जन्मतिथि: 18 दिसंबर 1887
पुण्यतिथि: 10 जुलाई 1971
भिखारी ठाकुर को लोगों ने देवता बना दिया है. देवता बनाने से व्यक्ति लोक से कट जाता है. भिखारी लोक-मर्मज्ञ थे. लोकमंच के पुरोधा थे. भोजपुरी रंगमंच के अग्रदूत व संस्कृति के क्रांतिदूत के रूप उन्हें याद किया जाए. उन्हें याद करने का सबसे अच्छा तरीका लोक से जुड़कर ही पूरा किया जा सकता है. लोक से इतर भिखारी की कल्पना नहीं की जा सकती है.
यह भिखारी ठाकुर का लोक कनेक्शन ही है कि उनकी मृत्यु के 53 साल बाद भी उनकी लोकप्रियता का ग्राफ दिन पर दिन ऊपर ही जा रहा है. भले ही उनका नाम भिखारी है, लेकिन आज भोजपुरी में उनसे अमीर आदमी कोई नहीं है. करोड़ों रुपये खर्च करके भी इस तरह की ब्रांडिंग संभव नहीं है, जिसे भोजपुरी का ‘भ' या भिखारी का ‘भि' भी नहीं पता, वह भी भिखारी ठाकुर की जय, भिखारी ठाकुर की जय .. जय जयकार कर रहा है. भिखारी ठाकुर ट्रेंडिंग में हैं. आप कह सकते हैं कि वह भोजपुरी के ‘दिवंगत ट्रेंडिंग स्टार' हैं. भिखारी एक ‘नारा' हो गए हैं, जबकि भिखारी एक ‘ विचार ' हैं.
क्या सरकारी, क्या गैर सरकारी अधिकांश संस्थाएं इसी ढंग के आयोजन में लगी हैं. कार्यक्रम में चार चांद लगाने के लिए संगीत-सिनेमा के स्टार, सुपरस्टार, पॉवर स्टार, ट्रेंडिंग स्टार, जुबली स्टार इकठ्ठा होते हैं. ‘भिखारी ठाकुर सम्मान' से सम्मानित होते हैं. भिखारी बाबा का गुणगान किया जाता है, उनकी प्रतिमा पर फूल-माला चढ़ाया जाता है, उनके आदर्शों की बात होती है और फिर गाना-बजाना होता है कि ‘'नीबू खरबूजा भइल'', ‘'कमर डैमेज'', ‘'ओढ़नी में कोड़नी'' आदि-इत्यादि.
भिखारी ठाकुर ने तो कभी अश्लील नहीं गाया, लेकिन भोजपुरी में आज तक उनसे बड़ा कोई इंटरटेनर नहीं हुआ. यह बात भोजपुरी एल्बम और फिल्म इंडस्ट्री को क्यों नहीं समझ में आती है. भिखारी ठाकुर ने समाज की समस्याओं को अपने नाटकों का विषय बनाया और उन्हीं समस्याओं पर गीत रचे और तब की भीड़ को आज के व्यूज के हिसाब से देखें तो दूर-दराज से लोग उनका नाटक देखने आते थे, खचाखच भीड़ होती थी. पैसे की बात करें तो सबकी औकात नहीं थी कि भिखारी ठाकुर की नाचमण्डली को हायर कर सकें. खूब दबाकर पैसा लेते थे. भिखारी ठाकुर अपनी शर्तों पर काम करते थे और आदर-सम्मान के साथ बुलाए जाते थे, हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया के कई देशों में. लोकप्रियता ऐसी कि आम तो आम, खास लोग भी उनकी कला के मुरीद थे. तभी तो राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें ‘ भोजपुरी का अनगढ़ हीरा' कहा, अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान प्रो. मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने उन्हें ‘ भोजपुरी का शेक्सपियर ' कहा, डॉ. उदय नारायण तिवारी ने ‘ भोजपुरी का जनकवि ‘ तो जगदीश चन्द्र माथुर ने भरतमुनि की परंपरा का बताया. यहां तक कि अंग्रेजों ने राय बहादुर के खिताब से सम्मानित किया.
नारी मन को तो उनसे बेहतर किसी ने आज तक समझा ही नहीं. बेटी बेचवा का गीत – ‘ रूपिया गिनाई लिहलs, पगहा धराई दिहलs .. चेरिया के छेरिया बनवलs हो बाबूजी ‘ या बिदेसिया के बारहमासा में एक स्त्री के बारहो महीने और आठों पहर के दुख को जिस तरह से भिखारी ने पकड़ा है, वह किसी और के बस की बात नहीं है या ‘ डगरिया जोहत ना हो डगरिया जोहत ना, बीतत बाटे आठ पहरिया हो डगरिया जोहत ना' / के हो हमरा जरिया में भिरवले बाटे अरिया हो, चकरिया दरी के ना, दुख में होता जंतसरिया हो, चकरिया दरी के ना .. गीत देखिए. भिखारी ठाकुर ने नारी मन को स्कैन किया और गीत बनाए. .. और हमारी अभी की फिल्म इंडस्ट्री नारी देह को स्कैन कर रही है और गीत बना रही है.
यहां दुखद यह है कि भिखारी ठाकुर को लोगों ने एक नचनिया-बजनिया या नौटंकी वाले के रूप में ज्यादा देखा, उनके नाटकों को मनोरंजन के लिहाज से ज्यादा पढ़ा. अगर उन्हें नवजागरण या पुनर्जागरण का पुरोधा मानकर पढ़ा-लिखा या मंचन किया जाय तो हम उनके साहित्य के मर्म को ज्यादा समझ पाएंगे.
भिखारी ठाकुर पढ़े नहीं थे, गढ़े थे जैसे कि संत कबीर. और इन दोनों लोगों के साहित्य को पढ़िए तो पता चलेगा कि ये सामयिक भी हैं और शाश्वत भी.
इधर कई वर्षों से गोष्ठियों और सेमिनारों में भिखारी ठाकुर की प्रासंगिकता को लेकर विमर्श होता रहा है. 17 दिसंबर 2024 को भी दिल्ली के एलटीजी ऑडिटोरियम में बिदेसिया नाटक के मंचन के पूर्व इस विषय पर परिचर्चा आयोजित थी. वक्ता के रूप में मैं भी आमंत्रित था. मैंने भिखारी के कई नाटकों का जिक्र करके उन्हें प्रासंगिक बताया. जैसे कि ‘बिदेसिया' में प्रवास और पलायन की समस्या है, वह आज भी बरकरार है और लोग रोजी-रोजगार के लिए अपनी मातृभूमि से दूर जाने के लिए आज भी विवश हैं. ‘बेटी-बेचवा' नाटक का जिक्र करते हुए कहा कि अब तो ‘बेटी-बेचवा' के साथ ‘बेटा-बेचवा' भी हैं. रिश्ते की बुनियाद में पैसा होगा तो अनमेल शादियां होंगी ही. सामान्य परिवार के बहुत सारे बाप योग्य और बड़े पद पर कार्यरत बेटे की शादी धन के लालच में ऐसी लड़की से कर देते हैं कि लड़के का जीवन ही बर्बाद हो जाता है. ‘पियवा निसइल' में नशाखोरी की वजह से घर बर्बाद होने की बात है, वह समस्या आज भी बरकरार है. इसीलिए नशामुक्ति केंद्र बढ़ते जा रहे हैं. आज सेरोगेसी और डीएनए टेस्ट की बात हो रही है, ‘गबरघिचोर' में बेटा किसका है, इसी समस्या पर पूरा नाटक है. ‘गंगा स्नान' ढोंगी साधु की कहानी है. आज भी ढोंगी-पाखंडी बाबाओं की कमी नहीं है और आज भी वह भोले-भाले मासूम लोगों को अपना शिकार बना रहे हैं. ‘भाई-विरोध' में कुटनी की वजह से संयुक्त परिवार के टूटने का जिक्र है, तो आज भी परिवार टूट ही रहा है, बल्कि पहले से ज्यादा.
‘रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे' .. यह कोई उत्सव का गीत नहीं है. यह प्रवास की पीड़ा और पलायन का दर्द है. इसी साल छठ पर मेरा भी एक गीत रिलीज हुआ, इसी पीड़ा से उपजा हुआ. गीत का बोल है- जागे यूपी बिहार. भिखारी ठाकुर की पावन स्मृति को नमन करते हुए वह गीत आप सबके साथ साझा कर रहा हूं -
गीत / मनोज भावुक
छुट्टी खातिर कहिया ले अर्जी लगइबs / कहिया ले जोड़बs तू हाथ
कहिया ले रेलिया रहि इहाँ बैरन / कहिया मिली सुख के साथ
छठी मइया दिहीं ना असीसिया जागे यूपी-बिहार
भटके ना बने-बने लोगवा, मिले गाँवे रोजगार
रोटी के टुकड़ा के जिनगी रखाइल / रहि-रहि के हँकरत बा कोल्हू के बैल
दुनिया के स्वर्ग बनवलें बिहारी / काहे अपने धरती प भइलें भिखारी?
चमकल मॉरीशस, दिल्ली, बंबे / चमके अपनों दुआर, चमके यूपी-बिहार
अंगना में माई उचारेली कउवा / कब अइहें बबुआ पुकारेली नउवा
नोकरी के चक्कर में का-का बिलाता / बंजर भइल जाता सब रिश्ता-नाता
माई संगे ठेकुआ बनाईं / माई हमके धरे अंकवार
गंउआ के धरती पड़ल बाटे परती / ओही जी उगाईं सोना-चानी
ओही जी बनाईं अब महल-अटारी, जहां बाटे टूटही पलानी
केतना सिखवलस कोरोनवा, सुनीं गांव के पुकार
जब मै नौकरी करने लंदन गया था, तब भी ऐसा ही एक गीत लिखा था –
बदरी के छतिया के चीरत जहजवा से अइली फिरंगया के गांवे हो संघतिया
लंदन से लिखतानी पतिया पहुंचला के अइली फिरंगया के गांवे हो संघतिया
कहने का मतलब यह है कि हम अपने समय को रचते हैं, अपनी पीड़ा को गाते हैं. दर्द जब राग बन जाता है तो जीवन गीत बन जाता है और कुछ आसान हो जाता है. बात जब आत्मा से सलीके से निकलती है तो कला, साहित्य या सिनेमा केवल आईना नहीं होता, वह परिस्थितियों को ठीक करने के लिए हथौड़ा बन जाता है, हथियार बन जाता है.
भिखारी ठाकुर का पूरा साहित्य वैसा ही है. उनकी सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि उनके साहित्य का, उनके नाटकों का, उनके गीतों का हिन्दी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय व विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो और भिखारी ठाकुर सब तक पहुंचे... वर्ना वह सिर्फ एक नाम, एक नारा बनकर रह जाएंगे, जबकि वह एक विचार हैं.
(लेखक मनोज भावुक भोजपुरी जंक्शन पत्रिका के संपादक, सुप्रसिद्ध कवि व फिल्म-कला समीक्षक हैं.)
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