हिसाब से कॉमरेड बर्धन को दिल्ली के शानदार लुटियंस ज़ोन में बंगला दिया गया था, लेकिन वो खुद उसमें कभी नहीं रहे। ये जगह उन्होंने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के लिये छोड़ दी थी। बर्धन आखिरी दिनों तक पार्टी दफ्तर में ही एक छोटे से कमरे में रहे।

शनिवार को लंबी बीमारी के बाद ए बी बर्धन की दिल्ली के जी बी पंत अस्पताल में मृत्यु हो गई। जो लोग उन्हें करीब से जानते हैं वो आपको बतायेंगे कि उनकी राजनीति जितनी आक्रामक थी वह उतना ही सादगी भरा जीवन जीते थे। कट्टर कम्युनिस्ट नेता अक्सर टीवी पत्रकारों के उकसाऊ सवाल पूछने पर भड़क जाते थे। उन्हें नहीं पता था कि ये रिपोर्टर अक्सर उनसे बात करने इसीलिये आया करते क्योंकि उनका गुस्सैल बयान दिल से निकलता था और टीवी स्टोरी को हिट बना देता था, लेकिन पत्रकारों के उनके मूर्खतापूर्णसवालों के लिये फटकारने के बाद बर्धन का गुस्सा भी तुरंत उतर जाता था।

 ‘एक बार हम एक चुनाव प्रचार के लिये एक दूरदराज़ के गांव में थे। कॉमरेड बर्धन चाहते थे कि सड़क के किनारे एक ढाबे पर चाय पी जाये। एक साथी ने कहा कि दादा आप हमारी पार्टी के महासचिव हो। यहां आपको बिठाने के लिये कुर्सी तक नहीं है। कहीं दूसरी ठीकठाक सी जगह पर चाय पीते हैं। इस पर बर्धन दादा मुस्कुराये और पास में पड़े एक बड़े से पत्थर पर बैठ गये। उन्होंने कहा कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आदमी पार्टी में राजनीति में कहां पहुंच गया है। सादगी को कभी नहीं छोड़ना चाहिये। बर्धन के साथ लंबे वक्त तक पार्टी में काम कर चुकी नेता अमरजीत कौर कहती हैं।

बर्धन के साथ एक युग का अंत हो गया है। वह अपनी पीढ़ी के शायद आखिरी नेता थे। वामपंथ के धाकड़ नेताओं हरिकिशन सिंह सुरजीत, ज्योति बसु, भूपेश गुप्ता, इंद्रजीत गुप्ता, गीता मुकर्जी और अनिल विश्वास के बाद अब बर्धन भी जा चुके हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती दिन महाराष्ट्र में बिताये और उनका जीवन ग्रामीण भारत के लिये काम कर रहे सुदाम देशमुख जैसे नेताओं से प्रभावित रहा। वह अपनी पीढ़ी के साथियों के सहयोगी होने के बाद भी कुछ बातों में बिल्कुल अलग थे। न तो वह सुरजीत की तरह राजनीति के चाणक्य कहे जाते और न ज्योति बसु की तरह प्रशासनिक कुशलता का तमगा उनके पास था। वह जाने जाते थे तो फक्कड़ अंदाज़ में सच बोलने के लिये। उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि उनके बयान अपने ही साथियों को नाराज़ कर सकते हैं।
 

2004 के लोकसभा चुनावों में लेफ्ट फ्रंट ने करीब पांच दर्जन सीटें जीत लीं। ये वामपंथियों के लिये एतिहासिक जीत थी। फिर 2006 में केरल में जीत के साथ लेफ्ट को बंगाल में लगातार सातवीं बार एतिहासिक जीत मिली। वामपंथी राजनीतिक परिदृश्य में मज़बूती से टिके थे। अचानक 2007 में नंदीग्राम और फिर सिंगूर में भड़की हिंसा के बाद किसान विरोधी नीतियों के कारण लाल झंडे वालों का सिंहासन डोलने लगा। ऐसे में बर्धन अपने कॉमरेड्स को बेबाकी से चेतावनी देने वाले पहले नेताओं में थे। इसी दौर में बर्धन ने अमेरिका के साथ हो रहे परमाणु करार के खिलाफ यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने की ज़ोरदार वकालत की। यूपीए की पूंजीवादी नीतियों से वह खफा थे ही औऱ सबसे पहले उन्होंने ही इस बात को कहा कि इस सरकार के साथ हमारा हनीमून खत्म हो चुका है। वह ममता बनर्जी की राजनीति से लड़ने में बुद्धदेव भट्टाचार्जी के तौर तरीकों और भाषा से खुश नहीं थे। जब 2009 में लेफ्ट को लोकसभा चुनावों में करारी हार मिली तो बर्धन ने एक इंटरव्यू में मुझसे कहा कि 2011 के बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले भट्टाचार्जी को सीएम के पद से हटाया जाना चाहिये।

‘बर्धन दादा को किसी तरह का घमंड या घमंडी भाषा पसंद नहीं है... अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ भी नहीं।’ सीपीआई के एक नेता ने उस वक्त मुझसे कहा जब बंगाल में वामपंथियों और ममता बनर्जी के बीच घमासान चल रहा था। सीपीआई के नेता बर्धन कुछ बहुत विवादित फैसलों के लिये भी याद रखे जायेंगे, जैसे उन्होंने 2005 के विधानसभा चुनावों में लालू प्रसाद यादव की आरजेडी के साथ गठबंधन किया, जबकि सीपीएम लालू की छवि को लेकर नाराज़ थी और उसने अलग लड़ने का फैसला किया।

इसके बावजूद ए बी बर्धन वामपंथी एकता के सबसे मुखर समर्थक रहे। अक्सर सीपीएम-सीपीआई के एकजुट होने की बात होती रही है। बर्धन खुलकर कहते कि दोनों पार्टियों में ऐसे नेता हैं जो नहीं चाहते कि सीपीएम और सीपीआई का विलय हो, लेकिन साथ चलना ही आगे का रास्ता तय करेगा।

आज जब लेफ्ट फ्रंट संसद में कमज़ोर है और सड़क पर उसकी आवाज़ कम सुनी जा रही है, उन लोगों के लिये कॉमरेड बर्धन के ये शब्द रास्ता दिखा सकते हैं जो वामपंथी राजनीति को प्रासंगिक बनाये रखना चाहते हैं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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