दिल्ली से सटे हरियाणा में बीजेपी की अपने दम पर जीत इस विधानसभा चुनाव की बहुत बड़ी खबर है। महाराष्ट्र में बीजेपी के बहुमत से दूर रह जाने और सरकार को लेकर चल रही अटकलों में हरियाणा में बीजेपी की जीत की ये कहानी मीडिया की नजरों में नहीं आ सकी। लेकिन इस कहानी के कई महत्वपूर्ण पहलू हैं, जो बीजेपी के नए अध्यक्ष अमित शाह के चुनाव प्रबंधन को बताते हैं।
शाह को यह एहसास था कि बीजेपी ने विश्नोई के साथ गैर-बराबरी का समझौता किया और उन्हें उनकी हैसियत से ज़्यादा दे दिया। पार्टी की कमान संभालने के बाद उन्होंने विश्नोई से नए सिरे से बात की और 45 की जगह 20 सीटें और उपमुख्यमंत्री पद की पेशकश की। जिसे विश्नोई ने ठुकरा दिया और बीजेपी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया।
लेकिन बीजेपी के पास सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए न तो पर्याप्त संख्या में कार्यकर्ता थे और न ही संगठन और न ही उम्मीदवार। पार्टी ने बाहर से उम्मीदवार लिए। लोक सभा चुनाव की ही तरह कांग्रेस, इंडियन नेशनल लोकदल जैसी विरोधी पार्टियों से नेताओं को रातों-रात लाकर टिकट थमा दिया गया। बीजेपी पर बाहरी उम्मीदवारों का दबदबा किस कदर है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी के 47 विधायकों में से 17 दूसरी पार्टियों से आए हैं।
यही हाल कार्यकर्ताओं का रहा। बीजेपी ने अन्य राज्यों से हरियाणा में अपने कार्यकर्ताओं की फौज तैनात कर दी। राज्य के चुनाव प्रभारी मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री कैलाश विजयवर्गीय बनाए गए थे और वहां से बड़ी संख्या में कार्यकर्ता हरियाणा आए। मध्य प्रदेश के अलावा पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से भी सांसदों और विधायकों की तैनाती की गई। 90 सीटों और 22 ज़िलों में प्रभारी से लेकर कार्यकर्ता तक की तैनाती कर उनसे हर रोज अभियान की रिपोर्ट ली जाने लगी। हरियाणा के ही प्रभारी डॉक्टर अनिल जैन हर शाम को सीट वार रिपोर्ट ले कर पार्टी आलाकमान को सूचित कर रहे थे। डेढ़ महीने पहले से ही हर सीट पर एक-एक फुलटाइमर की नियुक्ति कर दी गई थी। आरएसएस के स्वयंसेवकों को सक्रिय कर बूथ पर कार्यकर्ताओं की फौज जुटाने का जिम्मा सौंप दिया गया था। मतदान के दिन अपने वोटरों को लाने के लिए अलग से व्यवस्था की गई।
दलित बहुल इलाकों में काम करने का जिम्मा पार्टी के अनुसूचित जाति मोर्चे के दुष्यंत गौतम और अन्य नेताओं को दिया गया। दलितों के हर तबके पर अलग से ध्यान दिया गया। मिसाल के तौर पर जाटवों के दो अलग गुटों से अलग-अलग तरह से बात कर बीजेपी के लिए समर्थन जुटाया गया। वाल्मिकी, खटीक, धनिक सब वर्गों के मतदाताओं को साथ लेने के लिए पहल की गई और हर दिन की प्रगति की समीक्षा की गई। जाटों और दलितों में परंपरागत अनबन को देखते हुए पूरी कोशिश की गई कि दलित वोट को साधने में कहीं जाट नाराज़ न हो जाएं। एक विवादास्पद दलित नेता जो अपनी एक सभा जाट बहुल इलाके में करना चाहते थे, उन्हें दिल्ली से सटे शहरी इलाके में अपना कार्यक्रम करने के लिए मनाया गया।
दूसरी चुनौती थी जाट वोटों के ओम प्रकाश चौटाला के समर्थन में ध्रुवीकरण को रोकने की। पार्टी ने इसके लिए 25 जाट उम्मीदवारों को टिकट दिया। बीजेपी के रणनीतिकारों को ये एहसास था कि पार्टी की छवि गैर जाट जातियों के समर्थक के तौर पर होने के वजह से जाट मतदाता छिटक सकते हैं। कांग्रेस से लाए गए चौधरी वीरेंद्र सिंह जैसे ताकतवर जाट नेता की पत्नी को टिकट दिया गया। प्रचार में चौधरी वीरेंद्र सिंह, कैप्टन अभिमन्यु और ओमप्रकाश धनकड़ को लगाया गया। बीजेपी की कोशिश थी कि ताकतवर जाट उम्मीदवार अपने बूते पर सीट निकालें ताकि चौटाला को नुकसान पहुंचाया जा सके और जाट वोट चौटाला के पक्ष में लामबंद न हो सके। जाट वोटों में पार्टी ने कुछ हद तक सेंध भी लगाई। पार्टी के छह जाट उम्मीदवार चुनाव जीते। जाट युवाओं की ओर खास तौर से ध्यान दिया गया। पार्टी को एहसास था कि युवाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत लोकप्रिय हैं और इसका इस्तेमाल अपने पक्ष में हो सकता है।
लेकिन पार्टी ने ये ध्यान रखा कि जाटों को साथ लेने के प्रयास में कहीं उसका कोर वोट बैंक यानी गैर जाट छिटक न जाए। प्रचार के अंतिम चरण जब सूत्रों के हवाले से कैप्टन अभिमन्यु को मुख्यमंत्री बनाने की खबरें चलने लगीं तो गैर जाट मतदाताओं में इसकी विपरीत प्रतिक्रिया रोकने के लिए पार्टी ने खंडन करने में देर नहीं लगाई। 48 गैर जाट उम्मीदवारों को जिताने में पार्टी ने पूरी ताकत झोंक दी।
दलितों और गैर जाटों को साथ लेने के लिए बीजेपी ने हरियाणा में मशहूर अलग-अलग पंथों, डेरों और बाबाओं की भी मदद ली। बीजेपी ने उन धर्म गुरुओं की पहचान की जिनका कई इलाकों में असर था। डेरा सच्चा सौदा की ओर से आखिरी वक्त पर बीजेपी के पक्ष में जारी की गई अपील ने मीडिया का ध्यान खींचा लेकिन पार्टी ने इसके अलावा भी कई अन्य गुरुओं से अपील जारी करवाई। डेरा सच्चा सौदा का दलितों और पिछड़े वर्ग में खासा असर है। हालांकि ये विश्लेषण का विषय है कि बीजेपी को इससे वाकई कितना फायदा हुआ।
बीजेपी नेताओं के मुताबिक, डेरे के असर वाले सिरसा में बीजेपी को सिर्फ एक सीट टोहाना में जीत मिली। डबवाली, कलावली और रठिया में जीत हासिल नहीं हुई। हिसार में भी प्रभाव है, लेकिन वहां बीजेपी नहीं जीत पाई। राज्य की 17 आरक्षित सीटों में बीजेपी को 9 सीटों पर जीत मिली और वो भी अधिकांश जीटी-करनाल रोड के इलाके पर।
गैर जाट वोटों पर ध्यान बनाए रखने को बीजेपी को जबर्दस्त फायदा मिला। पार्टी के 47 विधायकों में 8 पंजाबी, 7 वैश्य, 6 यादव, 4 ब्राह्मण, 2 सैनी, एक सिख और एक रोठ है। पार्टी इसीलिए गैर जाट से मुख्यमंत्री बनाना चाहती है। बीजेपी के मुताबिक चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि गैर जाट वोटों का बीजेपी के पक्ष में पूरी तरह से ध्रुवीकरण हुआ और इसीलिए इस वर्ग की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
पार्टी ने प्रचार के लिए वीडियो रथ का इस्तेमाल किया। 90 वीडियो रथों को मैदान में उतार दिया गया यानी हर सीट पर एक। जीपीएस से तैनात इन रथों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों और अपीलों को दिखाया गया। न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वेयर गार्डन पर दिए गए प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों की सीडी बनवा कर बांटी गई। स्थानीय न्यूज चैनलों पर स्लॉट खरीद कर प्राइम टाइम पर दिखाया गया। रणनीतिकारों के मुताबिक मोदी ने जिस तरह अमेरिका की धरती पर मजबूती के साथ अपना पक्ष रखा और भारत को एक मजबूत ताकत के रूप में पेश किया, उससे युवाओं में बीजेपी को खूब समर्थन मिला।
बीजेपी के तरकश का ब्रह्मास्त्र था उन कमजोर सीटों की पहचान जहां उसके आकलन के मुताबिक हार-जीत का अंतर पांच हजार वोटों के भीतर रहने वाला था। बीजेपी ने ऐसी सीटों के लिए खास तैयारियां की। कार्यकर्ताओं को विशेष निर्देश दिए गए कि किस तरह से मतदान के दिन कम से कम पांच हजार वोट बीजेपी के पक्ष में डलवाए जाएं। इसकी जिम्मेदारी पन्ना प्रमुखों पर थी। यानी मतदाता सूची के हर पन्ने के लिए एक कार्यकर्ता जिम्मेदार जिसका काम था उस पन्ने पर जितने मतदाताओं के नाम थे उनसे संपर्क कर उन्हें मतदान केंद्रों तक लाना और उनसे वोट डलवाना। इन पन्ना प्रमुखों के पास हर परिवार के मुखिया का मोबाइल नंबर था, जिससे वो संपर्क में रह सकें।
विरोधी पार्टियों की गतिविधियों, प्रचार और रैलियों आदि की जानकारियां जुटाने के अलावा बीजेपी ने सट्टा बाज़ार पर भी नजर रखी। पार्टी हर शाम को राज्य के अलग-अलग शहरों में चलने वाले सट्टा बाज़ार में किसी पार्टी को कितनी सीटें मिलने या किस उम्मीदवार की जीत या हार का क्या भाव है, इसकी भी जानकारी जुटा रही थी। इसकी रिपोर्ट भी हर रोज ऊपर तक भेजी जा रही थी।
इनमें से कई बातें ऐसी भी हैं जो बीजेपी की विरोधी पार्टियां भी इस्तेमाल करती आ रही हैं। लेकिन पार्टी को राज्य में बने कांग्रेस विरोधी माहौल का खूब फायदा मिला। कांग्रेस के दस साल के शासन के बाद मतदाता विकल्प ढूंढ रहे थे। बीजेपी ने मोदी की लोकप्रियता को आगे कर उन्हें अपनी ओर करने की कोशिश की जो काफी हद तक कामयाब रही। चुनावी प्रबंधन की ये अमित शाह की शैली ही है जिसमें काफी हद तक विकेंद्रीकरण की गुंजाइश होती है। इसमें नेताओं और कार्यकर्ताओं में काम बांट कर उसके क्रियान्वयन पर निगरानी रखना, किसी बड़ी कंपनी के सीईओ की शैली ही लगती है। मगर चाहे मोदी हों या फिर शाह दोनों ही गुजरात में इस तरह की शैली से काम करने के अभ्यस्त हो गए हैं, जिसे अब दूसरे राज्यों में भी आज़माया जा रहा है।
This Article is From Oct 21, 2014
अखिलेश शर्मा की कलम से : बीजेपी ने कैसे जीता हरियाणा?
Akhilesh Sharma
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Updated:नवंबर 20, 2014 13:09 pm IST
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Published On अक्टूबर 21, 2014 11:01 am IST
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Last Updated On नवंबर 20, 2014 13:09 pm IST
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