बिहार में विधानसभा चुनाव 2025 के दूसरे चरण के नामांकन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है. सभी प्रमुख राजनीतिक दल बिहार के चुनावी समर में उतर चुके हैं. इनमें एक तरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) है. यह गठबंधन करीब 17 साल से बिहार की सत्ता पर काबिज है. वहीं दूसरी ओर विपक्षी राजद, कांग्रेस, वामदलों और वीआईपी का महागठबंधन और प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी है. बिहार के चुनावी समर में ये दल भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, बाढ़ और बिहार से युवाओं के पलायन को मुद्दा बना रहे हैं. लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने अपने विमर्श के केंद्र में बिहार की उच्च शिक्षा की दयनीय स्थिति को नहीं रखा है. जबकि बिहार से अधिकतर युवा उच्च शिक्षा के लिए हर साल दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं. इसलिए चुनाव का समय उपयुक्त समय है जब इस प्रमुख विषय पर खुलकर चर्चा की जाए और इस समस्या के समाधान पर चर्चा की जाए.
बिहार में उच्च शिक्षा कि स्थिति
बिहार, भारत का एक प्रमुख राज्य होने के बावजूद, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लंबे समय से पिछड़ा है. बिहार की उच्च शिक्षा व्यवस्था न केवल बुनियादी ढांचे की कमी से जूझ रही है, बल्कि भ्रष्टाचार, अपर्याप्त संसाधन, हाई ड्रॉपआउट रेट और सामाजिक असमानताओं से भी ग्रसित है. ऐसे में 2025 के विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा और भी प्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि बिहार में 18-29 साल आयु के मतदाताओं की संख्या करीब 1.63 करोड़ है. यह संख्या कुल मतदाताओं का 22-25 फीसदी है. बिहार सरकार ने अपने सर्वेक्षण में पाया है कि राज्य के कुल शिक्षित लोगों में 93 फीसदी अंडर ग्रेजुएट हैं. यहां कि कुल आबादी में केवल 0.58 फीसदी के पास आईटीआई कि डिग्री है, 0.30 फीसदी इंजीनियर हैं, 0.06 फीसदी मेडिकल, 0.82 फीसदी पोस्ट ग्रेजुएट हैं, 0.07 फीसदी डॉक्टरेट और चार्टर अकाउंट के साथ 6.11 के पास स्नातक की डिग्री है. ऐसे में सवाल उठता है कि उच्च शिक्षा की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? क्या इसी दयनीय स्थिति के कारण अधिकतर छात्र उच्च शिक्षा के लिए बिहार से बाहर तो नहीं चले जाते. अगर देखा जाए तो बिहार से हर साल 70-80 हजार छात्र मेडिकल-इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए कोटा और 20-25 हजार छात्र सिविल सर्विसेज की कोचिंग के लिए दिल्ली के मुखर्जी नगर चले जाते हैं. एक सर्वेक्षण के मुताबिक बिहार से हर साल दो हजार करोड़ रुपये उच्च शिक्षा के नाम पर बिहार से बाहर जाता है.
उच्च शिक्षा की संरचनात्मक खामियां
बिहार, कभी नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविख्यात शिक्षा केंद्रों का गढ़ था, आज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शुमार है. प्राचीन काल की ज्ञान परंपरा के बावजूद, आधुनिक बिहार की उच्च शिक्षा व्यवस्था सामाजिक-आर्थिक असमानताओं, अपर्याप्त बुनियादी ढांचे और नीतिगत कमियों से जूझ रही है. 2025 तक की नवीनतम रिपोर्ट्स (जैसे AISHE 2021-22 और जातीय गणना रिपोर्ट) के मुताबिक, राज्य की उच्च शिक्षा में नामांकन दर राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे है, जबकि छात्रों का पलायन (ब्रेन ड्रेन) चरम पर है. बिहार की जनसंख्या करीब 13 करोड़ है, लेकिन यहां कि उच्च शिक्षा व्यवस्था देश के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे निचले पायदान पर है. ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (AISHE) 2021-22 की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 18-23 साल आयु वर्ग के युवाओं का सकल नामांकन अनुपात (GER) मात्र 14.9 फीसदी है, जबकि राष्ट्रीय औसत 25.2 फीसदी है. इसका मतलब है कि करीब 1.13 करोड़ युवा उच्च शिक्षा से वंचित हैं. राज्य में प्रति लाख आबादी पर उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या सबसे कम है- कुल 37 विश्वविद्यालय, 1,092 महाविद्यालय और 315 स्वतंत्र संस्थान हैं, जो 13 करोड़ की आबादी के लिए अपर्याप्त हैं.
इस प्रकार देखा जाए तो बिहार में उच्च शिक्षा को लेकर आधारभूत ढांचा ना केवल देश के दूसरे विकसित राज्यों की तुलना में काफी कम है, बल्कि यह राष्ट्रीय औसत से भी काफी नीचे है. जैसे बिहार में सकल नामांकन अनुपात 18 से 23 साल तक के युवाओं में 14.9 फीसदी है, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर यह 25.2 फीसदी है. इसका मतलब यह हुआ कि बिहार के 1.13 करोड़ युवा उच्च शिक्षा से वंचित हैं. वहीं प्रति लाख छात्रों पर यहां मात्र छह महाविद्यालय की उपलब्धता है. यह देश में सबसे निचले स्तर पर है. जहां राष्ट्रीय स्तर पर प्रति लाख महाविद्यालयों की उपलब्धता 25 है एवं शिक्षक-छात्र का अनुपात 25:1 का है. बिहार में शिक्षक छात्र का यह अनुपात 47:1 का है. सबसे चिंता जनक स्थिति यह है कि बिहार में उच्च शिक्षा में ड्रॉप आउट दर करीब 20 फीसदी है. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 12 फीसदी के आसपास है. बिहार सरकार ने 2025-2026 के अपने सालाना बजट में उच्च शिक्षा के लिए 60 हजार 959 करोड़ रुपये रखे हैं. लेकिन इसके अनुरूप उच्च शिक्षा के आधारभूत संरचना में कोई आमूल-चूल परिवर्तन नहीं हो सका. यह इस बात का संकेत है कि उच्च शिक्षा भ्रष्टाचार और लालफीताशाही का शिकार बनकर रह गई है.
राजनीतिक उदासीनता
हालांकि, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने बिहार में शिक्षा को लेकर कुछ सकारात्मक नीतिगत फैसले लिए हैं, जैसे बिहार में निजी विश्वविद्यालय खोलने के लिए कानून बना, स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड की व्यवस्था, प्रतियोगी छात्राओं और अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए प्रोत्साहन राशि की व्यवस्था, विश्वविद्यालय सेवा आयोग का गठन, तकनीकी, खेल और कौशल विश्वविद्यालय की स्थापना. इन नीतिगत फैसलों की जो सीमा है, वह है प्रशासनिक निरंकुशता. इसका परिणाम यह है कि बिहार के विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों कि घोर कमी के बावजूद प्राध्यापकों कि नियुक्ति में पांच साल से अधिक का समय लग जाता है. पिछली बहाली की प्रक्रिया 2013 में शुरू हुई थी जो 2020 में जाकर खत्म हुई. वहीं वर्तमान बहाली 2019 से चल रही है और अभी भी आधे विषयों के प्राध्यापक नियुक्त नहीं किए जा सके हैं. इस वजह से बिहार के विश्वविद्यालय अतिथि शिक्षकों के भरोसे चल रहे हैं. लेकिन, पिछले कुछ सालों में अतिथि शिक्षकों की बहाली में भी घोर अनियमितता देखने को मिली है. कुलपति की राजनीतिक नियुक्ति उसे गैर-जवाबदेह बनाती है. इस वजह से योग्यता वाले प्राध्यापक की जगह पहुंच वाले अभ्यर्थी नियुक्त कर दिए जाते हैं. इसका नकारात्मक परिणाम उच्च शिक्षा के मानकों पर पड़ता है.
अगर इस चुनाव में दोनों प्रमुख गठबंधनों और नए राजनीतिक दल जन सुराज पार्टी के चुनावी मुद्दों को देखा जाए तो अब भी ये पलायन, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, जंगलराज और जातीय समीकरणों तक खुद को समेटे हुए हैं. जब ये विपक्ष में रहते हैं तो हर रोज उच्च शिक्षा को लेकर सरकार को घेरते रहते हैं, लेकिन सरकार में आते ही ये मुद्दे गौण पड़ जाते हैं.
राजनीतिक दलों चुनावी एजेंडा
एनडीए का जोर विकास, कानून-व्यवस्था, महिला कल्याण, बुनियादी ढांचा, 12 लाख सरकारी और 34 लाख निजी नौकरियों, महिलाओं को 10,000 रुपये मासिक सहायता (मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना), 125 यूनिट मुफ्त बिजली, धार्मिक पर्यटन (राम-सीता सर्किट) को बढ़ावा, विधवाओं-बुजुर्गों की पेंशन तिगुनी करने, बाढ़ नियंत्रण और पश्चिमी कोसी नहर और कानून-व्यवस्था के साथ-साथ नई शिक्षा नीति पर है. वहीं महागठबंधन बेरोजगारी, सामाजिक न्याय, पलायन रोकने, 20 महीने में हर घर में एक सरकारी नौकरी, महिलाओं को 2,500 रुपये मासिक ('माई-बहन मान' योजना), 200 यूनिट मुफ्त बिजली, विधवाओं/बीपीएल के लिए 1,500 रुपये पेंशन, 25 लाख तक मुफ्त इलाज, जाति-आधारित जनगणना और आरक्षण बढ़ाना, शराबबंदी हटाना (28,000 करोड़ राजस्व के लिए) और किसानों के लिए एमएसपी की गारंटी का वादा कर रहा है. महागठबंधन की ओर से सीएम फेस बनाए गए तेजस्वी यादव ने कहा है, "शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाकर पलायन रोका जाएगा."
इसी तरह से जन सुराज पार्टी का जोर युवाओं, विकास, भ्रष्टाचार मुक्ति, त्वरित बदलाव, सौ दिन में 10 लाख नौकरियां देने, महिलाओं को कम ब्याज पर कर्ज (कॉटेज उद्योग के लिए), 25 लाख तक यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज, 1500 रुपये की पेंशन, 15 साल तक मुफ्त शिक्षा और टैबलेट, शराबबंदी हटाना, वैश्विक कर्ज लेकर पांच-छह लाख करोड़ निवेश, 'परिवार लाभ कार्ड' से 2,500 रुपये मासिक और भ्रष्टाचार-विरोधी सेल पर है. शिक्षा के लिए प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने शिक्षा के निजीकरण और जवाबदेही पर जोर दिया है.
इस तरह देखा जाए तो बिहार के विधानसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल ने उच्च शिक्षा को उसकी दयनीय स्थिति से निकालने के लिए युवाओं के सामने कोई ब्लू प्रिन्ट नहीं रखा है. जबकि, बगैर उच्च शिक्षा में सुधार किए बिहार में बदलाव संभव नहीं है.
डिस्क्लेमर: डॉ नीरज कुमार बिहार के वैशाली स्थित सीवी रमन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं. लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.