उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली जाना बहुतों का ख़्वाब होता है, और कुछ का नसीब। देशभर से लोग भारी संख्या में, राष्ट्रीय स्तर पर एक दूसरे से जूझकर - कुछ नम्बरों के बल पर, कुछ परीक्षा देकर और कुछ अपने हुनर के साथ - यह रास्ता तय कर पाते हैं। दिल्ली में सरकारी शिक्षा का जो दबदबा है, वह और जगह नहीं।
राजधानी में न केवल ख्वाब पूरे होते हैं, ज़िन्दगियां भी बनती, बिखरती हैं। चाहे डॉक्टर हो या इंजीनियर, फैशन डिजाइनर हो या साहित्यकार, रंगमंचकार हो या आर्किटेक्ट - दिल्ली में हर ख्वाब को एक पता ज़रूर मिल जाता हैI
इस ख्वाब को ढूंढते-ढूंढते मैं भी दिल्ली पहुंची थी। लखनऊ कतई छोटा शहर नहीं है, लेकिन कई दशकों से राज्यस्तरीय राजनैतिक गुटों ने विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में अंगुली और कोहनी डालकर उसे गुंडागर्दी और बाहुबल का गढ़ बना डाला था - लखनऊ विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थिति इन दशकों में बद से बदतर ही हुई थी और महिला छात्रों के लिए साफ-साफ खतरनाक।
चूंकि स्कूल के स्तर पर ठीक-ठाक नंबर प्राप्त हो गए थे, दिल्ली जाना लगभग तय था, राज्यकर्मी पिता जी और घरेलू माता जी को वैसे भी दिल्ली की अपार संभावनाओं पर लखनऊ की कोशिशों के संकीर्ण दायरे से ज़्यादा विश्वास था। दिल्ली विश्वविद्यालय में मैंने तीन साल बिताए और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दो और। इन दो सालों ने मेरे जीवन के कई साल तय किए, और न केवल मेरे ख़्वाब पूरे किए, कुछ नया देखने की हिम्मत भी दे डाली।
उत्तर भारत के मध्यमवर्गीय, हिन्दीभाषी परिवार में पलती-बढ़ती लड़कियों के जीवन के ज़्यादातर पहलू उनकी प्रतिभागिता के बिना ही तय हो जाते हैं, मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता था, इसलिए नहीं कि मुझ पर रोकटोक का भारी दबाव था, परन्तु इसलिए कि मुझे वैकल्पिक दुनिया, समाज या विचारधारा का कतई अंदाजा नहीं था। गर्मियों की छुट्टी में टीवी और आम और सर्दियों में मूंगफली - जीवन ज़्यादातर इन्हीं चक्रों में घूमता रहा। पड़ोसी, रिश्तेदार, स्कूल के दोस्त - सभी अपने जैसे ही लगते थे। उसी वर्गीय, जातीय और धार्मिक रेखाओं से खिंचे हुए, जिनसे मेरी पहचान खिंची हुई थी।
लेकिन लड़की होने का भेद मैंने पहले ही पकड़ लिया था, चूंकि वह भेद मुझे रोज़ घूरता था - स्कूल के मैदान में, साइकिल की सवारी में, शाम के ढलते अंधेरे में, बिना बाजू के कुर्ते में, गणित की क्लास में - अनगिनत तरीकों से मुझे रोज़ शर्म, ग्लानि और डर का आभास होता था। जब लखनऊ न रहकर दिल्ली जाने का मौका मिला तो विरोधाभास की स्थिति लगी, डर कम हो या ज़्यादा...?
जेएनयू जाकर कुछ समझ साफ-सी होने लगी। जिस राजनीति से दूर रहने की कई-कई बार हिदायतें दी गई थीं और जिससे मैं बाकायदा दूर भी रही थी, उसमें कुछ जवाब मिलने लगे - महिलाओं के प्रति हीनभावना एक बड़ी समस्या का हिस्सा है - यह बात साकार रूप से दिखने लगी - क्लास में शिक्षकों ने, कमरों में दोस्तों ने, ढाबों पर दिग्गजों और विचारकों ने कई बातें कहीं - कुछ से मुझे खौफ हुआ और कुछ में रुचि, पर कभी किसी ने जबरदस्ती नहीं की।
वामपंथी एक नहीं, कई विचारधाराओं के हो सकते हैं, इससे भी परिचय हुआ। नारेबाजी बिना बल के भी सफल हो सकती है, यह भी पहली बार देखा। रात के अंधेरे में भी चाय की चुस्की में किताबों से ज़्यादा समझ पैदा की जा सकती है - यह भी अचम्भा था।
दिल्ली में रहते हुए भी बिना प्रतिबंधों के मैं अपने कमरे से आ-जा सकती हूं - चाहे वह नाटक देखने के लिए हो, क्लास जाने के लिए या फिर दूध खरीदने के लिए - जो सार्थकता, सबलता और स्व-विश्वसनीयता यहां पैदा हुई, उसने मेरा साथ दिया है, हमेशा... और यह मैं पूर्ण विश्वास से कह सकती हूं कि अगर दकियानूसी कायदे-कानून मुझे बांधे रहते तो यह सोच, यह विश्वास बनाए नहीं बनता।
जहां मेरी गुत्थियां सुलझ रही थीं, वहीं मैं अन्य गुत्थियों में उलझ रही थी - जिन विशेषाधिकारों के बारे में मैंने कभी भी सजग होकर विचार नहीं किया था, वह सवाल मेरे टीचर, मेरे दोस्त और मेरे जीवन की प्रतिदिनता मुझसे पूछने लगी थी - यह समझ में आने लगा था कि राजनीति केवल संसदीय या वैधिक नहीं, दैनिक भी होती है।
यह सवाल रात की रैलियों में उठ रहे थे, दिन के सभागारों में प्रकट हो रहे थे, कैंटीन की टेबल पर बज रहे थे - क्या यह सवाल पूछे नहीं जाने चाहिए थे...? इन सवालों ने दोस्त बनाए और जो दोस्त न बन सके, उनसे पहचान कराई। इन सवालों ने असमंजस भी पैदा किया, लेकिन विश्वास भी जगाया... रातों की नींद भी खराब की, लेकिन बेहतर सुबह का आश्वासन भी दिया। यह सवाल खतरनाक नहीं, प्रतीकात्मक थे।
हम जिस समय में रह रहे थे, उस समय के, हम जिस दौर से गुजर रहे थे, उस दौर के - हम अपनी पहचान के साथ प्रयोग भी कर रहे थे और उसका निर्माण भी। यह सवाल कई विषयों के बारे में थे, परंतु कई सवाल इस बारे में भी थे कि कौन-से सवाल पूछे जाते हैं और कौन से नहीं...? इन सवालों ने मुझे खतरनाक नहीं, संवेदनशील ज़रूर बनाया है। मैंने कई सवाल ख़ारिज ज़रूर किए हैं, पर सवाल पूछना नहीं छोड़ा, न छोड़ूंगी।
भूमिका जोशी येल यूनिवर्सिटी में मानवशास्त्र की PhD छात्रा हैं...
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This Article is From Feb 17, 2016
जेएनयू ने सिखाया था - डिग्री ही नहीं, सवाल भी ज़रूरी हैं...
Bhoomika Joshi
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 17, 2016 18:03 pm IST
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Published On फ़रवरी 17, 2016 08:40 am IST
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Last Updated On फ़रवरी 17, 2016 18:03 pm IST
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