आज आपसे एक अनुभव साझा करना चाहती हूं. मेरे पड़ोस में एक मिश्रा जी रहते हैं. उनके एक बेटा और दो बेटियां हैं. बेटे की शिक्षा प्राइवेट स्कूल में कराई गई और बेटियों की सरकारी में. बेटे को रात को 8 बजे तक घर से बाहर रहने की आजादी है और बेटियों के स्कूल से सीधे घर में कैद होने का विकल्प... फिर भी वो ये कहते नहीं थकते कि ‘बेटे तो कीड़े हैं, जिंदगी भर खून पीएंगे. पार तो बेटियों ने ही लगाना है’.
मैं उनका स्टेट्स समझ नहीं पाती. वो आखिर किसे ज्यादा चाहते हैं. आर्थिक और सामाजिक रूप से वे अपने बेटे को मजबूत बनाते हैं, लेकिन गुणगान बेटियों का करते हैं... क्या व्हाट्सऐप, क्या फेसबुक, क्या ट्विटर हर जगह वे – 'प्यारी बेटियां', 'भाग्य से मिलती हैं बेटियां' और ऐसे ही संदेश बांचते फिरते हैं. ऐसा नहीं कि वे अपनी बेटियों को इज्जत नहीं देते. जरा सा पैर क्या छू जाए बेटी को, तुरंत उसके पैर पड़ जाते हैं- 'देवी मां माफ कर दो, माफ कर दो'.
मिश्रा जी अकेले ऐसे नहीं. हमारे आसपास ऐसे बहुत लोग हैं. जो बेटी की इज्जत करते हैं, उन्हें प्यार करते हैं. यहां तक कि उन्हें बेटों से ऊपर या बढ़कर मानते हैं. पर मेरा सवाल ये है कि बेटों से ऊपर क्यों, बराबर क्यों नहीं. आखिर क्यों लड़की को ही लक्ष्मी माना जाए. और माना भी जाए, तो लड़कों को कुबेर कहने में क्या हर्ज है... बात आखिर बराबरी की हो रही है ना...
यह एक परंपरा सी बन गई है. इंटरनेट भी इससे पटा पड़ा है. जाने कहां से व्हाट्सऐप, फेसबुक, ट्विटर के लिए रोज नए वॉलपेपर, मेसेज वगैरह के अविष्कार हो रहे हैं. अच्छी बात है. लड़कियों को सम्मान मिलना चाहिए. बराबरी उनका जन्मसिद्ध हक जो है. लिंग के आधार पर भेदभाव या ऊंच-नीच कतई बर्दाश्त न की जाए. लेकिन हम किस दिशा या संदर्भ में इस बराबरी की बात कर रहे हैं. हर जगह तो उन्हें बेटों से बेहतर दिखाने की कोशिश होती है. जब बेहतर शब्द आ गया तो बराबरी का विकल्प कहां बचा... बेहतरी की यह लड़ाई दिमागी आधार पर होनी चाहिए, लिंग के आधार पर नहीं. लिंग के आधार पर केवल बराबरी की बात जंचती है.
हमारे समाज की यह विसंगति ही तो है कि हम विकास और बराबरी की बातें भी करते हैं, तो भेदभाव का बीज बोते हुए. क्या आपने सोचा है कि लड़कियों को इस तरह आगे बढ़ाने के चक्कर में हमने कितने लड़कों के मन में उनके लिए नफरत भर दी होगी.
कुछ दिन पहले एक धार्मिक चैनल पर कोई गुरुदेव जी प्रवचन दे रहे थे. हालांकि मैं गुरु परंपरा से अभी तक बची हुई हूं फिर भी गाहे-बगाहे चैनल बदलते हुए ही कई बार उनकी बातें कानों में पड़ जाती हैं. उन गुरु ने एक कथा सुनाई. जिसमें कहा गया था -
'बेटी, बेटों से अच्छी होती हैं. क्योंकि जब बाप रात को देर से लौटता है, तो बेटा कभी नहीं पूछता कि 'पापा खाना खाया क्या'... बेटी जरूर पूछती हैं...'
इस बात के आधार पर उन्होंने वहां हजारों की संख्या में बैठे भक्तों की आंखों में आंसू ला दिए. यकीनन उस समय सब अपने बेटों को ही कोस रहे होंगे. लेकिन वो महान गुरु यह बताना तो भूल ही गए कि हमने ही बेटे और बेटी में ये सीख और संस्कार डाले हैं. फिर इसमें बेटे को क्यों दोष देना.
बेटा और बेटी का फर्क हमारी अपनी देन है. मैं बस यह कहना चाहती हूं कि जब तक हम यह कम-ज्यादा की तुलना छोड़ कर बराबरी पर नहीं आएंगे, तब तक ये भेद खत्म नहीं हो पाएगा. अब बॉल आपके पाले में है. आज से ही बेटी को अच्छा और बेटे को बुरा कहना बंद करें. उन्हें बराबरी के संस्कार दें. ताकि आने वाले समय में कोई मां ऑफिस, रसोई और बच्चों की जिम्मेदारी सहते हुए बेहतर होने का बोझ न सहे और कोई पुरुष कमतर होने और महिलाओं से बुरा होने का लाभ उठाकर मजे या घृणा की जिंदगी न जीए.
अनिता शर्मा NDTV Convergence में कार्यरत हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
This Article is From May 02, 2017
#बराबरी : बेटियों को इतना बड़ा भी न बनाएं कि बेटे बौने पड़ जाएं...
Anita Sharma
- ब्लॉग,
-
Updated:मई 02, 2017 20:02 pm IST
-
Published On मई 02, 2017 20:02 pm IST
-
Last Updated On मई 02, 2017 20:02 pm IST
-