नीतीश कुमार बिहार राज्य के मुख्यमंत्री हैं
अगर आप किसी बात की सरल व्याख्या नहीं कर सकते तो आपने उसे कायदे से समझा नहीं है, यह अल्बर्ट आइंस्टाइन ने कहा था। मोदी सरकार अपना पहला साल पूरा करने जा रही है और सरकार ने हासिल क्या किया है? मोदी सरकार के सबसे मुखर मंत्रियों और समर्थकों के पास कोई आसान जवाब नहीं है। इसके उलट, कोई भी आम आदमी बड़ी आसानी से आपको बता सकता है कि सरकार ने क्या नहीं किया। किसान से, बेरोज़गार नौजवान से, गृहस्थन से, किसी जानकार नागरिक से, कारीगर से, दिहाड़ी मज़दूर से, शिक्षक से, यहां तक कि साल भर पहले जिन्होंने मोदी सरकार को वोट दिया था, उनसे भी पूछिए - उन्हें यह बताने में कोई मुश्किल नहीं आएगी कि सरकार ने क्या नहीं किया है।
हां, सतह पर कोई बड़ा घोटाला दिखाई नहीं पड़ रहा है। कोयला नीलामी हो चुकी है, हालांकि बिजली के दामों पर उसके नतीजे अभी देखे जाने बाकी हैं। मोदी 2014 की मुहिम के सबसे अग्रणी समर्थकों में एक अरुण शौरी कहते हैं कि सरकार ने दो लाख करोड़ रुपये जुटाने का जो ज़ोरदार प्रचार किया है, वह भ्रामक है (वह कहते हैं कि असल प्राप्ति सिर्फ 6,200 करोड़ की है)। योजना आयोग की जगह नीति आयोग ने ले ली है (हालांकि उसका काम शुरू होना बाकी है)। शेयर बाज़ार ने कम से कम अपना स्तर बनाए रखा है और रुपया एक दायरे में बंधा रहा है। जन-धन योजना के बाद भारत शायद दुनिया में सबसे ज़्यादा ज़ीरो बैलेंस वाले निष्क्रिय खाते रखने वाला देश बन गया होगा। बेशक, योग को अब पहले से ज़्यादा अंतरराष्ट्रीय पहचान हासिल हुई है। प्रधानमंत्री की इतनी तस्वीरें हो चुकी हैं, जितनी अब तक के सारे प्रधानमंत्रियों की मिलाकर नहीं हुई होंगी और हां, उनके हिस्से इतने सेल्फी हैं, जितने बाकी सारे मंत्रियों के मिलाकर नहीं होंगे। साफ तौर पर, इनमें से कुछ ने भारत के लिए एक ग्लोबल पहचान बनाई है। वाकई? क्या ऐसे ही एजेंडे के लिए लोगों ने वोट दिए थे? यह ठोस बात की जगह दिखावे का, और आम आदमी के कानों को सुहा सकने वाले बदलाव के संगीत की जगह कर्कश शोर का जाना-पहचाना उदाहरण है।
2014 के संसदीय चुनावों की दौड़ में, प्रधानमंत्री और बीजेपी ने इतना व्यापक प्रचार अभियान चलाया कि भारत ने पहली बार देखा। इसकी पहुंच इतनी बड़ी थी कि इसके नारे, जैसे 'अच्छे दिन आने वाले हैं' और 'अबकी बार, मोदी सरकार' बच्चों की ज़ुबान पर भी चढ़ गए। प्रधानमंत्री ने इस अभियान की अगुवाई की, यूपीए को चुनौती दी कि वह साबित करे कि वह अहम मुद्दों पर नाकाम नहीं है और भारत के लोगों से बदलाव के एजेंडे का बिना शर्त वादा कर दिया। गुजरात के विकास की शानदार, लेकिन अपुष्ट कहानियां सोशल मीडिया के संसार में उमड़ पड़ीं। जनता की यह कल्पनाशीलता इतनी तेज़ी से विकसित हो गई कि धर्मनिरपेक्षता प्रचार की बुरी रणनीति बन गई और जो कुछ भी बचा हुआ था, उसे 'सबका साथ सबका विकास' के नारे ने लील लिया। पूंजीपतियों ने बीजेपी के प्रचार अभियान के लिए अपना ख़जाना खोल दिया और मीडिया ने भी व्यापक जनसमर्थन दिखाया, जिसे अक्सर कैमरों के चालाकी भरे इस्तेमाल की मदद मिली। इस जादू ने काम किया। पर्याप्त लोगों ने (31%) मोदी सरकार को वोट देकर बीजेपी को स्पष्ट बहुमत तक और एनडीए को ख़ासे बड़े बहुमत तक पहुंचा दिया।
साल भर बाद, अब कोई जादू नहीं बचा है। गांवों में बेतरह हताशा दिख रही है और ज़रूरी सामानों के दाम लगातार बढ़ते जा रहे हैं - भले ही मीडिया उन पर शोर नहीं मचा रहा है। यह मान्यता बड़े पैमाने पर है कि सरकार किसानों और गांवों के गरीबों के हितों के लिए काम नहीं कर रही। नौजवानों के बीच बेरोज़गारी काफी ज़्यादा बनी हुई है। गरीब और पिछड़े हुए राज्यों को संसाधनों की बेइंतहा कमी झेलनी पड़ रही है। केंद्र सरकार अपनी तरफ से सामाजिक कल्याण और गरीबी उन्मूलन से जुड़ी अहम योजनाओं को या तो वापस ले ले रही है या उन्हें बहुत कमज़ोर कर दे रही है - और राज्य अपने हाल पर रह गए हैं। देश के बुनियादी ढांचे का रखरखाव और विकास मद्धिम बना हुआ है, जबकि इसके लिए मांग लगातार बढ़ रही है। प्रशासन की मूल संस्थाओं - संस्कृति, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में - एक ग़ैरज़रूरी और अपूर्व नेतृत्व संकट दिखाई पड़ रहा है।
सामाजिक सौहार्द इतना क्षीण हो चुका है कि दूसरे देश भी इसका नोटिस ले रहे हैं और भारत सरकार के लिए दिशानिर्देश जारी कर रहे हैं। लोग महत्वपूर्ण नेताओं और ताकतवर पूंजीपतियों के बीच अनुचित निकटता पर सवाल खड़े कर रहे हैं, जबकि उद्योगों के दिग्गज औद्योगिक वृद्धि को आगे बढ़ाने में उन तक पहुंचने के संकट की बात कर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने शायद अब तक जितने देशों का दौरा कर लिया है, उतना भारत के राज्यों में नहीं घूमे हैं, और देश के विदेशमंत्री के मुकाबले उन्होंने कहीं ज़्यादा दौरे किए हैं। फिर भी चीन और पाकिस्तान के साथ सीमा का हाल और बुरा हुआ जा रहा है।
सरकार के ताकतवर मंत्री वोटरों से कट गए लगते हैं और बीजेपी के बड़े नेताओं का अहंकार ऐसा है कि वे इसे स्वीकार नहीं सकते। भारत के लोग हैरानी से देखते रहे, जब बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने प्रधानमंत्री के चुनावी वादे को महज रैलियों में लोगों को खुश करने के लिए इस्तेमाल किया गया जुमला बताकर ख़ारिज कर दिया। यह वह मानसिकता है, जिसके साथ 'सबका साथ सबका विकास' के नारे को 'लव जेहाद' और 'घर वापसी' के घृणित अभियान में बदला गया और जब दिल्ली में चर्चों को नुकसान पहुंचाया गया तो यही मानसिकता दूसरों पर अंगुली उठाने के काम आई।
मोदी सरकार के बारे में सबसे आसान जवाब खुद प्रधानमंत्री की तरफ से आया - इस साल फरवरी में उन्होंने दिल्ली के लोगों से 'नसीबवाले' को वोट देने की अपील की। बहरहाल, यह भी नाकाम हो रहा है। हाल में पेट्रोलियम के दाम बढ़ गए हैं। बीते एक साल में देश ने प्रकृति का भी अपूर्व कोप झेला है, जिससे फसलों, घरों और जीवन की बरबादी हुई है। इन सब पर सरकार की प्रतिक्रिया केंद्रीय नेताओं के दौरों तक सीमित रही है, जिसमें वित्तीय प्रतिबद्धता के लिहाज से कोई ठोस काम नहीं के बराबर है।
भारत के किसी भी क्षेत्र के आम आदमी के पास इस बात का साफ जवाब है कि मोदी सरकार ने क्या नहीं किया। लोगों को याद है कि प्रधानमंत्री ने वादा किया था कि काले धन की एक-एक कौड़ी वापस आएगी और इसमें से भारत के हर गरीब को 15-20 लाख रुपये दिए जाएंगे और इसका 5-10 फीसदी हिस्सा करदाताओं को - ख़ासकर वेतनभोगी लोगों को - तोहफे के तौर पर दिया जाएगा। गृहमंत्री ने (जो तब बीजेपी के अध्यक्ष थे) इसके लिए 100 दिन की समयसीमा तय की। मोदी के प्रधानमंत्री अभियान के बाबा योगगुरु रामदेव ने सार्वजनिक तौर पर अपने वक्तव्यों में इस वादे की पुष्टि की थी। देश के किसान जानते हैं कि प्रधानमंत्री ने न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत से 150 फीसदी बढ़ाने का वादा किया था। हमारे नौजवानों ने लगातार सुना है कि प्रधानमंत्री रोज़गर के पर्याप्त अवसर पैदा करने का वादा कर रहे हैं। सेनाकर्मियों के परिजन जानते हैं कि प्रधानमंत्री ने 'एक ओहदा - एक पेंशन' (वन रैंक - वन पेंशन) का वादा किया हुआ है। इन सब में कुछ भी नहीं हुआ।
बिहार की जनता ने अब तक की सबसे बड़ी मायूसी झेली है। प्रधानमंत्री और बीजेपी के दूसरे बड़े नेताओं ने रिकॉर्ड पर बिहार के लिए 'विशेष ध्यान, विशेष सहायता और विशेष श्रेणी के दर्जे' का वादा किया है। बीते एक साल में भारत सरकार ने बिहार के लिए जो कुछ किया है, उसमें कुछ भी विशेष नहीं है। चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिश मंज़ूर करते हुए और इसकी वजह से बहुत ज़रूरी संसाधनों से वंचित रह गए बिहार के लिए विशेष दर्जे पर विचार न करते हुए, भारत सरकार ने बिहार को वित्तीय संकट की ओर धकेल दिया है। यहां तक कि जब भारत के वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में आंध्र प्रदेश की तर्ज पर बिहार और पश्चिम बंगाल के लिए विशेष मदद का ऐलान किया, तो इसे अपने वित्त विधेयक में शामिल नहीं किया, न ही ऐसे कोई कदम उठाए, जिनसे इस खास वादे को कोई मूर्त रूप दिया जा सके।
साल भर पहले शानदार उम्मीद के साथ शुरू करने वाली मोदी सरकार अब बेइंतहा संदेह के साथ चल रही है। लोग महसूस करते हैं कि सरकार भले कुछ भी कर दे, लेकिन अपने वादे पूरे नहीं कर सकती। सुप्रीम कोर्ट में हाल ही में दाखिल अपने एक हलफनामे में भारत सरकार ने कहा है कि किसानों को उनकी लागत का 150 फीसदी न्यूनतम समर्थन मूल्य के तौर पर देना आर्थिक तौर पर वहनीय नहीं है। यही नहीं, देश भर के किसान एक अनुचित डर के माहौल में जी रहे हैं कि मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में प्रस्तावित बदलावों के जरिये उनकी मर्ज़ी के बिना उनकी ज़मीन छीनने का इरादा रखती है। जब काले धन, सबका साथ सबका विकास, विशेष श्रेणी जैसे वादों की बात होती है, तब सरकार के ऐसे यू टर्न को लोगों ने बड़ी हैरानी से देखा है। राजनीतिक तौर पर, बीजेपी ने शिवसेना और अकाली दल के साथ अपने सलूक के जरिये गठजोड़-निर्माण में किसी विश्वास की ज़रूरत से खुद को आज़ाद कर लिया है। यही नहीं, बीजेपी अध्यक्ष ने चुनावी वादों को वोट में बदलने का और चुनावी शपथ को जुमलों में बदलने का फॉर्मूला निकाल ही लिया है। राज्यों में आने वाले चुनावों में, इसी से सबक लेते हुए, बिहार में बीजेपी फिर से वादों की बैटरी लेकर उतर आई है, जिन्हें बाद में 2015 के जुमलों के खाते में डाल दिया जाएगा।
बीते कुछ महीनों में, मैं बिहार भर में घूमा हूं और बड़ी संख्या में जनसभाओं में बोलता रहा हूं। जब लोग काले धन, किसानों के लिए न्यूनयम समर्थन मूल्य, बिहार को विशेष मदद और विशेष श्रेणी और युवाओं को रोज़गार जैसे मुद्दों पर प्रधानमंत्री के वादों के ऑडियो टेप सुनते हैं तो वे हैरानी में डूब जाते हैं और फिर उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। भारत में किसी और सरकार ने महज एक साल में इस तरह भरोसा नहीं खोया है।
सरकार चलाने वाले लोगों का मन सेल्फी लेने में लगता है। बहरहाल, अब ठहरकर देखने और असली भारत की तस्वीर लेने का समय है। लोगों ने वोट दिया था 'सेल्फलेस' नेतृत्व के लिए और उन्हें मिला सेल्फी नेतृत्व। एक ऐसे समय में, जब ख़राब मौसम से बरबाद हुई फसल की वजह से लाखों किसान कंगाल हुए जा रहे हैं, भारत सरकार अपने एक साल के प्रचार में सैकड़ों करोड़ रुपये ख़र्च करने जा रही है। ऐसे समय में, उन किसानों के परिवारों के लिए मुझे अफसोस होता है, जिन्होंने भारत में खेती की हताशा की वजह से खुदकुशी कर ली। मैं चाहता हूं कि भारत के लोग मोदी सरकार का उनके चुनावी वायदों के आधार पर मूल्यांकन करें, न कि उन उपलब्धियों की तस्वीरें और कहानियां पसंद करने को मजबूर हों, जो एजेंडा में नहीं थीं। और हां, मैं बिहार में सरकार चला रहा हूं और साफ तौर पर कुछ नेताओं से कह दूं - कोई घोटाला न होना कोई उपलब्धि नहीं है, यह एक नैतिक और कानूनी बाध्यता है। यह महान देश तब खुशहाल होगा, जब गांधी का ताबीज़ हमारी सरकारी नीतियों का मार्गदर्शन करेगा - कि खाते-पीते लोगों के मुक़ाबले गरीब से गरीब और हाशिये पर पड़े नागरिक के हितों का खयाल रखना ज़रूरी है। लोकतंत्र आपको यकीन दिलाता है कि गांधी का ताबीज़ जीतेगा। भारत की जनता की निगाहों में, मोदी सरकार सिर्फ आइंस्टाइन की कसौटी पर नाकाम नहीं है, वह गांधी के ताबीज़ की कसौटी पर भी विफल है।
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This Article is From May 25, 2015
मोदी 365 पर बिहार के सीएम नीतीश कुमार : 'यह सेल्फलेस नहीं, सेल्फी का नेतृत्व है'
Nitish Kumar
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Updated:मई 26, 2015 08:23 am IST
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Published On मई 25, 2015 18:51 pm IST
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Last Updated On मई 26, 2015 08:23 am IST
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