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This Article is From Jun 05, 2018

बीजेपी-शिवसेना : यह रिश्ता क्या कहलाता है? शायद कल मिले इसका जवाब

Akhilesh Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 05, 2018 19:16 pm IST
    • Published On जून 05, 2018 19:16 pm IST
    • Last Updated On जून 05, 2018 19:16 pm IST
बीजेपी और शिवसेना के तीन दशकों के गठबंधन के भविष्य को लेकर कल का दिन बेहद महत्वपूर्ण है. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह कल शाम को मुंबई में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से उनके घर मातोश्री में मिलेंगे. बीजेपी शिवसेना का गठबंधन भारतीय राजनीति के सबसे पुराने और मजबूत गठबंधनों में से एक है लेकिन 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही इसकी दरार गहराती जा रही है. पिछले एक महीने में तो दोनों ही पार्टियों के रिश्ते गर्त में पहुंच गए. पालघर लोक सभा उपचुनाव में बीजेपी के हाथों हारने के बाद शिवसेना ने बीजेपी को अपना राजनीतिक दुश्मन नंबर एक तक बता दिया. शिवसेना अगला लोक सभा चुनाव अकेले ही लड़ने का ऐलान कर चुकी है. लेकिन पालघर में जीत के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि बीजेपी को शिवसेना से मिल कर चुनाव लड़ने की कोशिश करनी चाहिए. अगर ऐसा न हो तभी अकेले चुनाव लड़ेगी. कमोबेश यही बात बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने भी कही थी. ज़ाहिर है अब दारोमदार कल की मुलाकात पर है.

दरअसल, सारी लड़ाई इसी बात पर है कि महाराष्ट्र में बड़ा भाई कौन है. कुछ-कुछ वैसे ही जैसे बिहार में जेडीयू और बीजेपी के बीच फांस फंसी हुई है. 1999 से ही सीटों के बंटवारे का फार्मूला तय था. विधानसभा चुनाव में यह 171-117 था. यानी शिवसेना 171 और बीजेपी 117. 2009 में दो सीटें कम-ज्यादा हुईं. यानी 169-119. जबकि लोक सभा चुनाव में बीजेपी अमूमन 26 और शिवसेना 22 सीटों पर चुनाव लड़ती आई हैं. लेकिन 2014 के लोक सभा चुनाव में अपने बूते बहुमत हासिल कर चुकी बीजेपी अब छोटा भाई रहने के लिए तैयार नहीं थी. उसने अक्टूबर के विधानसभा चुनाव में बड़ा हिस्सा मांगा. उत्तर भारतीय पार्टी मानी जाने वाली बीजेपी को लोक सभा चुनाव में बड़े पैमाने पर मराठा और गुजराती वोट भी मिले. बीजेपी को लगा कि उसका महाराष्ट्र में ज़्यादा फैलाव हुआ है इसलिए पचास ऐसी सीटें जहां शिवसेना कभी नहीं जीती, बीजेपी को मिलनी चाहिए. माना गया कि इसके पीछे अमित शाह का ही दिमाग था. शिवसेना इसके लिए तैयार नहीं हुई. बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूटा और दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ीं. बीजेपी को 122 सीटें मिलीं और वह बहुमत से दूर रही. लेकिन पहली बार मुख्यमंत्री बीजेपी का बना और शिवसेना का उप मुख्यमंत्री तक नहीं बन पाया. मातोश्री के हाथों से रिमोट कंट्रोल चला गया. केंद्र में भी शिवसेना का एक ही कैबिनेट मंत्री बना और जब अनिल देसाई को कैबिनेट मंत्री बनाने की बात नहीं मानी गई तो वे शपथ ग्रहण समारोह के दिन एयरपोर्ट से ही मुंबई वापस चले गए.

बाला साहेब ठाकरे के वक्त बेहद मजबूत शिवसेना इतनी बेबस और लाचार कभी नहीं दिखी. बीएमसी में भी बीजेपी को शिवसेना से सिर्फ सात सीटें कम मिलीं. हालांकि बाद में बीजेपी ने वहां शिवसेना को समर्थन दे दिया.

अब शिवसेना बीजेपी को उसी की भाषा में जवाब देना चाहती है. विधानसभा में शिवसेना अपना वर्चस्व चाहती थी जो बीजेपी ने नहीं होने दिया. अब शिवसेना जानती है कि बीजेपी के लिए 2019 का लोक सभा चुनाव कितना महत्वपूर्ण है. यूपी के बाद महाराष्ट्र सबसे ज्यादा सांसद भेजता है. अब हिसाब चुकाने की बारी शिवसेना की है. हालांकि न्योते के बावजूद शिवसेना ने कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्षी एकता के प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लिया. हिंदुवादी राजनीति के ठप्पे के चलते कांग्रेस-एनसीपी उसके नजदीक नहीं आना चाह रहे. वैसे फेडरल फ्रंट का ढोल पीट रहीं ममता बनर्जी को शिवसेना से परहेज नहीं लगता. लेकिन शिवसेना अब अगर बीजेपी से गठबंधन के लिए तैयार भी होगी तो उसकी बड़ी कीमत वसूलेगी क्योंकि इस बार गरज बीजेपी की है. पर शिवसेना के भीतर से आवाज़ें भी उठ रही हैं. एक बड़ा खेमा चाहता है कि बीजेपी से रिश्ते न टूटें. ऐसे में कल की बैठक के बाद शायद बीजेपी शिवसेना के रिश्तों की तस्वीर कुछ साफ हो.


(अखिलेश शर्मा एनडीटीवी इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)

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